Wednesday, August 22, 2012

सुनील जाना : जिन्होंने कैमरे से किया राजनीतिक कार्य

- विनीत तिवारी


"जब पीपुल्स वार’ में सुनील जाना के खींचे गए और चित्तप्रसाद के बनाये गए चित्र प्रकाशित हुए तब सारी दुनिया का ध्यान बंगाल के अकाल की तरफ़ गया। वे तस्वीरें और चित्र अपने आप में कहानी थे - हक़ीक़त बयान करती एक ताक़तवर कहानी। वे चित्र यह बताने में सक्षम थे कि बंगाल का अकाल केवल अवर्षा, अति वर्षा या किसी क़ुदरती क़हर का नतीजा नहीं, बल्कि दूसरे विश्वयुद्ध में शरीक अंग्रेजी साम्राज्यवाद की जमाखोरी और अमानवीय नीतियों का नतीजा था जिसने ग़रीब भारतीय जनता की साढ़े तीन लाख जानों को अपनी साम्राज्यवादी हवस की बलि चढ़ा दिया था। उन तस्वीरों से दुनिया के सामने बंगाल के अकाल का भयानक सच आया जिससे अंग्रेजों के ख़िलाफ़ देश में और देश के बाहर भी ग़ुस्सा उमड़ पड़ा।" विनीत तिवारी के लंबे लेख की पहली किस्त:

यह 2010 के नवंबर की बात रही होगी जब हम लोगों ने औरंगाबाद में 9 से 13 दिसंबर 2010 के दौरान होने वाले अखिल भारतीय किसान सभा के सम्मेलन के लिए आसान जुबान में खेती के अध्ययन के अपने नतीजों को एक पुस्तिका की शक्ल में लिखना शुरू किया। जया रात-दिन सिर खपा रही थी कि किस तरह भारत की खेती जैसे एक बेहद पेचीदा मसले को, जिसे समझने में हमें ख़ुद तीन साल से ज़्यादा समय लगा, एक छोटी सी पुस्तिका में समेटा जाए। मैं टाइप करता जा रहा था और साथ ही साथ हिंदी में अनुवाद का काम भी चलता जा रहा था। मेरठ से रजनीश को बुला लिया था और किसी तरह रात-दिन एक करके एक ऐसी पुस्तिका तैयार हो गई जिसमें भारी-भरकम आँकड़े देखकर आम लोग डरें नहीं, और अगर पढ़ना शुरू कर दें तो जो खेती-बाड़ी न भी जानते हों, उन्हें भी उसमें छिपे ग़रीब-अमीर के फ़र्क़ और शोषण के पारंपरिक और आधुनिक तौर-तरीकों के बारे में कुछ जानकारी हासिल हो सके।

अनुवाद के साथ-साथ, किताब के कवर और किताब के साथ दी जा सकने वाली कविताओं आदि का काम विभाजन के अघोषित समझौते के तहत मेरे ही जिम्मे रहता है। किताब के लिए कवर के लिए तस्वीरें खोजते-खोजते गूगल पर एक काली-सफ़ेद तस्वीर पर निगाह ठहर गई। बोलती हुई तस्वीर थी। थी तो काली-सफ़ेद लेकिन क्या शानदार तस्वीर थी कि मन की निगाह फ़ोटोग्राफ़र के भीतर गहरे तक शरीक लाल रंग को साफ़ पहचान सकती थी। तस्वीर 1945 की थी। पंजाब के झण्डीवालाँ गाँव के किसान झण्डा लेकर किसान सभा की कॉन्फ्रेंस के लिए जा रहे हैं। कुछ बुजुर्ग हैं कुछ जवान हैं। कुछ के पैरों में चप्पल है कुछ नंगे पैर हैं लेकिन सबके पैरों, हाथों, चेहरों पर गजब का आत्मविश्वास है, मजबूती है।

हमारे एक मित्र का कहना है कि मैं साँड़ हो गया हूँ जो जहाँ लाल देखा, उछलने लगता हूँ। अब उस तस्वीर में तो झण्डा काला-सफ़ेद ही था, फिर भी मैं मन में उसमें लाल देखकर उछलने लगा। तस्वीर के बारे में और जानकारी हासिल की तो अपनी पीठ थपथपाने का जी हो आया कि बग़ैर ख्याति जाने ही मैंने एक अच्छी कलाकृति को पहचान लिया था। बाद में कहीं पढ़ा भी कि उस फ़ोटोग्राफ़र की तस्वीरों की ख़ासियत और ताक़त यही है कि उन्हें फ़ोटोग्राफ़ी की गहरी समझ रखने वाले हेनरी कार्टर-ब्रेसां से लेकर मेरे जैसे साधारण और अनभिज्ञ लोग भी पसंद कर सकते हैं।

वह तस्वीर सुनील जाना ने ली थी जो 1940 के दशक में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के फ़ोटोग्राफ़र थे। उनकी तस्वीरों की एक वेबसाइट मिली जिसे 1998 में सुनील जाना के चित्रों की न्यूयॉर्क में लगी एक प्रदर्शनी के वक्त बड़ी मेहनत से उनके बेटे अर्जुन जाना ने तैयार किया था। उससे पता चला कि वह कई मायनों में दुनिया के अद्वितीय फ़ोटोग्राफ़र हैं। वेबसाइट से ही मिला एक ईमेल पता। मैंने थरथराते हाथों से एक ईमेल टाइप किया। एक वरिष्ठ कलाकार कॉमरेड को जो किसी दौर में एक किंवदंती हुआ करते थे, यह अनुरोध करते हुए कि आपका खींची 65 वर्ष पुरानी एक तस्वीर हम एक छोटी सी पुस्तिका के लिए इस्तेमाल करने की अनुमति चाहते हैं, मुझे रोमांच हो रहा था।

ईमेल का जवाब भी लगभग तत्काल ही आ गया। लेकिन सुनील जाना का नहीं, अर्जुन जाना का। अर्जुन सुनील जाना के बेटे हैं। उन्होंने लिखा कि उनकी माँ शोभा जाना और पिता जो क्रमशः 83 और 92 वर्ष के हैं। अमेरिका में कैलिफ़ोर्निया के बर्कले शहर में रहते हैं, जबकि अर्जुन काम के सिलसिले में ब्रुकलिन, न्यूयॉर्क में रहते हैं। अर्जुन ने यह भी लिखा कि उन्होंने मेरा मेल अपने माँ-पिता को आगे भेज दिया है और उनके स्वास्थ्य को देखते हुए जैसे ही उन्हें समय मिलेगा, वे जवाब देंगे। उन्होंने यह भी लिखा कि वे मेरा मेल पढ़कर बहुत ख़ुश होंगे।

एक सप्ताह तक फिर कोई जवाब नहीं आया। मैंने फिर अर्जुन को मेल किया कि अब सम्मेलन के लिए वक्त कम बचा है और किताब छपने के लिए चंद रोज़ में तैयार हो जाएगी। आप अपने पिता से फ़ोन पर ही अनुमति लेकर हमें ईमेल कर दें तो अच्छा होगा। इसके जवाब में अर्जुन का मेल आया कि उनके माँ-पिता के साथ-साथ वे ख़ुद भी स्वास्थ्य संबंधी काफ़ी तक़लीफ़ों से गुज़र रहे हैं लेकिन उन्होंने यह भी कहा कि चूँकि आप लोगों की पुस्तिका का व्यावसायिक उपयोग नहीं होना है अतः उन्हें लगता है कि उनके पिता को इस पर आपत्ति नहीं होगी। उन्होंने वेबसाइट पर उपलब्ध तस्वीरों में से किसी भी तस्वीर के इस्तेमाल की अनुमति हमें दे दी।
जैसे ही यह मेल मैंने देखा तो प्रेस में फ़ोन किया। पुस्तिका प्रेस में जा चुकी थी। वैकल्पिक कवर छप चुका था। हमने तय किया कि हम पुस्तिका के अंदर चित्र को छापेंगे और सुनील जाना का पूरा उल्लेख करेंगे। पुस्तिका छपी। सुनील जाना का चित्र भी।

इस बीच अर्जुन जाना के साथ ईमेल का आदान-प्रदान गाहे-बगाहे हुआ। इंटरनेट के माध्यम से ही पता चला कि वे कविताएँ भी लिखते हैं। अंग्रेजी में लिखीं उनकी कविताएँ पढ़ीं भी।  बीच में यह विवाद भी पढ़ने में आया कि भारत सरकार ने सुनील जाना को पद्मश्री देने की घोषणा कर दी जिस पर सरकार और अवार्ड की सूचना देने गए अधिकारियों की काफ़ी किरकिरी हुई क्योंकि पद्मश्री से उन्हें 1974 में ही सम्मानित किया जा चुका था। अंततः सरकार ने कहा कि गलती से पद्मश्री घोषित हो गया, दरअसल देना तो हम पद्मभूषण चाहते थे।
तब भी सोचा कि अर्जुन जाना को मेल किया जाए। लेकिन हम लोग अपने-अपने कामों में उलझ गए। अधूरे कामों की लगातार बढ़ती जाती सूची में यह काम भी जुड़ गया कि कभी अर्जुन जाना को इत्मीनान से एक लंबा मेल लिखेंगे। फिर लगभग संपर्क टूटा रहा। इस बीच अर्जुन की कुछ कविताएँ मेल पर आयीं भी जिन्हें मैंने कविता के साथ न्याय करने और ससम्मान पढ़ने के लिए सहेज कर रख लिया। अभी चंद रोज़ पहले ही ख़बर पढ़ी कि सुनील जाना 21 जून 2012 को नहीं रहे।

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उनके बंगाल के अकाल के चित्र ‘पीपुल्स वार’ में छपे थे जो उस वक्त भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का अख़बार था। उन चित्रों के छपने से बंगाल के अकाल की जो विभीषिका उभरी, उसने सारी दुनिया को स्तब्ध कर दिया। बंगाल में लाखों लोग भूख से मर रहे हैं, यह ख़बर विदेशों तक पहुँचना तो दूर, भारत के भी दीगर हिस्सों में नहीं पहुँच पा रही थी। अख़बार, जो उस वक्त मौजूद सबसे व्यापक संचार माध्यम थे, वे भी ब्रिटिश सरकार के हुक्म के मुताबिक ख़बर छाप रहे थे। जब पीपुल्स वार’ में सुनील जाना के खींचे गए और चित्तप्रसाद के बनाये गए चित्र प्रकाशित हुए तब सारी दुनिया का ध्यान बंगाल के अकाल की तरफ़ गया। वे तस्वीरें और चित्र अपने आप में कहानी थे - हक़ीक़त बयान करती एक ताक़तवर कहानी। वे चित्र यह बताने में सक्षम थे कि बंगाल का अकाल केवल अवर्षा, अति वर्षा या किसी क़ुदरती क़हर का नतीजा नहीं, बल्कि दूसरे विश्वयुद्ध में शरीक अंग्रेजी साम्राज्यवाद की जमाखोरी और अमानवीय नीतियों का नतीजा था जिसने ग़रीब भारतीय जनता की साढ़े तीन लाख जानों को अपनी साम्राज्यवादी हवस की बलि चढ़ा दिया था। उन तस्वीरों से दुनिया के सामने बंगाल के अकाल का भयानक सच आया जिससे अंग्रेजों के ख़िलाफ़ देश में और देश के बाहर भी ग़ुस्सा उमड़ पड़ा।

बंगाल के अकाल की उन तस्वीरों और चित्रों में जर्जर इंसानों की, कंकाल हो चुके लोगों की कतारें की कतारें नज़र आती हैं। उन चित्रों के पोस्टकार्ड बनाकर उस ज़माने में दुनिया भर में भेजा गया और बंगाल के भुखमरी से जूझते लोगों को मदद मुहैया की गई।

बंगाल के अकाल के चित्रों ने सुनील जाना को दुनियाभर में प्रसिद्धि दिला दी लेकिन ख़ुद सुनील जाना के लिए वह अनुभव बहुत त्रासद था। भला एक वामपंथी दिमाग और विचार रखने वाला व्यक्ति कैसे इस बात पर ख़ुशी महसूस कर सकता है कि उसने जिन ज़िंदा कंकालों या भूख से मरते या मर चुके लोगों के फोटो खींचे हैं, उसने उन्हें प्रसिद्धि दिला दी। बाद में 1998 में एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने कहा कि मेरे लिए यह बहुत मुश्किल था कि मैं भूख से मरते लोगों की मदद करने के बजाय उन्हें कैमरे में उतारूँ। मुझे उन कॉमरेड्स और लोगों से रश्क होता था जो अपना आगा-पीछा न सोचकर दुर्भिक्ष पीड़ित लोगों की मदद और राहत के काम में लगे थे। मेरा मन होता कि मैं भी कैमरा छोड़कर वही करूँ। लेकिन पी. सी. जोशी, जो मुझे अपने साथ बंगाल के गाँवों में लेकर आये थे और जो मेरे शिक्षक, शुभचिंतक, सलाहकार थे, उन्होंने मुझे समझाया कि जो हो रहा है उसका दस्तावेज़ बनाना ज़रूरी है ताकि लोग जानें कि यहाँ दरअसल हालात क्या हैं। मैंने दिल पर पत्थर रखकर कैमरा सँभाला और फोटो खींचता रहा।

जारी..

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