Tuesday, November 13, 2012

सावधान! आगे सांप्रदायिकता है



रघुवंशमणि की लंबी रपट की पहली किस्त

विगत कुछ वर्षों से हमारे तमाम बुद्धिजीवियों ने यह मान लिया है कि साम्प्रदायिकता अब कोई महत्वपूर्ण मुद्दा नहीं रह गया है। इसके चलते लोगों की राजनीतिक अभिवृत्तियॉं भी बदलीं हैं। जो लोग भारतीय जनता पार्टी और संघ को 2002 के दंगों के बाद एक कट्टरतावादी हिदुत्ववादी पार्टी के रूप में देखते थे, उन्होंने इस पक्ष को उदारवादी दृष्टि की पार्टी के रूप में देखना शुरू कर दिया था। यहॉं तक कि गुजरात दंगों के खलनायक नरेन्द्र मोदी के भी गुणों की चर्चा होने लगी कि आखिर उनके नेतृत्व में कुछ ऐसी बात तो होगी जो गुजरात में विकास ही विकास दिखायी पड़ता है। कॉंग्रेस के नेताओं के तमाम भ्रष्टाचार सम्बन्धी कारनामों के बाद बहुत से मित्र-परिचित भाजपा को भ्रष्टाचार के विकल्प के रूप में देखने लगे थे। अब गडकरी के भ्रष्टाचरण के सामने आने के बाद जरूर उनका भ्रम टूटा होगा। फैज़ाबाद में हाल में हुए साम्प्रदायिक दंगों और आगजनी की घटनाओं ने यह सिद्ध कर दिया है कि साम्प्रदायिकता वैसी की वैसी है और उसकी राजनीति भी ज्यों की त्यों।

उत्तर प्रदेश में इधर कुछ दिनों में आये साम्प्रदायिक उभार ने यह सिद्ध किया है कि न तो भाजपा कि दुम सीधी होने वाली है और न ही उसकी साम्प्रदायिक राजनीति बदलने वाली है। संघ और संघनीति में भी कोई परिवर्तन होता नहीं दिखायी देता।  सब कुछ यथावत् है और अगर सचेत न हुआ गया तो आगे साम्प्रदायिकता की आग धधक कर जलने वाली है।

उत्तर प्रदेश में इधर कुछ दिनों में साम्प्रदायिकता बढ़ी है। मथुरा जिले में कोसीकलां नामक जगह पर हिंसा हुई जिसमें तीन लोगों के मारे जाने की खबर है। प्रतापगढ़ के नवाबगंज थाना क्षेत्र के अस्थाना गॉंव में हिंसा हुई है। बरेली में कांवर यात्रा के दौरान हिंसा हुई है जिसमें दो लोग मरे हैं। फिर जन्माष्टमी के दिन भी वहॉं हिंसा हुई।  इसी प्रकार गाजियाबाद के मसूरी थाने पर हमला हुआ और छः लोग हिंसा के शिकार हुए। इस सिलसिले को आगे बढ़ाया जाय तो लखनऊ, इलाहाबाद, और कानपुर में भी साम्प्रदायिक हिंसा हुई। बदायूं के सहसवा के हिस्से में भी साम्प्रदायिक तनाव हुआ। और अब फैजाबाद तथा बाराबंकी में हिंसा भड़की। ये हिंसा किन कारणों से हुई और किनके द्वारा हुई इसके उत्तर अलग-अलग हैं। इस प्रश्न का कोई खास महत्व इसलिए नहीं क्योंकि साम्प्रदायिकता के झगड़ों में मरने वाला हर व्यक्ति मनुष्य होता है और इसमें होने वाली हर क्षति राष्ट्रीय होती है। मगर इनसे लाभ उन्ही दलों को मिलना है जो साम्प्रदायिकता की राजनीति करते हैं। अतः मनुष्यता के पक्ष में खड़े होने वाले बुद्धिजीवियों, कलाकारों, लेखकों और संस्कृतिकर्मियों द्वारा इनका विरोध आवश्यक है।

 भारतीय जनता पार्टी ने अपने मिशन 2014 के सिलसिले में कई बार यह कहा है कि अयोध्या में राममन्दिर उसके राजनीतिक एजेण्डे पर बना हुआ है। पार्टी में कल्याण सिंह और उमा भारती जैसे चेहरों के पुनः दिखायी देने से यह तथ्य पुष्ट होता है। अब यह एक अलग बात है कि भारतीय जनता पार्टी के नेता अपने शासनकाल के दौरान इस मुद्दे पर लगातार हकलाते रहे थे और इस एजेण्डे से किनारा कसते रहे थे क्योंकि भाजपा के सभी नेताओं को यह पता  है कि अदालत में विचाराधीन इस मुद्दे पर वक्तव्य चाहे जो दे लिया जाय, कुछ किया नहीं जा सकता। मगर यदि झूठ बोलने और धर्म के नाम पर जनभावनाएं उभारने और दंगा कराने से कुछ राजनीतिक लाभ होता है तो ऐसा करने में नुकसान क्या है? फिर हिंसा और दंगा होने पर तो वोट का बटवारा सीधा हो जाता है। कम से कम यह तो होता ही है कि हिन्दू लोग हिन्दुत्व की ओर आकर्षित होते हैं। आखिर रामजन्मभूमि आन्दोलन से चली हवा पर ही तो सवार होकर भाजपा शासन में आयी थी। उन्हें यह विश्वास है कि धर्म और राम के नाम पर उन्हें धर्मभीरु हिन्दू अपना ही लेगें। यह विश्वास है या भ्रम- इसका फैसला तो भारत की जनता को ही करना है।

 मगर राजनीति किस सीमा तक अधोगामी हो सकती है, उसका एक बड़ा उदाहरण फैजाबाद में भड़के दंगे रहे जिसमें सारा प्रकरण निहायत ही एकपक्षीय दिखाई देता है। यह विचित्र सी बात है कि इस अतिस्पष्ट तथ्य को लोग अनदेखा कर रहे हैं या देखना नहीं चाहते। फैज़ाबाद शहर में जिस प्रकार मुस्लिम व्यापारियों की दुकाने जलायी गयीं, वह इस तथ्य को बिलकुल स्पष्ट करता है। शहर में सिर्फ मुस्लिमों की दुकाने जली हैं और अभी तक जितना नुकसान हुआ है उसका सिर्फ अनुमान भर लगाया जा सकता है। जिन व्यापारियों की दुकानें जलायी गयी हैं उनमें से अधिकांश बड़े व्यापारी थे और इस कारण नुकसान करोड़ों में गया है, संभवतः साढ़े सात करोड़। प्रदेश की समाजवादी सरकार इस हानि की भरपायी करने की बात कर रही है और मुआवजे की एक किस्त दे भी चुकी है। वह इस क्षति की कितनी भरपायी करेगी यह देखने की बात है। अगर वह आर्थिक भरपायी कर भी दे तो उस मनोविज्ञान का वह क्या करेगी जो विषाद में डूबा हुआ है और अपने को बेहद अकेला महसूस कर रहा है।  क्या इस घटना से अल्पसंख्यकों का असुरक्षाबोध और नहीं बढ़ जायेगा? क्या ऐसे में इस धर्म में उपस्थित प्रगतिशील वर्ग पुनः अपनी परम्परागत खोल में नहीं चला जाएगा? क्या उस संस्कृति को हुई क्षति की भरपायी हो सकेगी जिस पर शहर के सभी सभ्य नागरिकों को गर्व था? क्या हम यह फिर कह पायेंगे कि यह उस आदर्श मेलजोल की संस्कृति का शहर है जिसके जाग्रत विवेक ने शान्ति और सहिष्णुता को संकटों के दौर में भी बचाये रखा है?

 दुर्गापूजा के पहले फैज़ाबाद में एक घटना घटित हुई। वह थी देवकाली मंदिर से मूर्तियों की चोरी। इन मूर्तियों की बरामदी के लिए एक आन्दोलन चलाया गया जिसका उद्देश्य मूर्तियों के लिए आन्दोलन के अलावा अपने को एक बार फिर प्रकाश में लाना था। इस आन्दोलन में सारे हिन्दुत्ववादी लोग ही अगुवाई कर रहे थे। यह एक प्रकार का राजनीतिक कार्यक्रम था जिसके माध्यम से राजनीतिक फुटेज हासिल करने का प्रयास किया जा रहा था। इसे गंभीरतापूर्वक नहीं लिया गया क्योंकि इसके उद्देश्य तात्कालिक थे। लेकिन इस आन्दोलन के दौरान यह प्रचार किया गया कि ये मूर्तियॉं मुस्लिमों द्वारा चुराई गई हैं। बाद में मूर्तियॉं प्राप्त भी हुई। सौभाग्य से मूर्तियों का चोर एक हिन्दू ही निकला अन्यथा उसी समय कुछ गड़बड़ हो सकती था। इससे पहले जुलाई माह में मिरजापुर मोहल्ले में एक मस्जिद के परिसर में दीवार उठाने के मामले को लेकर विवाद हुआ था।

दुर्गापूजा के दौरान साम्प्रदायिकता की एक पृष्ठभूमि लगातार बनायी गयी। ध्वनिविस्तारकों पर बजने वाले गीत अक्सर मुस्लिम समुदाय को चिढ़ाने वाले होते थे। उनकी मंशा मुस्लिमों को उत्तेजित करना था। ये गीत उच्च स्वरों में बजाए जाते थे। उदाहरण के लिए ‘‘बनायेगे मंदिर’’, ‘‘राम राम बोल सब अयोध्या में जायेंगे’’ जैसे गीत जिनका दुर्गा या दुर्गा पूजा से कोई मतलब नहीं था। ये गीत साम्प्रदायिक राजनीति के गीत हैं जिनका भक्ति और खासकर दुर्गाभक्ति से कुछ लेना-देना नहीं है। दुर्गापूजा के अवसर पर इस प्रकार के गीतों का कोई मतलब नहीं। इसका बस एक मतलब मुस्लिम समाज को ठेस पहुंचाना या उन्हें उत्तेजित करना था। यह एक बहाने की तलाश भर थी कि कहीं कोई कुछ करे तो देख लिया जाय। अक्टूबर 2012 की बाइस तारीख को यानि कि फैज़ाबाद के सारे घटनाक्रम के दो दिन पहले मैंने अपने फेसबुक के पन्ने पर यह संकेत किया था कि इस प्रकार के गीत धार्मिक परपीड़न के उदाहरण हैं। इस प्रकार की गतिविधियों को किस तरह धर्म का नाम दिया जा सकता है, मुझे पता नहीं। इसे तो अधर्म ही कहना उचित है। बताया जाता है कि ये गीत दुर्गापूजा समिति द्वारा वितरित किये गये थे।

जारी


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