Tuesday, February 28, 2012

देखना फिल्म को किताब की तरह

अब भी हैं फिल्म को किताब की 
तरह देखने वाले फिल्मकार


-विनोद भारद्वाज
साठ के दशक में उभरे नये सिनेमा के कई नाम हैं-समांतर सिनेमा, सार्थक सिनेमा, आर्ट सिनेमा, नयी धारा, प्रयोगधर्मी सिनेमा, गैर-पेशेवर सिनेमा। समांतर सिनेमा (पैरलल सिनेमा) ही शायद सबसे सही नाम है। सन् 1960 में फिल्म वित्त निगम (फिल्म फाइनेंस कार्पोरेशन या एफएफसी) ने सिनेमा के लिए जगह बनानी शुरू की थी और साठ के दशक के अंतिम वर्षों में भारतीय भाषाओं में एक साथ कई ऐसी फिल्में बनीं जिन्होंने नयी धारा आंदोलन को ऐतिहासिक पहचान दी। फ्रांस में पचास के दशक में कुछ युवा फिल्म समीक्षकों ने नयी धारा को विश्व सिनेमा के इतिहास में अपने ढंग से रेखांकित किया और जब उन्होंने (गोदार, फ्रांसुआ, त्रुफो आदि) अपनी फिल्में बनानी शुरू कीं तो उन फिल्मों को फ्रांसीसी भाषा में नूवेल वाग (न्यू वेव यानी नयी धारा या लहर) नाम दिया गया। एफएफसी ने शुरू में सुरक्षित रास्ता चुना था और वी शांताराम की "स्त्री' (1962) सरीखी फिल्मों से शुरुआत की थी। सत्यजित राय की "चारुलता', "नायक', "गोपी गायन बाघा बायन' सरीखी फिल्में भी इसी स्रोत से बनीं। राय तब तक अंतरराष्ट्रीय ख्याति पा चुके थे। शांताराम तो खैर मुख्यधारा के सिनेमा की पैदाइश थे। लेकिन फिल्म पत्रकार बीके करंजिया जब एफएफसी के अध्यक्ष बने, तो कम बजट की प्रयोगधर्मी फिल्मों को बढ़ावा मिलना शुरू हुआ। 


बांग्ला फिल्मकार मृणाल सेन की "भुवन शोम' (1969) से समांतर सिनेमा की शुरुआत मानी जा सकती है। इस फिल्म का बजट कम था, नायक उत्पल दत्त भले ही नायककार और अभिनेता के रूप में मशहूर थे, लेकिन नायिका सुहासिनी मुले बिलकुल नया चेहरा थीं। "भुवन शोम' का नायक रेलवे में एक अक्खड़-अकड़ू अफसर था जो गुजरात के उजाड़ में चिड़ियों के शिकार के चक्कर में एक ग्रामीण लड़की के सामने अपनी हेकड़ी भूलने पर मजबूर हो जाता है। लड़की को इस तानाशाह अफसर का कोई डर नहीं है। अफसर को जीवन की नयी समझ मिलती है।खुद सत्यजित राय को समांतर सिनेमा का एक नाम कहा जा सकता है। मृणाल सेन, राय और ऋत्विक घटक लगभग एक ही दौर में अपनी फिल्मों से भारत के बेहतर सिनेमा के चर्चित प्रतिनिधि साबित हुए थे। राय को पश्चिम में अधिक ख्याति और चर्चा मिली, मृणाल सेन राजनीतिक दृष्टि से अधिक प्रतिबद्ध थे और ऋत्विक घटक बाद में भारतीय समांतर सिनेमा के अघोषित गुरु बना दिये गये। मणि कौल, कुमार शहानी आदि नयी धारा के फिल्मकार घटक के छात्र थे और वे राय के सिनेमा को अपना "पूर्ववर्ती' नहीं मानते थे। कुमार शहानी क्योंकि फ्रांस में रॉबर्ट ब्रेसां सरीखे चर्चित प्रयोगधर्मी फिल्मकार के साथ भी काम कर चुके थे, इसलिए उनकी पहली फिल्म "माया दर्पण' को प्रयोगधर्मी सिनेमा के प्रारंभिक इतिहास में मील का पत्थर बना दिया गया। मणि कौल की "उसकी रोटी' एक दूसरा मील का पत्थर थी। 


समांतर सिनेमा के दो सिरे थे- एक सिरे पर "भुवन शोम', "सारा आकाश' (बासु चटर्जी) "गर्म हवा' (एमएस सत्यू), "अंकुर' (श्याम बेनेगल) आदि थीं जिनमें सिनेमा के मुख्य गुणों को पूरी तरह से छोड़ नहीं दिया गया था। दूसरे सिरे पर "उसकी रोटी', "माया दर्पण', "दुविधा' (मणि कौल) आदि फिल्में थीं जो सिनेमा की प्रचलित परिभाषा से काफी दूर थीं।राय ने 1971 में "एन इंडियन न्यू वेव?' नाम से एक लंबे लेख में विश्व सिनेमा को ध्यान में रख कर भारतीय समांतर सिनेमा पर सवाल उठाये थे। सन् 1974 में उन्होंने "फोर ऐंड ए क्वार्टर' नाम से अपने एक दूसरे लेख में "गर्म हवा', "माया दर्पण', "दुविधा', "अंकुर' पर लिखा था। "क्वार्टर' से उनका आशय चित्रकार तैयब मेहता की लघु फिल्म "कूडल' से था, जिसे वे मकबूल फिदा हुसेन की बर्लिन महोत्सव में पुरस्कृत फिल्म "थ्रू द आइज ऑफ ए पेंटर' से बेहतर मानते थे- फिल्म भाषा की पकड़ के कारण। लेकिन उन्होंने मणि कौल और कुमार शहानी की फिल्म भाषा को लेकर कुछ गंभीर प्रश्न उठाये। राय इस भाषा से आश्वस्त नहीं थे।"भुवन शोम' के बारे में राय की टिप्पणी गौर करने लायक और दिलचस्प है। राय के अनुसार, "भुवन शोम' में सिनेमा के कई लोकप्रिय तत्त्वों का इस्तेमाल किया गया था- एक "आनंददायक' नायिका, कर्णप्रिय बैकग्राउंड संगीत और सरल संपूर्ण इच्छापूरक पटकथा (सात अंग्रेजी के शब्द में "बिग बैड ब्यूरोक्रेट रिफॉर्म्ड बाइ रस्टिक बैले')। यानी एक अक्खड़ अफसर को ग्रामीण सुंदरी ने सुधार दिया। लेकिन "भुवन शोम' को पहली "ऑफ बीट' फिल्म मान लिया गया। इस फिल्म को थोड़े बहुत दर्शक मिले। "भुवन शोम', "गर्म हवा', "अंकुर' ऐसी फिल्में नहीं थीं जिन्हें देखकर दर्शक "अपना सर पकड़ कर' बाहर आये। "गाइड' (जो निश्चय ही हिंदी सिनेमा की एक उपलब्धि है) के निर्देशक विजय आनंद मुंबई के मैट्रो सिनेमा में अंतरराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के दौरान एक फिल्म छोड़कर अपना सर पकड़े बाहर आये और कॉफी पी रहे थे। उन्होंने इन पंक्तियों के लेखक से यह टिप्पणी की थी। 


एक बार कोलकाता के अंतरराष्ट्रीय फिल्मोत्सव में तुर्की फिल्मकार इलमाज गुने की फिल्म देखकर बाहर आये फिल्मकार सईद मिर्जा ने इन पंक्तियों के लेखक से कहा था, "यह सीधे दिल से निकला सिनेमा है।' यानी फिल्म का "सर-पकड़' होना उसकी खासियत नहीं है। सत्तर के दशक में सईद मिर्जा उन फिल्मकारों में से थे जो समांतर सिनेमा के बेहतर प्रतिनिधि थे। वे सीधे दिल से निकले सिनेमा के पक्षधर थे।सत्यजित राय ने एक और महत्वपूर्ण टिप्पणी की थी। उनका कहना था कि जेम्स ज्वॉयस सरीखा आधुनिक अंग्रेजी लेखक अपने उपन्यास "यूलीसिस' में कठिन अभिव्यक्ति का जो जोखिम उठा सकता है, वह एक फिल्मकार नहीं उठा सकता। "यूलीसिस' में लेखक "फ्लड ऑफ वार्म जिमजैम लिकिटप सीक्रेटनेस फ्लोड टु लिक फ्लो इन म्यूजिक आउट, इन डिजायर, डार्क टु लिक फ्लो, इनवेडिंग' सरीखे वाक्य लिख सकता है क्योंकि पाठक इस भाषा की बारीकियों को समझने के लिए दुबारा-तिबारा इस वाक्य को पढ़ सकता है। वह आसानी से किताब बंद कर और खोल सकता है। "लेकिन एक फिल्म दर्शक का समय उसका अपना समय नहीं है।' प्रति सेकेंड 24 फ्रेम उसे देखने होते हैं। आप वापस नहीं आ सकते हैं। 


यह सही है कि आज डीवीडी सरीखे माध्यम ने समांतर सिनेमा को भी एक तरह की पुस्तक का दर्जा दे दिया है। आप पीछे लौट सकते हैं, दृश्य या प्रसंग दुबारा देख सकते हैं, फिल्म को किताब की तरह आलमारी में रख सकते हैं। लेकिन 1971 में यह सुविधा उपलब्ध नहीं थी।बहरहाल, समांतर सिनेमा की मुख्य पहचान कम बजट, फेस्टिवल के जागरूक दर्शक (एक बातचीत में प्रकाश झा ने एक बार जिन्हें फोकट का दर्शक मानकर अपना गुस्सा दिखाया था), प्रयोगधर्मी पटकथा, प्रतिबद्ध अभिनेता (आज नसीर, ओम पुरी, शबाना में भी पुरानी प्रतिबद्धता नहीं है) आदि थे। उन दिनों कम बजट का मतलब ढाई-तीन लाख रुपये था। जब सत्तर के दशक के मध्य में यह कम बजट सात-आठ लाख रुपये हो गया, तो मलयाली फिल्मकार जी अरविंदन ने एक प्रेस कॉनफ्रेंस में यह बताया, "मैं जो सिनेमा बनाता हूं वह एक लाख के बजट का सिनेमा है।' यह भी गौर करने की बात है कि जब हिंदी में समांतर सिनेमा बनना शुरू हुआ, तो फिल्मकारों ने मोहन राकेश, निर्मल वर्मा, राजेंद्र यादव, मन्नू भंडारी, रमेश बक्षी, विनोद कुमार शुक्ल, धर्मवीर भारती सरीखे लेखकों की रचनाओं को चुना। नयी लहर को नयी कहानी का सहारा चाहिए था। लेकिन फ्रांसीसी नयी धारा के सबसे चर्चित नाम जां लु गोदार अपनी पटकथा के लिए श्रेष्ठ लेखक खोजने में कोई खास विश्वास नहीं करते थे। खराब रचना उन्हें ज्यादा विचार देती थी। गोदार कहते थे मेरी फिल्म में प्रारंभ, मध्य और अंत होता है लेकिन जरूरी नहीं कि उसका "ऑर्डर' भी यही हो। अंत शुरू में भी हो सकता है। एक महिला रेस्तरां से बाहर आकर एक आदमी की हत्या कर देती है लेकिन पूरी फिल्म में उस प्रसंग का कोई और संदर्भ नहीं आयेगा। कहने का अर्थ यह है कि सिनेमा में भी प्रयोगधर्मी लेखक सरीखी स्वतंत्रता लेने की कई सफल-असफल कोशिशें की गयी हैं। उसमें व्यावसायिकता की मुख्य शर्तों को कई बार कई तरह से नकारा गया है। लेकिन दुर्भाग्यवश (या सौभाग्यवश) फिल्म एक फिल्म है। वह एक महंगा माध्यम है और आज अनुराग कश्यप सरीखे (आज के तंत्र के मणि कौल) फिल्मकार भी कुछ करोड़ रुपये के बजट में ही फिल्म बना सकते हैं।


ऐतिहासिक दृष्टि से देखें, तो समांतर सिनेमा की मृत्यु भले ही बरसों पहले घोषित की जा चुकी हो लेकिन वह पूरी तरह से मरा नहीं है। दुनिया भर में वह जीवित है। ईरान, तुर्की, दक्षिण कोरिया में भी वह जीवित है। भारत में भी श्याम बेनेगल, अडूर गोपालकृष्णन, बुद्धदेव दासगुप्त और गौतम घोष सरीखे नाम प्रतिकूल वातावरण के बावजूद "रिटायर' नहीं हो गये हैं। लेकिन आज सरकारी स्रोतों से कभी वापस न करने वाला उधार लेकर फोकट के दर्शकों के लिए फिल्में बनाना मुश्किल हो गया है। टेलीविजन ने विदेश में समांतर फिल्मकारों को अच्छे बजट दिये हैं। उसके अच्छे नतीजे भी सामने आये हैं। भारत में लेकिन टेलीविजन का अधिक पतन हुआ है।वापस साठ और सत्तर के दशक के माहौल में जायें, तो "सारा आकाश' में बासु चटर्जी ने जो सादगी दिखायी थी, उसके बल पर वे लंबे समय तक ऐसी फिल्में बनाते रहे जो कम से कम रिलीज हो जाती थीं और समांतर सिनेमा की जटिलता से दूर रहना पसंद करती थीं।


 अवतार कौल ने "27 डाउन' में कुछ आशाएं जगायी थीं लेकिन उनका असमय निधन हो गया। सत्यू "गर्म हवा' के बाद भी फिल्में बनाते रहे, लेकिन पहली फिल्म में जो ताकत थी, जो प्रामाणिक और मार्मिक माहौल था, वह बाद में नहीं देखने को मिला। बसु भट्टाचार्य की "तीसरी कसम' भी इसी परंपरा की फिल्म है।सन् 1970 में पट्टभी राम रेड्डी की फिल्म "संस्कार' ने सिनेमा के नये द्वार खोले। बीवी कारंत (चोमन दुडी) गिरीश कार्नाड (काडू), जी अरविंदन (कांचन सीता, चिदंबरम्), एमटी वासुदेवन नायर (निर्मालयम्) अडूर गोपालकृष्णन (एलीपतायम), शाजी करुण (पीरवी) सरीखे फिल्मकारों ने समानांतर सिनेमा को कई सार्थक फिल्में दीं। मणि कौल, सईद मिर्जा, कांतिलाल राठौर, गिरीश कासरवल्ली, गौतम घोष, बुद्धदेव दासगुप्त, केतन मेहता, प्रकाश झा, कुंदन शाह आदि फिल्मकार अपने-अपने ढंग से समांतर सिनेमा के महत्वपूर्ण नाम साबित हुए। जाह्नू बरुआ ने असमिया सिनेमा को नयी दिशा दी। कुछ व्यावसायिक लहरों की चपेट में आ गये (प्रकाश झा, केतन मेहता), कुछ आखिर तक अपनी शर्तों का सिनेमा बनाते रहे (मणि कौल) और कुछ आज भी अलग तरह के अर्थपूर्ण सिनेमा का सपना देख रहे हैं। "दुविधा', "नौकर की कमीज' (मणि कौल), "भूमिका', "सूरज का सातवां घोड़ा' (श्याम बेनेगल), "पार' (गौतम घोष), "एलिपतायम्, मुखामुखम्' (अडूर) "चिदंबरम्' (अरविंदन) "पीरवी' (शाजी), "मिर्च मसाला' (केतन मेहता), "बाघ बहादुर', "दूरत्व' (बुद्धदेव दासगुप्त), "अलबर्ट पिंटो को गुस्सा क्यों आता है', "नसीम' (सईद मिर्जा), "जाने भी दो यारो' (कुंदन शाह), "घटश्राद्ध' (गिरीश कासखल्ली) आदि फिल्मों की एक लंबी सूची है जो समांतर सिनेमा की उल्लेखनीय उपलब्धियां हैं। ऐसा नही है कि समांतर सिनेमा भारत में मर गया है, लेकिन कम बजट में बेहतर फिल्म बनाने का सपना जरूर मुश्किल हो गया है। पहले भी मुश्किल था। आज सिनेमा बनाने का तंत्र महंगाई का बुरी तरह से शिकार है, लेकिन फिल्म को किताब की तरह देखने वाले फिल्मकार सौभाग्यवश पूरी तरह से गायब नहीं हुए हैं। 
(द पब्लिक एजेण्डा से साभार)

4 comments:

  1. dostoon ipta jamia 6th feb ko jamia millia ke students ke saat milkar ke natak karne jaraha hai... ye M C R C jamia ke old studio main hoga ......iska direction kiya hai kamal kumar ne....zadya jankarike leyan 9953648693.....aap sab sa-adar amntrit hain

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  4. क्या सरकार आर्ट फिल्मो के लिए कोई सहुलियत नहिं देती? आर्ट फिल्मों को आम आदमी तक पहूंचाना बहोत जरूरी है, क्यों की लगभग सभी कमर्शियल सिनेमा में एक्टिंग, संगीत...कहीं भी आर्ट दिखाई नहिं दे रही। केवल दूरदर्शन के दौर में श्याम बेनेगल या बासू चटर्जी के फिल्मो जैसी कुछ सीरीयल बन जाया करती थी। अब तो ईस चेनल टीवी पे कोन से नंबर पर आती है वह भी याद नहि!

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