Wednesday, April 18, 2012

प्रलेस का पंद्रहवां राष्ट्रीय सम्मेलन

-सचिन श्रीवास्तव 


दिल्ली, 15 अप्रैल : प्रगतिशील लेखक संघ का अखिल भारतीय 15वां राष्ट्रीय सम्मेलन 12, 13 एवं 14 अप्रैल 2012 को दिल्ली विश्वविद्यालय के सम्मेलन कक्ष में आयोजित हुआ। यह सम्मलेन प्रलेस के संस्थापक और पहले सचिव सज्जाद जहीर और हाल ही में दिवंगत हुए प्रलेस के राष्ट्रीय महासचिव डॉ कमला प्रसाद के स्मरण को समर्पित था।

सम्मेलन का उद्घाटन विख्यात लेखक और समाजकर्मी असगर अली इंजिनियर ने किया। तीन दिन के इस सम्मलेन में समस्त भारत के 20 राज्यों के लगभग चार सौ लेखकों ने शिरकत की। इन लेखकों, कवियों, पत्रकारों में लगभग सभी भारतीय भाषाओं के अदीब शामिल थे। इनके अतिरिक्त एफ्रो-एशियन रायटर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष हेल्मी हदीदी (मिस्र), आकियो हागा (जापान), बाबर अयाज (पाकिस्तान) और मुहिय्या अब्दुर्रहमान (उज्बेकिस्तान) ने भी सम्मेलन में शिरकत की।




सम्मेलन के पहले दिन पहले सत्र की शुरुआत जनगीतों से हुई। उद्घाटन सत्र के मुख्य अतिथि डॉ हेल्मी हदीदी थे। प्रलेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष प्रो नामवर सिंह के स्वागत भाषण के साथ कार्यक्रम की विधिवत् शुरुआत हुई। इसके बाद असगर अली इंजिनियर का उदघाटन भाषण था, जिसमें उन्होंने सांप्रदायिकता, संकीर्णता और साम्राज्यवाद के असर से पैदा होने वाली समस्याओं पर प्रकाश डालते हुए एक रौशन-खयाल, सहिष्णु और प्रगतिउन्मुख समाज के निर्माण में लेखकों के दायित्व पर बात की। उन्होंने जोर  देकर  कहा  कि कमजोर  वर्गों की तरक्की से ही सामाजिक बदलाव मुमकिन है।  उन्होंने इस बात पर खेद प्रकट किया कि प्रलेसं कि इतनी बड़ी कांफ्रेंस में महिलाओं की उपस्तिथि वाजिबी सी है। प्रलेसं को अपनी इन संगठनात्मक कमियों को दूर करने की जरूरत है।


सत्र के अन्य वक्ताओं में प्रो विश्वनाथ त्रिपाठी, डॉ खगेन्द्र ठाकुर, प्रो तुलसीराम, इप्टा के महासचिव जितेन्द्र रघुवंशी, बाबर अयाज और अकियो हागा शामिल थे। इस अवसर पर जनवादी लेखक संघ की नुमाइंदगी जलेस के महासचिव डॉ मुरली मनोहर प्रसाद सिंह ने की। जन संस्कृति मंच के महासचिव प्रणय कृष्ण और रंग कर्मी शबाना आजमी का पैगाम भी पढ़ कर सुनाया गया। भारतीय जन नाट्य संघ, इप्टा के महासचिव जितेंद्र रघुवंशी ने प्रलेसं के 15वें राष्ट्रीय सम्मेलन के मौके पर इप्टा और प्रलेसं के पुराने रिश्तों को याद किया। उन्होंने नए लेखकों से अपील की कि वे रंगमंच से जुड़े प्रतिबद्ध साथियों के लिए नए गीत और नाटक आदि का सृजन करें।


अपने विचार व्यक्त करते हुए प्रो तुलसीराम ने कहा कि पुरातन विचारधाराएं जब राजनीति पर हावी होती हैं, तो लेखन भी उससे प्रभावित होता है। जातिवाद के नए सिरे से सिर उठाने के साथ ही उसके नायक भी उभरे हैं। जातीय सत्ता के नारे के कारण स्पर्धात्मक राजनीति तेज हुई, जिसके खतरे आज सामने हैं। इस सत्र का संचालन अली जावेद ने किया।

सम्मेलन के दूसरे सत्र में ‘शांति और सौहार्दपूर्ण  विश्व में लेखक की भूमिका’ विषय पर प्रगतिशील लेखकों ने अपने विचार व्यक्त किए। सत्र की शुरुआत करते हुए विख्यात आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने कहा कि कलाएं शांति और सौहार्द की संवाहक होती हैं, इसलिए लेखकों की खासतौर से विरासत ही शांति और सौहार्द की रही है। शांति और सौहार्द की विरोधी शक्तियां सबसे पहले भाषा और संस्कृति पर ही चोट करती हैं। इन्हें बचाने के लिए एकजुट होना जरूरी है। उन्होंने कहा कि पूंजीवाद को तेज रफ्तार चाहिए होती है, वह सड़क से लेकर बाजार तक तेजी चाहता है। यह तेजी नई चीजें भी पैदा करती है, लेकिन नयापन आधुनिकता का पर्याय नहीं होता। मूल्यों के साथ आने वाला नयापन आधुनिकता है। उन्होंने कहा कि विकल्प नहीं होगा, तो अतिवाद फैलेगा। अतिवाद सत्ता के हित में होता है। उन्होंने कहा कि हमें अतिवादियों के उद्देश्यों से कोई विरोध नहीं है, लेकिन उनके तौर तरीकों से विरोध है। केरल से आए केपी रामा नूनी ने कहा कि मलयालम साहित्य की धारा शुरूआत से ही साम्राज्यवाद विरोधी रही है। बीच में भटकाव आया लेकिन आज फिर बाजारवाद और नव साम्राज्यवाद के खिलाफ यह धारा अपना काम कर रही है। महाराष्ट्र के श्रीपाद जोशी ने कहा कि सांस्कृतिक वर्चस्ववाद का चेहरा बदल रहा है। भूमंडलीकरण के बाद वर्चस्ववाद का चेहरा भी बदल गया है। इसके साथ ही वर्ग भी नए सिरे से बन रहे हैं, लेकिन यह सत्ता के पक्ष में हैं। ब्राहमणवाद के विरोध में जो लोग सामने आए थे, वे भी सांस्कृतिक वर्चस्ववाद की नीतियां बना रहे हैं।


कोलकाता से आए गीतेश शर्मा ने कहा कि साम्राज्यवाद के विरोध के एक पक्ष से बदलाव नहीं होगा, हमें अपने भीतर की खामियों को भी देखना होगा। हम सामंतवाद, भ्रष्टाचार और नौकरशाही से पीड़ित हैं। जो साम्राज्यवाद से भी ज्यादा शक्तिशाली है। उन्होंने कहा कि पाकिस्तान और हिन्दुस्तान में एक जैसे हालात हैं, दोनों ही देशों में सांप्रदायिकता के खिलाफ दोहरी मानसिकता से खड़ा हुआ जा रहा है। बहुसंख्यक धार्मिकता का विरोध करते हुए अल्पसंख्यक कट्टरता की ओर भी ध्यान देना चाहिए।  पंजाब के रजनीश बहादुर ने कहा कि लेखकों के सामने चुनौतियां हैं, और वे उसका मुकाबला भी कर रहे हैं। उड़ीसा से आए एसबी कार, शाहिना रिजवी (बनारस), मोहनदास (जम्मू), बंगाल से कुसुम जैन, दिल्ली के जोगिंदर अमर, तमिलनाडु के पुन्नीलन ने भी सम्मेलन को संबोधित किया। दूसरे सत्र का संचालन इप्टा उत्तर प्रदेश के महासचिव श्री राकेश ने किया। पहले दिन के तीसरे सत्र में विभिन्न राज्यों से आए कवियों, शायरों ने अपनी रचनाओं का पाठ किया। काव्यपाठ एवं मुशायरे की अध्यक्षता चौथीराम यादव ने की, जबकि संचालन विनीत तिवारी ने किया।

सम्मेलन के दूसरे दिन 13 अप्रैल को कार्यक्रम की शुरुआत मध्यप्रदेश इप्टा के जनगीतों से हुई। सीमा राजोरिया, सारिका श्रीवास्तव, सत्यभामा और शानू ने जनगीत गाए। पहले सत्र का विषय था ‘भारत में साहित्यिक और सांस्कृतिक आन्दोलन: महिला, दलित, आदिवासी और अन्य हाशिये के समुदायों के बारे में लेखन की रौशनी में’। सत्र की शुरुआत करते हुए वाराणसी के प्रो चौथीराम यादव ने कहा कि वह चाहे कबीर और रैदास का समय हो या फिर हालिया दौर। हर समय में जातिवादी और धार्मिक संस्थाओं को समाज सुधारकों और लेखकों ने चुनौती दी है। आलोचक कई बार उनके महत्व को रेखांकित करने से चूक जाते हैं, लेकिन लेखन में जातिवादी और धार्मिक संस्थाओं का विरोध लगातार होता रहा है। वरिष्ठ आलोचक मैनेजर पांडे ने अपने भाषण में कथित विकासशील भारत में महिलाओं की स्थिति पर सवाल उठाए। उन्होंने कहा कि संस्कृति का पूरा भार ढोने का काम महिलाओं के जिम्मे छोड़ दिया गया है। उन्होंने दिल्ली, हरियाणा और उत्तर प्रदेश के उदाहरणों को सामने रखते हुए आॅनर किलिंग पर गंभीर साहित्यक कर्म की जरूरत पर बल दिया। 

अमिताभ चक्रवर्ती (प. बंगाल) ने प्रगतिशील लेखक संघ के महत्व को याद करते हुए कहा कि प्रलेस और उसके सहोदर संगठन इप्टा की धार्मिक कट्टरता सामंतवाद से लड़ाई का लंबा और गहरा इतिहास है। उन्होंने भविष्य में इस कार्यभार को जिंदा रखने की बात कही। कहानीकार नूर जहीर ने दक्षिण एशिया की महिला लेखकों के संघर्ष और उनके लेखन पर गहराई से बात की। उन्होंने कहा कि महिलाओं का अधिकारहीन होना एक दिन की घटना नहीं है, यह लगातार ऐतिहासिक प्रक्रिया में धीरे धीरे होता रहा है। हमेशा से ऐसे समूह रहे हैं, जो दूसरों को अधिकारहीन करने की प्रक्रिया में लगे रहते हैं। उन्होंने दक्षिण एशिया की लेखिकाओं के बारे में बताते हुए अफगानिस्तान की कवियित्री महबूबा खानम और लघुकथा लेखिका आरेफा ओमरलूर के उदाहरण सामने रखे। उन्होंने बताया कि अफगानी समाज में एक महिला का लेखन और वह भी सत्ता विरोधी लेखन अपने आप में महत्व की बात है। मेहबूबा खानम अपनी एक कविता में लिखती हैं- मैं नहीं चाहती तुम अनपढ़ रह जाओ, नहीं चाहती तुम किसी अनदेखे पुरुष से बियाही जाओ, और मैं हरगिज हरगिज नहीं चाहती की तुम कुंवारी न पाई जाने पर, कब्र के अंधेरों में धकेली जाओ। 

छत्तीसगढ़ के तरुण गुहा नियोगी ने कहा कि समाज के वंचित तबकों की जो चिंता प्रगतिशील लेखकों में उनके प्रति सरकार और दक्षिणपंथी संगठन भी देख रहे हैं। उन्होंने मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ का उदाहरण देते हुए बताया कि वंचितों के लिए कई तरह की लाभकारी योजनाएं चलाकर सरकारें उन्हें लुभा रही हैं, लेकिन उनका असल उद्देश्य आदिवासी, दलित और अन्य वंचित समूहों को सामंतवाद, जातिवाद, धार्मिकता और कट्टरपंथ के शिंकजे में जकड़ना ही है। 

समाज के वंचित तबके में विभिन्न वर्गों को रेखांकित करते हुए लखनऊ के शकील सिद्दीकी ने कहा कि लेखकों को ऐसे मुद्दों को भी उठाना चाहिए। वीरेंद्र यादव (लखनऊ), राजेंद्र राजन (बेगूसराय), जयप्रकाश धूमकेतु (मऊनाथभंजन), राकेश (लखनऊ), मोहन सिंह (जम्मू) और अली अहमद फातमी (इलाहाबाद) ने भी इस सत्र में अपने विचार प्रकट किए। इस सत्र की अध्यक्षता मराठी के वरिष्ठ कवि सतीश कालसेकर, चिंतक और एक्टिविस्ट डॉ असगर अली इंजिनियर, प्रसिद्ध अध्येता अफसा जफर और प्रभाकर चौबे ने की। संचालन विनीत तिवारी ने किया। सत्र के अंत में संगीता महाजन ने महान दलित कवि नारायण सुर्वे की कविता का पाठ किया।

इसी दिन का दूसरा सत्र 'समकालीन भारतीय लेखन: धार्मिक कट्टरवाद, साम्प्रदायिकता और संकीर्णता के परिपेक्ष्य में' विषय पर था, जिसमें खगेन्द्र ठाकुर, प्रभाकर चौबे, रमाकांत श्रीवास्तव, जय नंदन, स्वप्नसेन गुप्ता, अबुसना खुम्मान आदि ने अपने विचार व्यक्त किये. इस दिन तीसरे सत्र की शुरुआत जेएनयू इप्टा के जनगीतों से हुई। शाम साढ़े छ: बजे शंकरलाल हॉल में फैज के जीवन पर आधारित नाटक 'बोल कि लब आजाद हैं तेरे' का मंचन हुआ। इसका निर्देशन लोकेन्द्र त्रिवेदी  ने किया था, और नाटक को लिखा है परवेज अहमद ने। 

सम्मेलन के अंतिम दिन 14 अप्रैल को संगठनात्मक सत्र हुआ। इसमें विभिन्न राज्यों में प्रलेस की गतिविधियों की रिपोर्ट पेश की गर्इं। 2008  में बेगुसराए में आयोजित  प्रलेस की 14वीं  कांफ्रेंस के बाद दिवंगत होने वाले अनेक लेखकों के लिए शोक  प्रस्ताव तथा अन्य प्रस्ताव इस सत्र में पारित हुए। अंत में नई कार्यकारिणी का गठन हुआ। मलयालम लेखक ओ. वी. एन. कुरूप व प्रो. नामवर सिंह को प्रलेस का संरक्षक बनाया गया। अध्यक्ष मंडल के चेयरमेन प्रसिद्ध तमिल  लेखक पुन्निलन  मनोनीत किए गए। अन्य  चार सदस्यों में विश्वनाथ त्रिपाठी (दिल्ली), खगेन्द्र ठाकुर (झारखंड), गीतेश  शर्मा (प. बंगाल) और सुखदेव सिंह (पंजाब) का चुनाव हुआ। अली जावेद को महासचिव चुना गया। सचिव मंडल के अन्य सदस्य राजेंद्र राजन (बिहार), सतीश कालसेकर (महाराष्ट्र), पी. लक्ष्मीनारायण (आन्ध्र प्रदेश) और अमिताभ चक्रवर्ती (प. बंगाल) हैं। इनके अतिरिक्त कार्यकारिणी में 31 सदस्य होंगे। हर राज्य के अध्यक्ष, सचिव या उनके प्रतिनिधि कार्यकारिणी के सदस्य मंडल में शामिल होंगे। केंद्र को यह अधिकार भी दिया गया कि विभिन्न भाषाओं के 11 अन्य महत्वपूर्ण लेखकों को कार्यकारणी में शामिल करे।

अंत में नव निर्वाचित महासचिव अली जावेद ने प्रलेस की जिम्मेदारियों के निर्वाहन का संकल्प करते हुए कहा कि जरूरत इस बात की है कि लेखक निर्भय होकर हर प्रकार की फिरकापरस्ती, संकीर्णता और हिंसा के विरुद्ध स्पष्ट दृष्टिकोण अपनाएं। इन समस्याओं को न केवल बारीकी से समझें, बल्कि अपने लेखन में इस तरह पेश करें कि बेहतरीन मानव मूल्यों को, रौशन खयाली और अमन को बढ़ावा मिले।

No comments:

Post a Comment