Tuesday, August 28, 2012

कश्मीरी हिरन हंगल साहब


-यशेंद्र प्रसाद

(लेखक फिल्मकार हैं)
एके हंगल साहब से मेरी पहली मुलाकात उस वक्त हुई थी, जब मैं मुंबई यूनिवर्सिटी में था. वे एक कार्यक्रम में वहां आये थे. बाद में जब मैं फिल्म इंडस्ट्री में आया, तो मेरा उनसे बहुत गहरा जुड़ाव हो गया था. उनके व्यक्तित्व ने मुङो बहुत प्रभावित किया. बाद में उन पर डॉक्यूमेंट्री बनाने के दौरान मुङो उनके बारे में कई खास जानकारी हासिल हुई.
हाल ही में मैंने फिल्म्स डिवीजन के लिए एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म बनायी, ईसा मसीह के भारत में बिताये जीवन काल के ऊपर. इसके सिलसिले में मेरा संपर्क पेशावर के एक व्यक्ति से हुआ. यह जान कर कि मैं मुंबई की फिल्म इंडस्ट्री से हूं, उसने बताया कि वह एके हंगल साहब का फैन है और उसे फक्र है कि वे पेशावर के रहने वाले थे. हंगल साहब वहां आजादी की लड़ाई में भी शरीक हुए थे, यह बात मुङो उसी से पता चली. हंगल साहब के जीवन के इस पहलू के बारे में और भी जानने की दिलचस्पी हुई.
फिर मैंने सोचा क्यों उनके जीवन पर एक डॉक्यूमेंट्री ही बनायी जाये, ताकि शोले के इमाम साहब और शौकीन के इंदर साहब के जीवन के इन रोचक पहलुओं से भी लोग वाकिफ हों. इसके बाद से ही उनसे मेरा मिलना भी होता रहा. अपने शोध के दौरान मुङो कई नयी जानकारी हासिल हुई.
कश्मीरी भाषा में हिरन को हंगल कहते हैं. कश्मीरी ब्राह्मणों का यह परिवार बहुत पहले लखनऊ में बस गया था. लेकिन हंगल साहब के जन्म के डेढ़-दो सौ साल पहले वे लोग पेशावर चले गये थे. इनके दादा के एक भाई थे जस्टिस शंभुनाथ पंडित, जो बंगाल न्यायालय के प्रथम भारतीय जज बने थे. हंगल साहब के पिता उन्हें पारसी थियेटर दिखाने ले जाया करते थे. वहीं से नाटकों के प्रति शौक उत्पन्न हुआ. हंगल साहब शुरुआती दौर से ही कभी किसी काम को छोटा नहीं समझते थे. कह सकते हैं कि हंगल साहब बेहद हंबल (जमीन से जुड़े) थे.
उन्होंने हर काम को महत्व दिया. अपने जीवन के शुरुआती दिनों में, जब वे कराची में रहते थे, वहां उन्होंने टेलरिंग का काम भी किया है. हंगल साहब उर्दू भाषी थे. उन्हें हिंदी में स्क्रिप्ट पढ़ने में परेशानी होती थी. इसलिए वे स्क्रिप्ट हमेशा उर्दू भाषा में ही मांगते थे.
सियालकोट में जन्मे और पेशावर में पले-बढ़े इस कश्मीरी ब्राह्मण की जिंदगी हर किसी के लिए प्रेरणा का स्रोत है. मेरी कोशिश है कि मैं उन पर आधारित डॉक्यूमेंट्री में उनके जीवन के विभिन्न पहलुओं को दर्शाऊ. हंगल साहब का स्वतंत्रता संग्राम में भी अहम योगदान रहा है. स्वतंत्रता संग्राम के दौरान पेशावर में काबुली गेट के पास एक बहुत बड़ा प्रदर्शन हुआ था, जिसमें हंगल साहब भी उपस्थित थे. अंगरेजों ने अपने सिपाहियों को प्रदर्शनकारियों पर गोली चलाने का हुक्म दिया था, लेकिन चंदर सिंह गढ़वाली के नेतृत्व वाले उस गढ़वाल रेजिमेंट की टुकड़ी ने गोली चलाने से इनकार कर दिया. यह एक विद्रोह था. चंदर सिंह गढ़वाली को जेल में डाला गया.
हंगल साहब को दुख था कि चंदर सिंह गढ़वाली को ‘भारत रत्न’ नहीं मिला. भारत मां का यह वीर सपूत 1981 में गुमनाम मौत मरा. पेशावर में हुआ नरसंहार उसी काबुल गेट वाली घटना के बाद हुआ था. उस वक्त अंगरेजों ने अमेरिकी सिपाहियों से गोलियां चलवाई थी. हंगल साहब ने अपनी आंखों से यह सब देखा था. यही वजह रही कि वे थियेटर से जुड़ने के साथ-साथ स्वतंत्रता संग्राम और सामाजिक आंदोलनों को लेकर हमेशा सजग रहते थे.
उन्होंने इप्टा से जुड़ कर अपने नाटकों के मंचन के माध्यम से सांस्कृतिक चेतना जगायी. हंगल साहब पेंटिंग भी करते थे. उन्होंने किशोर उम्र में ही एक उदास स्त्री का स्केच बनाया था और उसका नाम दिया चिंता.
भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी से बचाने के लिए चलाये गये हस्ताक्षर अभियान में भी वे शामिल थे. किस्सा-ख्वानी बाजार नरसंहार के दौरान उनकी कमीज खून से भीग गयी थी. हंगल साहब कहते थे, ‘वह खून सभी का था- हिंदू, मुसलिम, सिख.. सबका मिला हुआ खून!’ छात्र जीवन से ही वे बड़े क्रांतिकारियों की मदद में जुट गये थे. बाद में उन्हें अंगरेजों ने तीन साल तक जेल में भी रखा, फिर भी वे अपने इरादे से नहीं डिगे.
वे हमेशा अपनी फिल्मों से ज्यादा अपने नाटक को अहमियत देते थे और मानते थे कि जिंदगी का मतलब सिर्फ अपने बारे में सोचना नहीं है. वे हमेशा कहते कि चाहे कुछ भी हो जाये, ‘मैं एहसान-फरामोश और मतलबी नहीं बन सकता.’ हम सबके चहेते हंगल साहब को भावभीनी श्रद्धांजलि. 
(लेखक एके हंगल के जीवन पर डॉक्यूमेंट्री बना रहे हैं, प्रस्तुति : अनुप्रिया अनंत, प्रभात खबर से साभार)

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