Monday, April 30, 2012

बलराज साहनी जन्मशती वर्ष-1 : सिनेमा और नाटक

सिनेमा और नाटक
- बलराज साहनी


बलराज साहनी का यह लेख आगरा से प्रकाशित पत्रिका ‘रंगमंच’ के मई, 1955 के अंक से लिया गया है। लेख मूल रूप में उर्दू ‘शाहराह’ में छपा था। ‘रंगमंच’ के लिए इसका अनुवाद मदन सूदन ने किया था। पत्रिका के प्रधान संपादक राजेंद्र रघुवंशी थे। संयोग से बलराज साहनी का जन्मदिवस 1 मई को मजदूर दिवस के दिन पड़ता है व यह  उनका जन्मशती वर्ष भी है। "इप्टानामा" में हम उनसे संबंधित लेखों की एक विशेष श्रृंखला प्रारंभ कर रहे हैं। प्रस्तुत है इस श्रृंखला की पहली कड़ी : 


क ऐसे मनुष्य के लिए जो फिल्म और थियेटर दोनों का शौक रखता हो, यह बताना कठिन है कि वह दोनों में से किसे अधिक पसंद करता है। सच यह है कि इंसान को अपने हर काम में खुशी होती है। अगर वह उसे आजादी और पूरी लगन से करे। साथ ही वह यह भी अनुभव करता हो कि उस काम से समाज को भी कुछ लाभ पहुंचेगा। मैं तो यह कहूंगा कि हर इंसान कलाकार है, हर काम एक कला है। हमारा सामाजिक जीवन लाखों-करोड़ों विभिन्न प्रकार के कामों से बना है। इनमें कोई भी काम ऐसा नहीं जिसकी पूर्णता से इंसान कलाकार न बन सके। इसमें दक्षता प्राप्त करके वह महान कलाकार भी बन सकता है। चाहे यह काम शारी का हो या कपड़े धोने का, ऐक्टिंग हो या बाल काटने का काम। हमारे पूर्वज तो यहां तक कह गए हैं, ‘जीवित रहना भी एक कला है और मरना भी।’ अगर इंसान गांधी और भगतसिंह की तरह मर सके, कला कोई जीव से अलग सातवें आसमान से उतरने वाली वस्तु नहीं है। 

जब मैं कोई ऐसा पार्ट खेलता हूं, जो मेरी कलात्मक योग्यताओं को पूरी शक्ति से खींचता है, जिसे अदा करने के लिए मुझे पूरी सुविधाएं दी जाती हैं, तो इस अनुभव से कि मेरा जनता में मान होगा, मुझे खुशी मिलती है, चाहे पार्ट स्टेज का हो या फिल्म का। व्यापारिक दृष्टिकोण से देखा जाए तो थियेटर और फिल्म का आपस में कोई मेल नहीं। मैं बहुधा लोगों से सुनता हूं कि सिनेमा के आने से थियेटर खत्म हो गया हे, यह बात है भी किसी हद तक ठीक। परंतु अगर जीवन को केवल इसी दृष्टिकोण से देखा जाए तो हमें हर जगह अंतर ही अंतर नजर आएगा। लेकिन अगर इसे कलात्मक और निर्माण के दृष्टिकोण से देखा जाए, तो हमें इसमें काफी एकता नजर आएगी। बात वही है जिसे रवींद्रनाथ टैगोर ने कलात्मक एकता (क्रियेटिव यूनिटी) का नाम दिया है।
मैं यह नहीं कहता कि फिल्म और थियेटर दो अलग-अलग कलाएं नहीं है। निश्चय ही दोनों में कई बातों का अंतर है, मगर इस अंतर को हम तब ही समझ पाएंगे, जब पहले यह जान लें कि इन दोनों कलाओं का दूसरी किसी कला या समाज से सामूहिक रूप से क्या संबंध है? इस बात को जरा और साफ करना चाहता हूं कि अगर फिल्मी क्रिया (फिल्म-प्रोसेस) का पूरा निरीक्षण कीजिए, तो मालूम होगा कि फिल्म स्वयं एक कला नहीं है, बल्कि कई कलाओं के संग्रह का नाम है। देखिए, फिल्मी कला में कौन-कौन-सी कलाएं शामिल हैं-
(1) कहानी यानी साहित्य
(2) संगीत
(3) गीत यानी शायरी
(4) अभिनय
(5) लाईटिंग, मेकअप, फोटोग्राफी, वस्तु-कला, साउंड (ध्वनि) आदि।

इस तरह अगर हम विभिन्न मशीनों के बनाए जाने की क्रिया की जांच करें, तो मालूम होगा कि दुनिया को कोई भी ऐसा काम नहीं है, चाहे वह बड़ा हो या छोटा, जिसका फिल्म बनाये जाने की क्रिया से कोई संबंध नहीं हो। संक्षेप में हम यह कह सकते हैं कि फिल्म बनाना एक सामूहिक क्रिया है।
इसी तरह थियेटर भी एक सामूहिक कला है। इसमें भी सिर्फ कवि, चित्रकार, संगीतकार, मजदूर, लेखक, ऐक्टर और नर्तक शामिल नहीं होते, बल्कि दरजी, धोबी और नाई भी इसके पीछे रहते हैं। ड्रामे की सफलता इस बात पर आधारित है कि यहां सब ने एक साथ मिलकर, एक दूसरे के कंधे से कंधा मिलाकर और प्रेम से काम किया है। 

कहने की बात यह है कि स्टेज पर पर्दा खींचने वाला एक साधारण सा काम करता है, परंतु आपने देखा होगा कि कई बार दो सेकेंड पहले या बाद में पर्दा गिरने से सीन का उद्देश्य ही समाप्त हो जाता है। मतलब यह है कि पर्दा खींचने वाला भी एक बहुत बड़ा कलाकार है, उसके हाथ में केवल पर्दे की रस्सी ही नहीं, बल्कि दर्शकों की भावनाओं की डोर रहती है। चाहे तो वह लोगों को रुला दे और चाहे तो हंसा दे।

इन उदाहरणों से प्रकट हुआ कि फिल्म कंपनियां और थियेटर कंपनियां स्वयं एक बिरादरी होती हैं। जितनी यह बिरादरी मजबूत और संगठित होगी, उसका बाहरी सामाजिक जीवन से जितना अधिक संबंध होगा, उनके बनाए हुए फिल्म या नाटक उतने ही सफल होंगे। अगर आज हमारे नाटक या फिल्म उतने सफल नहं होते जितनी कि हम उनसे आशा करते हैं, तो इसका मुख्य कारण यह है कि यह संस्थाएं संगठन और सामाजिक संबंधों की नींवों को नजरअंदाज कर देते हैं या लापरवाही बरतते हैं।

काफी हाउस में या अपने क्लब में बैठे हुए आपने कई बार दोस्तों से सुना होगा, ‘भई, फलां फिल्म की कहानी तो बहुत अच्छी है, परंतु उसे ठीक तरह निभाया नहीं गया और स्क्रीन-प्ले भी अच्छा होता तो क्या बात थी!’ या यह कि, ‘फिल्म की फोटोग्राफी तो अच्छी है और कहानी भी बुरी नहीं, मगर कलाकारों से काम अच्छी तरह नहीं लिया गया!’ आदि-आदि। हिंदुस्तानी फिल्मों के बारे में आम शिकायत की जाती है कि उनका कोई न कोई पहलू असफल रहता है।

इसी तरह थियेटर के बारे में भी यही शिकायत सुनाई देगी- ‘यार, ड्रामा तो अच्छा था मगर प्रबंध बहुत बुरा था।’ या ‘अभिनय तो खूब था परंतु लाईटिंग (रोशनी) में कमी होने की वजह से सब मजा किरकिरा हो गया।’ आदि-आदि। 

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