Monday, November 5, 2012

एक खालीपन छोड़ गए राजेश सिन्हा

 राजेश सिन्हा पटना रंगमंच पर पिछले लगभग तीन दशक से लगातार सक्रिय अभिनेताओं में से एक थे. इस दौरान उन्होंने कई यादगार भूमिकाओं को मंच तथा नुक्कड़ नाटकों में बखूबी निभाया. कावासाकी मोटरसाइकल से चलने की वजह से प्टा के लोग प्यार से उन्हें राजेश कावासाकी कहते थे. गत दिनांक 24 अक्टूबर 2012 को बीमारी की वजह से उनके देहांत ने पटना के रंग जगत को स्तब्ध -सा कर दिया. 

उन्हें याद कर रहें हैं पटना इप्टा से जुड़े राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय के पूर्व छात्र आसिफ अली. 


विश्वास नहीं हो रहा, बड़ा ही तकलीफ़देह समाचार है ये. वे पटना में हमसे थोड़े सीनियर रंगकर्मियों में से एक थे. इप्टा के साथ ही उन्होंने अपने रंग जीवन की शुरुआत की थी. फिर कुछ वजहों से इप्टा से अलग हो गए और पवन सिंह के साथ बादल सरकार लिखित अबू हसन नामक नाटक किया. अन्य लोगों और समूहों के साथ भी समय-समय पर उनका जुड़ाव रहा जिसमें थियेटर यूनिट, मंच आर्ट ग्रुप, निर्माण कला मंच आदि सहित श्रीराम सेंटर रंगमंडल आदि प्रमुख हैं. श्रीराम सेंटर रंगमंडल के साथ कारंत जी द्वारा निर्देशित बाबूजी उनके यादगार कार्यों में से एक है. तनवीर अख्तर निर्देशित कबीरा खड़ा बाज़ार में, सौदागर सहित कई अन्य नाटकों में भी उन्होंने सराहनीय काम किया. रंगमंच के प्रति उनका लगाव आज भी वैसा ही था.

बतौर एक इंसान राजेश की सबसे अच्छी बात थी उनका सीधापन, उनकी सहजता, चीज़ों को बिना किसी पेचीदगी के सहजता के साथ स्वीकार करने की उनकी लाजवाब कला. लोगों के साथ उनका जुड़ाव सहज ही हो जाता था. समूह में भी राजेश की निकटता अक्सर सहज लोगों के साथ हीं होती थी. असहजता कभी उनकी पसंदगी की लिस्ट में शामिल नहीं रही. यही सहजता उनकी तथा उनकी अभिनय शैली की सबसे बड़ी ताकत थी और एक स्टाईल भी. अपनी इसी सहजता की वजह से वो रंगकर्मियों के बीच पसंद किये जाते थे.

अभिनय के साथ ही साथ मंच परे ( जो कि पटना रंगमंच की एक समृद्ध परम्परा भी है ) में भी उनकी खास रूचि थी, खासकर मंच प्रबंधन ( stage management ) के गुण उनके अंदर गजब के थे. Trial error method के सहज, सरल लर्निंग वाले अभिनेता का नाम था राजेश. अगर किसी की कोई सही बात दिल को छू जाए तो उसे ही अपना गुरु स्वीकार करके उसे आत्मसाथ करने की दिशा में कार्य आरम्भ कर देते थे. साथ ही अपने साथ अपने मित्रों के परिवार के साथ भी उनका एक स्नेहिल रिश्ता था. हमारा काम और हमारा रिश्ता केवल नाटकों के पूर्वाभ्यास और प्रस्तुति तक ही सीमित नहीं था. मित्रों और सहयोगियों के सुख-दुःख के एक सच्चे साथी थे राजेश. एक ऐसा इंसान जिसकी पैठ मित्रों के घरों तक भी सहज थी. वे काफी हँसमुख, मिलनसार और जिंदादिल भी थे. इप्टा से अलग होने के बाद भी हमें कभी ऐसा नहीं लगने दिया कि हम अलग हो गए हैं. रंग-समूह और व्यक्ति ( मित्रता ) दोनों को पूरी शिद्दत के साथ अलग-अलग देखने और निभाने की क्षमता थी उनके अंदर. और क्या खूब निभाया उन्होंने. अमूमन ऐसा बहुत कम ही देखने को मिलाता है.

इप्टा से वो जब अलग हुए तो हम सब दुखी हुए थे. सबको एक झटका सा झटका लगा था. इस अलगाव से हम सबकी सहजता, उत्साह को ज़बरदस्त चोट पहुंची थी. कई लोग तो कभी सहज नहीं हो पाए. एक guilt का एहसास हमेशा ही रहा. राजेश भी इस एहसास से अछूते नहीं रहे. जिन बातों को लेकर राजेश और कुछ अन्य साथियों ने इप्टा छोड़ी उसकेconflict तो पहले से ही शुरू हो गया था.

उनके साथ काम करते हुए बड़ा ही दोस्ताना दोस्ताना लगता था. खासकर नए लोगों को कभी ऐसा नहीं लगता कि वो एक अनुभवी अभिनेता के साथ काम कर रहें हैं. अपने बाद वाली पीढ़ी के प्रति उनका व्यवहार बड़ा ही दोस्ताना था. मैं स्वयं उसका उदाहरण हूँ. मैं उनसे जूनियर था फिर भी राजेश मेरे अच्छे मित्रों में से एक थे और हमेशा रहे. उन्होंने कभी भी ये एहसास तक न होने दिया कि मैं जूनियर हूँ. इप्टा से अलग होने के बाद भी हमारी मित्रता वैसी ही रही.

एक किस्सा याद आ रहा है उनसे जुड़ा. हमें लखीमपुर ( असम ) जाना था दूर देश की कथा का शो करने. ट्रेन के टिकटों को आरक्षित करने की ज़िम्मेवारी राजेश के ऊपर थी. हम सब पूरी तरह से निश्चिन्त थे. उन दिनों राजेश अपने पारिवारिक कारणों से काफी व्यस्त चल रहे थे. शायद इसी वजह से वो टिकटों के आरक्षण करने के लिए समय नहीं निकाल सके. खैर, हम स्टेशन पहुंचे गए तय समय पर, ट्रेन आई, चढने लगे तब पता चला कि आरक्षण तो हुआ ही नहीं है. ट्रेन में काफी भीड़ थी, पूरी टीम के साथ बिना आरक्षण के यात्रा करना संभव नहीं लग रहा था. जावेद साहेब ( अख्तर ) बहुत गुस्सा हुए. राजेश गर्दन नीचे किये चुपचाप खड़ा हो सुनते रहे. जावेद साहेब और तनवीर साहेब की बड़ी इज्ज़त करते थे राजेश. ट्रेन निकल गई. नौबत यहाँ तक पहुँच गई कि लगा टूर कैंसल करना पड़ेगा. खैर, मैं और इश्तियाक बस स्टैंड गए. पूर्णियां की बस मिली, किसी तरह सबको उसमें बैठाया गया. फिर पूर्णियां से गुवाहाटी की बस ली फिर लखीमपुर की. हम तीस लोगों ने बहत्तर घंटे बस की यात्रा की. गजब का मज़ा आया. किसी को किसी से कोई शिकायत नहीं. क्या स्पिरिट थी सबमें रंगमंच प्रति.
एक वक्त सबपे संगीत सीखने का भूत सवार हुआ था. सब रवि दा के पास जाने लगे, हम दोनों बस किसी तरह गा भर लेते थे. राजेश मुझसे थोड़ा अच्छा गाते थे. गाने के मामले में मैं बहुत बुरा हूँ. पटना रंगमंच से श्रीराम सेंटर दिल्ली और वहाँ  से पुनः वापस पटना. मुंबई जाने की चाहत शायद उनके अंदर थी कहीं न कहीं, पर संसाधनों और शायद आत्मविश्वास की कमी के कारण मुंबई का रुख करने की हिम्मत नहीं कर पाए. वो दोस्तों के दोस्त थे. उनकी असमय मौत ने जो खालीपन छोड़ा है हम सबके भीतर उसका एहसास लंबे समय तक रहेगा. 
यहां भी देखें : http://punjprakash.blogspot.in/2012/10/blog-post_26.html

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