Thursday, August 23, 2012

सुनील जाना : जिन्होंने कैमरे से राजनीतिक कार्य किया (दो)


-विनीत तिवारी
मुझे उन कॉमरेड्स और लोगों से रश्क होता था जो अपना आगा-पीछा न सोचकर दुर्भिक्ष पीड़ित लोगों की मदद और राहत के काम में लगे थे। मेरा मन होता कि मैं भी कैमरा छोड़कर वही करूँ। लेकिन पी. सी. जोशी, जो मुझे अपने साथ बंगाल के गाँवों में लेकर आये थे और जो मेरे शिक्षक, शुभचिंतक, सलाहकार थे, उन्होंने मुझे समझाया कि जो हो रहा है उसका दस्तावेज़ बनाना ज़रूरी है ताकि लोग जानें कि यहाँ दरअसल हालात क्या हैं। मैंने दिल पर पत्थर रखकर कैमरा सँभाला और फोटो खींचता रहा। बाद में सुनील जाना के खींचे गए गाँधी, नेहरू, जिन्ना, शेख अब्दुल्ला, फ़ैज़, जे. कृष्णमूर्ति, आदि ख्यात लोगों के चित्र भी बहुत प्रसिद्ध हुए। देश के विभाजन के उनके खींचे अनेक चित्र अपने आप में इतिहास के अध्याय हैं। एनसीईआरटी की स्कूली किताबों में भी उनके अनेक चित्रों का इस्तेमाल किया गया है। 

सुनील जाना 1918 में 17 अप्रैल को डिब्रूगढ़, आसाम में पैदा हुए थे। उनके पिता कलकत्ता के नामी वकील थे और सुनील जाना की पढ़ाई-लिखाई भी कलकत्ते में ही हुई। सेंट ज़ेवियर और प्रेसिडेंसी कॉलेज में अपनी पढ़ाई के दौरान ही वे वामपंथी राजनीति के संपर्क में आ गए थे और बाद में 1943 में पी. सी. जोशी के संपर्क में आने पर उन्होंने पढ़ाई अधूरी ही छोड़कर पूरी तरह वामपंथ का रास्ता अपना लिया। पी. सी. जोशी उन दिनों अकाल के हालात का जायजा लेने बंगाल के भीतरी ग्रामीण इलाक़ों में जा रहे थे। उनके साथ चित्रकार चित्तप्रसाद भी जा रहे थे। दोनों ने सुनील जाना को भी साथ ले लिया। सुनील जाना बताते हैं ‘पी. सी. जोशी लिखते थे और मैं तस्वीरें खींचता था। उनके पास बिल्कुल साधारण सा एक कोडक कैमरा था। बस, वहीं से मेरी ज़िंदगी बदल गई।’ उधर पी.सी. जोशी कलकत्ता से वापस लौटे, उधर सुनील जाना उड़ीसा के अकाल पीड़ितों की तस्वीरें लेने चले गए। उधर पी.सी. जोशी की रिपोर्ट और सुनील जाना की खींचीं तस्वीरें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के अख़बार ‘पीपुल्स वार’ में छपीं तो सारी दुनिया के कम्युनिस्ट देशों की प्रेस ने उन्हें छापा और सुनील जाना अचानक ही भारत के बेहतरीन फोटोग्राफर के तौर पर स्थापित हो गए। पी. सी. जोशी ने उनकी फोटोग्राफी और विचारधारा के प्रति उनकी समझ को देखते हुए उन्हें भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का फोटोग्राफर बनाया। सुनील जाना ने एक इंटरव्यू में बताया है कि मैं और मेरे घर के लोग चाहते थे कि मैं कम्युनिस्ट पार्टी का फोटोग्राफर बनने के पहले अपनी परीक्षाएँ दे दूँ ताकि डिग्री तो पूरी हो जाए। लेकिन पी. सी. जोशी ने कहा कि ‘बिल्कुल नहीं। यह परीक्षाएँ वगैरह बिल्कुल बकवास और ग़ैरज़रूरी है।’ फिर मुझे भी महसूस हुआ कि हाँ, वाकई, यह निहायत ही ग़ैरज़रूरी हैं।

उसके बाद जोशी उन्हें लेकर मुंबई चले गए जहाँ उस वक्त पार्टी का मुख्यालय था। वे पार्टी के होल टाइमर बने। चित्तप्रसाद और वे वहीं साथ-साथ रहा करते थे। दोनों ही इप्टा और प्रगतिशील लेखक संघ से गहरे जुड़े हुए थे। उस वक्त उन्हें 20 रुपये भत्ता मिलता था जिसमें से 10 रुपये वहाँ की साझी रसोई में चला जाता था। 
उसके बाद पार्टी उनसे जहाँ जाने को कहती, वहाँ जाते, तस्वीरें खींचते। धरनों, सभाओं, आंदोलनों, गिरफ़्तारियों, दमन, नौसेना विद्रोह, किसान विद्रोह, काँग्रेस, मुस्लिम लीग, बांग्लादेश युद्ध.......तमाम नेताओं और आंदोलनों के साथ-साथ वे आम मेहनतकश लोगों के गौरवपूर्ण जीवन को भी दर्ज करते चलते। उनके मुताबिक वे आम लोगों और आम दृश्यों की ख़ास तस्वीरें लेकर यह बताना चाहते थे कि कम्युनिस्ट पार्टी किन लोगों के लिए है। ज़ाहिर है सुनील जाना को इतनी स्वतंत्रता के साथ काम करने का अवसर देने में पी. सी. जोशी की गहरी सांगठनिक सूझ और कला की पारखी दृष्टि का विशेष महत्त्व था। 

‘पीपुल्स वार’ और बाद में ‘पीपुल्स एज’ में उन्हें एक पन्ना ही फोटो फीचर के लिए दिया गया जिसमें सुनील जाना ने आम लोगों की ज़िंदगियों, उनके संघर्षों, काम करते हुए मेहनकश लोगों के सौंदर्य, नाव खेते, घानी चलाते, मछली पकड़ते, कोयला खदानों में, घरों-खेतों में मेहनत करते स्त्री-पुरुषों से लेकर तीर-कमान थामे आदिवासियों, मोर्चे पर जाते किसान-मज़दूरों, तेलंगाना के क्रांतिकारियों तक के बेहतरीन फोटोग्राफ्स से कम्युनिस्ट पार्टी के विचार और प्रतिबद्धता को लोगों के बीच स्थापित किया। जब सुनील जाना, उनके चित्र और उस ज़रिये बंगाल के अकाल पर दुनियाभर की नज़र गई तो उस ज़माने की बेहद प्रसिद्ध पत्रिका ‘लाइफ़’ और ‘लाइफ़’ की अत्यंत प्रसिद्ध फ़ोटोग्राफ़र मार्गरेट बुर्क व्हाइट हिंदुस्तान के अकाल को कवर करने के लिए हिंदुस्तान आईं। 

मार्गरेट बुर्क व्हाइट तब तक सारी दुनिया में दुनिया में युद्ध की पहली महिला पत्रकार होने, सोवियत संघ की ज़मीन पर आमंत्रित और वहाँ के भारी उद्योगों की तस्वीरें लेने वाली पहली विदेशी पत्रकार होने, वैश्विक मंदी की बोलती तस्वीरों और साथ ही स्टालिन का मुस्कुराता हुआ दुर्लभ चित्र लेने के लिए सारी दुनिया में विख्यात हो चुकी थीं। उनके बारे में किसी ने लिखा है ‘‘वह महिला जिसे भूमध्य सागर में टॉरपीडो से उड़ाया गया, जिस पर जर्मनी के हवाई बेड़े ने बमबारी की, जिसे आर्कटिक के एक द्वीप पर छोड़ दिया गया और जिसका हवाई जहाज ध्वस्त होने पर उसे चेसापीक की खाड़ी से बाहर निकाला गया, उसे लाइफ़ पत्रिका के स्टाफ़ के लोग मैगी-दि इंडिस्ट्रक्टिबल (अविनाशी) कहा करते थे।’’

तब तक अकाल बंगाल से आंध्र और दक्षिण के अन्य हिस्सों तक पहुँच गया था। मार्गरेट बुर्क व्हाइट कम्युनिस्ट पार्टी के संपर्क में आईं और वहाँ पी. सी. जोशी ने सुनील जाना से उनका परिचय करवाया। मार्गरेट बुर्क व्हाइट को भारत में अपना कोई रास्ता दिखाने वाला और मददगार चाहिए था। इत्तफ़ाक से सुनील जाना पहले ही वहाँ जाने की योजना बना चुके थे। तय हुआ कि दोनों साथ-साथ जाएँगे। सुनील जाना ने फ्रंटलाइन पत्रिका में प्रकाशित वी. के रामचंद्रन को दिए एक इंटरव्यू में बताया कि ‘पहली बार, कम्युनिस्ट पार्टी के हिस्से का ख़र्च ‘लाइफ़’ पत्रिका ने उठाया ....और पहली ही बार मैं रेल के फ़र्स्ट क्लास मैं बैठा।’

मार्गरेट बुर्क व्हाइट भारत में 1945 से 1948 तक रहीं। उन्होंने भारत की राजनीतिक हलचलों को दर्ज करने के साथ ही भारत के कोनों-अंतरों को, यहाँ के आम जन-जीवन को भी देखा और पहचाना। उस पूरे प्रवास और यात्रा में मार्गरेट बुर्क व्हाइट ने अपने लिए अलग तस्वीरें खींचीं और सुनील जाना ने अपना काम किया।  दोनों ने स्वतंत्र काम किया और इस दौरान हुई उनकी दोस्ती जीवनपर्यंत चली। आज जो तस्वीरें गाँधी, नेहरू, जिन्ना, शेख अब्दुल्ला या विभाजन आदि की हम देखते हैं, उनमें बहुत इन्हीं दोनों की खींची तस्वीरें हैं। यहाँ तक कि गाँधीजी की हत्या के सिर्फ़ एक घंटे पहले मार्गरेट बुर्क व्हाइट ने उनका इंटरव्यू किया था और तस्वीरें खींची थीं। उस दौर के बारे में सुनील जाना ने बताया है, ‘‘मैं अपनी पार्टी और राजनीतिक विचारधारा का एक प्रतिबद्ध कार्यकर्त्ता था। मैं एक समर्पित कम्युनिस्ट था। साथ ही इतने सौंदर्य से भरे इतनी विविधताओं वाले देश में फ़ोटोग्राफ़र होना, मुझे लगता था कि मुझ पर देश की विशेष कृपा रही है।’’

जारी....



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