Saturday, October 27, 2012

हर गाम नया तूर नई बक-ए-तजल्ली

 

इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन, जिसका मुख्तसर नाम इप्टा है, की पचास साला ज़िंदगी में आज का दिन  बहुत मुबारक़ दिन है, कि इसका पचास साला ज़िंदगी की सरगर्मियों के एतराफ में हमारी कुम्युनिकेशन मिनिस्ट्री इसका यादगारी टिकट जारी कर रही है। किसी भी थियेटर के लिए सबसे अहम दिन वह होता है जिस दिन वह बामक़सद और खूबसूरत नाटक खेलने में कामयाबी हासिल करे। यह यादगारी टिकट का इजारा भी मकसदी थियेटर के आन्दोलन को तकवियत पहुँचायेगा, इसलिए मैं आज के दिन को भी एक यादगार दिन तसव्वुर करता हूँ।
 
सोचने की बात यह है कि आज ही हमारी सरकार को यादगारी टिकट जारी करने, इप्टा के कारकूनों को इप्टा की सरगर्मियों को तेज़ करने का ख्याल क्यों आया? क्या सिर्फ इसलिए कि यह इसकी गोल्डन जुबली का साल है? यह एक वजह हो सकती है लेकिन असली वजह यही नहीं।
 
इप्टा का जन्म ठीक उस ज़माने में हुआ, जब हमारी कौम अपनी स्थायी आज़ादी के हुसूल लिए, ज़बरदस्त जद-ओ-जहद कर रही थी। बैरूनी हुकूमत ने  हमसे सिर्फ हमारी आज़ादी नहीं छीनी थी, सिर्फ सनअत-ओ-हिर्फ़त को ही बर्बाद नहीं किया था, हमारे फ़नून-ए-लतीफ़ा को भी कुचल दिया था। आज़ादी की जद-ओ-जहद सिर्फ़ के हुसूल की जद-ओ-जहद नहीं थी] वह क़ौमी तहज़ीब का बाज़याबी की लड़ाई भी थी।  इप्टा ने यह लड़ाई अपने गानों, नाचों, नाटकों के हथियारों से लड़ी और मुल्क को आज़ादी की मंजिल तक पहुँचाने क़ाबिल-ए-ज़िक्र रोल अदा किया। आज जब फिरकापरस्ती का फरौग हमारी आज़ादी जमहूरियत और सेक्युलरइज्म के लिए ज़बरदस्त ख़तरा बन गया है, हम उनका मुकाबला करने की ज़िम्मेदारी सिर्फ राजनीति पर नहीं छोड़ सकते जो हर क़दम यह सोच कर उठाती है कि इसमें उसके वोट बढ़ेंगे या टूटेंगे।
 
वोटों की इस सियासत से इप्टा को बारह-ए-रास्त कोई ताल्लुक़ नहीं। इसलिए आज मुल्क जितने खतरों में घिरा हुआ है उनका मुक़ाबला करने और उन्हें शिकस्त देने के लिए इप्टा की ज्यादा मज़बूत और ज्यादा सरगर्म करना ज़रूरी है।
 
 
 
हर गाम नया तूर नई बक़-ए-तजल्ली।
अल्लाह करे मरहल-ए-शौक़ ना हो तय।
 
 
 
 
 
 
 
 
 (मुंबई में इप्टा पर डाक टिकट जारी होने के समय प्रकाशित स्मारिका में इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष कैफ़ी आज़मी का वक्तव्य)

Friday, October 26, 2012

विवेचना का उन्नीसवां राष्ट्रीय नाट्य समारोह 31 अक्टूबर से

छह प्रदेशों के छह रंग दिखेंगे नाट्य समारोह में 

विवेचना का 19वां राष्ट्रीय नाट्य समारोह तरंग प्रेक्षागृह में 31 अक्टूबर से 4 नवंबर तक चलेगा। इस समारोह में छह राज्यों के छह नाटक प्रस्तुत होने जा रहे हैं। बाहर से आने वाले तीन दल पहली बार जबलपुर में अपना नाटक प्रस्तुत करेंगे। हर नाटक एक नई बानगी लिए हुए है। पहले दिन विवेचना जबलपुर का नाटक ’सवाल अपना अपना’ मंचित होने जा रहा है। यह नाटक आज का नाटक है जिसमें पैसे कमाने की अंधी होड़ में परिवार और समाज के आपसी संबंध सब दांव पर लग रहे हैं। यह नाटक बहुत बारीक तरीके से अंधविश्वासों के विरूद्ध वैज्ञानिक सोच को प्रमुखता देता है। नाटक का निर्देशन वसंत काशीकर ने किया है। विवेचना का उन्नीसवां राष्ट्रीय नाट्य समारोह केन्द्रीय क्रीड़ा व कला परिषद एम पी पावर मैनेजमेंट कंपनी लि. व विवेचना का संयुक्त आयोजन है। 

समारोह में दूसरे दिन 1 नवंबर को ’रम्मत’ जोधपुर के द्वारा अर्जुनदेव चारण के लेखन व निर्देशन में ’जमलीला’ का मंचन किया जाएगा। यह एक व्यंग्य नाटक है जिसमें एक रोचक कहानी को गीत संगीत और राजस्थानी हिन्दी भाषा के लालित्य के साथ प्रस्तुत किया गया है। प्रो अर्जुनदेव चारण देश के वरिष्ठ रंगनिर्देशक हैं और वर्तमान में राजस्थान संगीत नाटक अकादमी के चेयरमैन हैं। 

तीसरे दिन 2 नवंबर को इलाहाबाद की संस्था समांतर केे कलाकार अनिल भौमिक के निर्देशन में लोर्का के नाटक ’अघट प्रेम’ का मंचन करेंगे। एक युवा लड़की की शादी एक अधिक उम्र के व्यक्ति से हो जाती है। दोनों में टकराव होता है और आदमी घर छोड़ कर भाग जाता है। आदमी के जाने के बाद लड़की के साथ अनेक घटनाएं होती हैं और वह नए सिरे से अपने पति के प्रेम को देखती है। यह एक बहुत रोचक कथा है जिसमें अभिनय और गीत संगीत का सुंदर संयोजन है। यह एक प्रसिद्ध विदेशी नाटक है जिसे भारतीय परिस्थितियों में रूपांतरित किया गया है। 

समारोह के चौथे दिन 3 नवंबर को चंडीगढ़ की संस्था ’थियेटर फॉर थियेटर’ के कलाकार सुदेश शर्मा के निर्देशन में डा शंकर शेष के नाटक ’’चेहरे’’ का मंचन करेंगे। गांव के एक समर्पित समाजसेवी का निधन हो गया है। उनकी शवयात्रा जा रही है। अचानक पानी गिरने लगता है और सभी एक खंडहर में शरण लेते हैं। एक प्रेमी जोड़ा भागता हुआ इसी जगह पंहुचता है। समय बिताने के लिए होने वाली बातचीत में धीरे धीरे एक तनाव पैदा होता है और सब एक दूसरे की असलियत बताने लगते हैं। चेहरे उजागर होते हैं। 

समारोह के अंतिम दिन 4 नवंबर को रंगशिला मुम्बई के कलाकार अवनीश मिश्रा के निर्देशन में ’’द ग्रेट राजा मास्टर ड्रामा कंपनी’’ नाटक का मंचन करेंगे। नौटंकी शैली पर आधारित गीत संगीत से सराबोर इस नाटक का प्रमुख आकर्षण हेमंत पांडेय हैं जो टी वी के दुनिया के जाने माने कलाकार हैं। इस नाटक में नेहा सराफ, राणा प्रताप सिंह और नरोत्तम बेन भी अभिनेता हैं जो सभी जबलपुर के हैं और इस समय मुम्बई में स्थापित हैं।

नाटक "मंथन" का एक दृश्य
समारोह के अंतिम दिन 4 नवंबर को ही सुबह 10.30 बजे भी एक मंचन रखा गया है। भिलाई इप्टा के कलाकार त्रिलोक तिवारी के निर्देशन में स्व शरीफ अहमद का लिखा नाटक ’’मंथन’’ प्रस्तुत करेंगे। यह एक नाविक और एक पंडित के बीच की रोचक कथा है जिसमें दो चरित्रों के नए नए रंग उभरते हैं।

इस अवसर पर तरंग ऑडीटोरियम गैलरी में विश्वविख्यात चित्रकार श्री बसंत सोनी के चित्रों की प्रदर्शनी लगाई जाएगी। उल्लेखनीय है कि श्री बसंत सोनी चित्र बनाने में रंगों का उपयोग नहीं करते वरन् उनके चित्रों में फूल पत्तियों पेड़ों की छाल का ही उपयोग होता है। जैविक चित्रकला के वे अकेले चित्रकार हैं।समारोह में प्रतिदिन संध्या सात बजे से तरंग हॉल के बाहर प्रांगण में जबलपुर के अलग अलग विधाओं के कलाकार अपनी प्रस्तुतियां देंगे।

'इप्टा ने मुझे बनाया है और मेरे विचारों को एक अभिव्यक्ति दी है

2 अक्टूबर 2012 को इप्टा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष अंजन श्रीवास्तव बिहार के मधेपुरा आयें। यहाँ उन्होंने स्थानीय रंगकर्मियों और बाल कलाकारों से अन्तरंग बात-चीत की। अंजन जी ने इप्टा पर, खुद पर, नाटक एवं प्रेक्षागृह की आवश्यकता पर अपनी बातों को केन्द्रित रखा और प्रतिभगियों के साथ एक जीवंत रिश्ता बना लिया। उन्होंने कहा कि नाटक बेहतर जीवन जीने की कला की ओर प्रेरित करता है। नाटक भारतीय जीवन पद्धति का एक अनिवार्य अंग रहा है। आज आवश्यकता है कि नाटक को स्कूल-कॉलेज के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए और बच्चों को नाटक करने, देखने और पढने के लिए प्रेरित किया जाए। एक सवाल "कौन सा नाटक करें?" पर अंजन ने कहा कि यह बहुत ही महत्वपूर्ण है कि हम सवाल करें। हर नाटक को चुनने के पहले नाटक से यह सवाल पूछना चाहिए कि 'कौन सा नाटक', 'कैसा नाटक', 'किस तरह नाटक' हम करने जा रहे हैं? क्या जो हम करने जा रहे हैं वह हमारे आस-पास की, हमारी बात करता है? 'इप्टा ने मुझे बनाया है और मेरे विचारों को एक अभिव्यक्ति दी है।
अपने 43 वर्ष के अभिनय जीवन में मैंने नाटक, और टेलीविजन के साथ एक विचारवान और सजग जीवन जिया है। अब चिंता होती है कि बच्चों के बच्चों का क्या होगा पूरी दुनिया मेकेनिकल होती जा रही। संस्कृतिकर्म को नज़र अंदाज़ किया जा रहा है क्योंकि यह सवाल उठाता है, सोचने की ओर प्रेरित करता है। सत्ता को उसी का चेहरा दिखता है और यही परेशानियों को मूल कारण है। इसलिए यह पूरा षड़यंत्र है कि सवाल पूछने के साधन को नष्ट कर दिया जाए। आज आप देख सकते हैं कि आपके पास एक ढंग का प्रेक्षागृह नहीं है, जहाँ आप नाटक कर सकें। इसलिए आप को सवाल रखना चाहिए कि आपको एक अदद प्रेक्षागृह मिले। मैं भी आपके इस सवाल पर आपके साथ एक स्वर में आवाज़ मिलाता हूँ और कहता हूँ कि मधेपुरा को प्रेक्षागृह मिले।'
अपने लगभग 2 घंटे के बातचीत में अंजन श्रीवास्तव ने कहा कि लोक गीत-संगीत को बचाना इप्टा का एक उद्देश्य है। नाटक मनोरंजन के साथ-साथ समाज की बुराइयों और परिवर्तन को भी दर्शाता है। यह अभिनय का सबसे सशक्त माध्यम है। यहाँ बड़े-बड़े अभिनेता के भी पसीने छूट जाते हैं। एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा कि इप्टा का भी स्वरुप बदल रहा है। पहले फटेहाली में भी हम अभिनय करते थें। वैसे अब भी कर रहें हैं। लेकिन हमारी कोशिश एक उत्कृष्ट कलारूप का प्रदर्शन करने वाले संगठन के में इप्टा को स्थापित करना है ताकि इस कृत्रिम चकाचोंध का मुकाबला कर सकें।
इस अवसर पर इप्टा के राष्ट्रीय संयुक्त सचिव डा0 फीरोज़ अशरफ खां ने कहा कि इप्टा सरकार से राज्य के सभी जिला मुख्यालय में नाटक के लिए प्रेक्षागृह की मांग करता है।

अंजन श्रीवास्तव के साथ एक संवाद कार्यक्रम में इप्टा बिहार के सचिव मंडल के साथी इंद्रभूषण रमण 'बमबम', इप्टा मधेपुरा के अध्यक्ष डॉ. अमोल राय, सुभाष यादव, सहरसा इप्टा के राजन कुमार सहित कई वरिष्ठ व सम्मानित अतिथि उपस्थित थें। इस अवसर पर अंजन श्रीवास्तव को मिथिला संस्कृति के अनुरूप परम्परिक तरीके के सम्मानित किया गया।  

Tuesday, October 23, 2012

रंगमंच बच्चों के विकास एक मज़बूत कड़ी है

"संस्कृति अवाम में बसती है और उसे आगे ले जाने जवाबदेही युवा वर्ग पर है। जवाबदेही यह कि वह अपनी अगली पीढ़ी को तैयार करें , बच्चों को संस्कृति का अगुआ बनाये। यह उन्हें एक संवेदनशील इंसान बनाने के साथ ही ज़िम्मेदार नागरिक भी बनाएगा।"

ये बातें इप्टा के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष एवं लोकप्रिय अभिनेता अंजन श्रीवास्तव ने मधेपुरा इप्टा द्वारा आयोजित ए. के. हंगल अंतरविद्यालय नाट्य प्रतियोगिता में प्रतिभागियों को सम्मानित करते हुए कहीं। श्री अंजन ने बच्चों के बीच नाटक को करने और करवाने के प्रयास में तेजी लाने का आह्वान करते हुए रंगमंच को विद्यालय के पाठ्यक्रम में शामिल करने की आवश्यकता बताई। उन्होंने आगे कहा कि नाटक बच्चों के व्यक्तित्व विकास मे सहायक है और इप्टा आने वाली पीढ़ी को एक बेहतर इंसान, एक संवेदनशील नागरिक और मानव बनाने  लिए संघर्षरत है। इस अवसर पर इप्टा के राष्ट्रीय संयुक्त सचिव डॉ. फीरोज़ अशरफ खां ने कहा कि बिहार इप्टा ने जननाट्य आन्दोलन को बच्चों बीच ले जाने की एक पहल की है। हमारी कोशिश इप्टा को बिहार के हर परिवार, हर घर तक ले जाने की है।
भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा), मधेपुरा ने इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ए के हंगल की याद में बी पी मंडल नगर भवन में दो दिवसीय ए के हंगल अंतरविध्यालय प्रतियोगिता का आयोजन किया। प्रतियोगिता में सात विद्यालयों ने भाग लिया; जिसमे मधेपुरा से पाँच और सहरसा से दो विद्यालय शामिल थे।

नाटक प्रतियोगिया का उदघाटन1 अक्टूबर 2012 को जिला पदाधिकारी उपेन्द्र कुमार ने किया। इस मौके पर उन्होंने कि सभ्यता की शुरुआत से ही रंगमंच का अस्तित्व रहा है। अभिव्यक्ति के इस साधन द्वारा ही हमारी संस्कृति फलती-फूलती रही है। रंगमंच नमन योग्य है। हमें आशा है कि इप्टा की पहलकदमी से यहाँ रंगमंच की धीमी पड़ चुकी लौ फिर से प्रज्वलित होगी। वहीँ मुख्य अतिथि के रूप में समारोह को संबोधित करते हुए आरक्षी अधीक्षक सौरभ कुमार साह ने कहा कि दुनिया एक रंगमंच है जिसके हमसब किरदार हैं। उन्होंने मधेपुरा में रंगमंच के फलने-फूलने की कामना की। इस मौके पर बिहार इप्टा के उपाध्यक्ष प्रो0 सचींद्र, मधेपुरा इप्टा के मुख्य संरक्षक डा0 श्यामल किशोर यादव, संरक्षक डा0 भूपेन्द्र मधेपुरी, दशरथ प्रसाद सिंह, डा0 आलोक कुमार, प्रो0 रीता कुमारी आदि ने भी संबोधित किया। कार्यक्रम की अध्यक्षता डा0 अमोल राय ने की और धन्यवाद ज्ञापन मधेपुरा इप्टा के उपाध्यक्ष चन्द्रिका यादव ने किया । संचालन तुरबसू तथा राज्य कार्यकारिणी सदस्य सुभाष चन्द्र ने किया।
 
कार्यक्रम के पहले दिन सालोम मिशन पब्लिक स्कूल द्वारा 'आरक्षण' नाटक का मंचन किया गया। इस नाटक के लेखक एवं निर्देशक त्रिलोक कुमार मिश्रा थे। यह नाटक वर्त्तमान आरक्षण पद्धति का लाभ ज़रूरतमंदों तक पहुचाने की मांग पर आधारित था। दूसरा नाटक साउथ प्वाइंट हाई स्कूल द्वारा 'डिस्को मास्टर' था। यह नाटक शिक्षा व्यवस्था पर आधारित था। तीसरा नाटक होली क्रास स्कूल का 'सांच को आंच नहीं' था। यह नाटक भ्रष्टाचार पर आधारित था जिसमें दिखाया गया कि किस तरह छोटे-छोटे कामों के लिए आम लोगों को परेशान होना पड़ता है। प्रथम दिन का अंतिम नाटक सदाशिव नॉलेज टेम्पल के द्वारा प्रस्तुत 'अपना गाँधी अपना देश' था। जिसके लेखक अनिल पतंग थे। 
 
आयोजन के दूसरे दिन मध्य विद्यालय, नवहट्टा (सहरसा) के बच्चों ने एस एस हिमांशु के निर्देशन में 'बोलने का नहीं समझने का' नाटक, मध्य विद्यालय गोबरगढ़ा (सौर बाज़ार) के बच्चों ने डा0 आलोक कुमार लिखित एवं चन्दन कुमार निर्देशित नाटक 'घो-घो रानी कितना पानी' नाटक प्रस्तुत किया। माया विद्या निकेतन, मधेपुरा के द्वारा एम् के मशाल निर्देशित नाटक 'एकलव्य' प्रस्तुत किया।

ए0 के0 हंगल अंतर विद्यालय नाट्य प्रतियागिता का प्रथम पुरस्कार सदाशिव नौलेज सेन्टर , मधेपुरा के नाटक 'अपना गाँधी अपना देश', दूसरा पुरस्कार माया विद्या निकेतन, मधेपुरा की प्रस्तुति 'एकलव्य' तथा तीसरा पुरस्कार मध्य विद्यालय गोबरगढ़ा (सौर बाज़ार) के नाटक 'घो-घो रानी कितना पानी' को मिला। श्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार को तथा श्रेष्ठ निर्देशक का पुरस्कार योगेन्द्र कुमार झा को "अपना गांधी अपना देश" के लिए दिया गया।
 
पुरस्कार वितरण के अवसर पर बिहार इप्टा के सचिव मंडल के साथी इंद्र भूषण रमण 'बमबम', राज्य कार्यकारिणी सदस्य राजन, ई. प्रभाष और भोला प्रसाद यादव भी उपस्थित थें। 
 
- तुरबसु 

Saturday, October 20, 2012

हमारा पूरा देश चंद अंबानियों में बंटा हुआ है

निदा फाजली से बात करते जाकिर

मुक्तदा हसन यानी निदा फाजली आज किसी तआर्रूफ के मोहताज नहीं हैं। देहली में पैदाइश और ग्वालियर में परवरिश पाने वाले निदा फाजली ने समाज की कड़वी हकीकतों को बेहद करीब से देखा और भोगा है इसलिए सब कुछ उनकी जुबां से किसी नज्म की तरह फूट पड़ता है। पिछले दिनों एक मुशायरे के सिलसिले में निदा फाजली भिलाई आए थे। मुशायरा रात 11 बजे शुरू होना था लिहाजा सुपला काफी हाउस में शाम तक मिलने वालों के साथ बैठने के अलावा भी उनके पास काफी वक्त था। ऐसे में उन्होंने पूरे इत्मिनान से बातचीत की। निदा फाजली की जाकिर हुसैन से हुई यह बातचीत सवाल-जवाब की शक्ल में, बगैर काट-छांट के:

हमारे मुल्क में बहुत से तबके तरक्की से कोसों दूर है। उनकी इस हालत के लिए कौन जिम्मेदार है?
दरअसल यह गवर्नमेंट की पालिसी है कि वो कुछ तबके को वोट बैंक बनाती है। जिसके लिए नए-नए तरीके सोचे जाते हैं जिसमें एक तरीका यह है कि लोगों को माइनारिटी और मेज्योरिटी में तकसीम कर दिया जाए। जहां तक गरीबी का सवाल है खराब सड़कों का सवाल है, रोशनी के अभाव का सवाल है उसका किसी मजहब से ताल्लुक नहीं है। लेकिन गवर्नमेंट जो होती है यह सब खेल करती है। यह खेल चला है पं. नेहरू के जमाने से। यह खेल चल रहा है और कुछ तबको को बेवकूफ बना कर उन्हें वोट बैंक की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। जरूरत इस बात की है कि लोग इसे समझें और समाज की मुख्य धारा में आएं।

बढ़ती नक्सली हिंसा पर आपका नजरिया....
नक्सलवाद जो है वो क्रिया नहीं प्रतिक्रिया है। यह इस बात की प्रतिक्रिया है कि हमारा पूरा देश चंद अंबानियों में बंटा हुआ है। अब मॉल कल्चर पैदा हो रहा है। उसमें अंडे वाले, भाजी वाले और दूसरे छोटे धंधे करने वाले बेकार हो रहे हैं। दिक्कत यह है कि कुछ लोग इन विडंबनाओं को भगवान की नाराजगी समझ कर खामोश हो जाते हैं। वहीं जो लोग इनके खि़लाफ़ खड़े हो जाते हैं उनको लोग नए-नए नामों से पुकारते हैं। उसे नक्सलवाद भी कहते हैं। नक्सलवाद या और भी किस्म के सामाजिक विद्रोह है उनको खत्म करने के लिए पहले नंदीग्राम को खत्म करो। मध्यप्रदेश-छत्तीसगढ़ और देश के दूसरे हिस्सों से सांप्रदायिकता खत्म करो, सामाजिक विडंबनाएं खत्म करो।

लेकिन यह तो सीधा-सीधा आतंकवाद है?
आप आतंकवाद की बात कहते हो तो कौन सा आतंकवाद है यह...? एक अंदर का होता है एक बाहर का। आतंक एक बिजनेस है उससे राजनीति जुड़ी है। अंदर का आतंक उड़ीसा और मध्यप्रदेश में होता है 84 में दिल्ली में हुआ और गुजरात होता है। बाहर का आतंक 26/11 है। आतंक से आरोप-प्रत्यारोप के चक्कर में.... पाकिस्तान खुद आतंक से घिरा हुआ है। वह अपने एक्स प्राइम मिनिस्टर की हिफाजत नहीं कर सका। स्वात घाटी के डेढ़ लाख लोग घर से बेघर हो गए। यह सारी विडंबनाएं देश के विभाजन से उपजी हैं। जो कि हमारे नेताओं की सूझबूझ की एतिहासिक गलती थी। इसका खामियाजा कई नस्लें भुगत रही थीं भुगत रही हैं और आगे भुगतेंगी।

इनका हल नहीं है?
क्यों नहीं है, दिक्कत दरअसल यह है कि हमारे यहां एजुकेशन नहीं है इसलिए जागृति नहीं है। ऐसे में कुछ लोग हथियार उठा लेते हैं सामाजिक अन्याय के खिलाफ। हमें चाहिए बहुत सारे अंबेडकर, खैरनार और अन्ना हज़ारे। शिक्षा के लिए आपके पास पैसा नहीं है बम बनाने पैसा है करप्शन के लिए पैसा है। ये पूरी समस्याएं हैं, किसी को एक दूसरे से अलग कर के नहीं देखी जा सकी। जरूरत इस बात की है कि ज्यादा से ज्यादा एजुकेशन पैदा हो। आजादी की रोशनी वहां तक पहुंचे जहां बरसों से गरीबी का, गंदे पानी का, खस्ताहाल सड़कों का, बेरोजगारी का अंधेरा फैला हुआ है। सरकार चाहे किसी की भी हो हमारा संविधान कहता कुछ है और सरकार करती कुछ और हैं। अब हर काम को भगवान के हवाले कर दिया गया है। बच्चे पैदा करना भी भगवान के हवाले हो गया है। ''खुदा के हाथ में मत सौंप सारे कामों को, बदलते वक्त पे कुछ अपना अख्तियार भी रख। जब तक बदलते वक्त पे अपना अख्तियार नहीं रखेंगे हर काम भगवान करता रहेगा, बच्चे भी भगवान पैदा करता रहेगा और जनसंख्या बढ़ती रहेगी, पतीली का आकार बढ़ेगा नहीं खाने वाले बढ़ते चले जाएंगे। और इस तरह की विडंबनाएं पैदा होती रहेंगी।

तो इन विडंबनाओं के खिलाफ खड़े होने का एक ही तरीका है...
मैं सही गलत की बात नहीं कर रहा। दो काम है या तो आप अन्याय को भगवान का नाम लेकर मंदिर-मस्जिद मे बैठ जाएं, ''चाहे बनें अमीर तू चाहे बनें गरीब, ईश्वर अपने हाथ से लिखता नहीं नसीब , या फिर अन्याय और विडंबनाओं के खिलाफ खड़े हो जाएं। खड़े होने किसका तरीका कौन सा है वो अलग बात है। मैं अपने तौर पर अन्याय के खिलाफ खड़े होने वाले हर एक के साथ हूं। लेकिन सिर्फ भगवान का नाम लेकर कि उपर वाला ही अमीर को अमीर और गरीब को गरीब बनाता है इसका मैं कायल नहीं हूं। खुदा के और भी काम है उसको अपना काम करने दो। उसके कामों में बढ़ोत्तरी क्यों कर रहे हो।

आज शब्दों का कितना महत्व है...?
साफ-साफ कहूं तो आज के कल्चर में शब्दों का महत्व बिल्कुल नहीं है। ''क्रिकेट नेता एक्टर हर महफिल की शान-दाढ़ी, टोपी बन गया गालिब का दीवान आज किक्रेट नजर आता है एक्टर नजर आता है पालिटिशियन नजर आता है। गालिब कहीं नजर आता है? एक फैशन बन गया है सिर्फ पार्लियामेंट में कोट करने गालिब , रहीम और कबीर की लाइनें होती हैं। इस गलतफहमी में मत रहिए कि शब्दों का आज महत्व है। यह इसलिए क्योंकि शब्द बाजार की चीज नहीं है। आज आलू और टमाटर ज्यादा बिकते हैं शब्द कम बिकते हैं।

आज मुशायरों में किस तरह का बदलाव देखते हैं...?
आज जिस तरह मुशायरे होते हैं उनमें आने वाले कितने लोग हैं जो कवियों और शायरों की किताबों की वाकिफ हैं। कौन से आयोजक यह कोशिश करते हैं कि अवाम के बीच स्टेज पर बुलाए जाने वालों का साहित्यिक महत्व भी हो। आज ब्यूटी पारलर से सजी-धजी लड़कियां स्टेज पर आती हैं और दूसरों का लिखा अपनी आवाज में सुना कर तालियां बजवाती हैं। बुलाने वाले को भी नहीं मालूम कि गधे और घोड़े में क्या फर्क है।

लेकिन इन्ही स्टेजों पर तो निदा फाजली को भी बुलाया जाता है..?
निदा फाजली को इसलिए बुलाया जाता है क्योंकि उसका थोड़ा सा संबंध फिल्मों और कुछ सीरियलों से हैं। थोड़ा सा मेहंदी हसन और जगजीत सिंह के लिए लिखी गजलों से है। निदा फाजली को इसलिए नहीं बुलाया जाता है कि उसने हिंदी, उर्दू, गुजराती मराठी, इंग्लिश में 23 किताबें लिखी हैं। कोई नहीं जानता कि निदा फाजली को साहित्य अकादमी अवार्ड, गालिब अवार्ड, स्क्रीन अवार्ड मिला है। यह पब्लिसिटी का युग है। जिसका भोंपू जितना बड़ा होता है उसकी आवाज उतनी ज्यादा चलती है।

तो क्या आज का दौर बाजार का है..?
जी हां, यह दौर बाजार का ही है। जिसकी कीमत जितनी ज्यादा होती है उसका नाम उतना ज्यादा होता है। बंबई के कब्रिस्तान में मधुबाला फेस की वैल्यू ज्यादा होने की वजह से उनकी कब्र मार्बल की थी, आवाज की कीमत ज्यादा थी तो इसी वजह से रफी साहब की कब्र ग्रेनाइट की थी। वहीं साहिर लुधियानवीं की कब्र लफ्जों से बनी थी इसलिए मार्केट में वैल्यू नहीं होने के कारण एक बरसात में ढह गई।

क्या कलम से इंकलाब मुमकिन है..?
आप इस धोखे में मत रहिए कि कलम से इंकलाब आ सकता है। आज हमारे समाज के बदलावों ने कलम का दायरा बेहद छोटा कर दिया है। हां, यह जरूर है कि कलम से बेदारी (जागृति) पैदा की जा सकती है कि अवाम अपने हक के लिए लडऩा सीखे।

इतिहास को लेकर हमेशा विवाद की स्थिति रहती है, ऐसे में साहित्यकारों की लेखनी में झलकता इतिहास कितना प्रमाणिक मानते हैं आप..?
मैं मानता हूं कि हमारे अदीबों (साहित्यकारों)ने जो भी लिखा उसमें प्रमाणित इतिहास है। इस पर मैनें काम भी किया है। मेरी नई किताब 'आदमी की तरफ नाम से आई है। जब एनडीए गवर्नमेंट में इतिहास को खत्म किया जा रहा था और इतिहास के कैरेक्टर को हिंदू-मुसलमान में तक्सीम किया जा रहा था। तब मैनें अलाउद्दीन खिलजी के पीरियड के अमीर खुसरो से लेकर मौजूदा दौर तक के तमाम क्लासिकल पोएट के छंदों में गजलें लिखीं। यह दिखाने के लिए और खुद ये जानने के लिए कि शायरों ने जो इतिहास लिखा है वह बेहद प्रमाणिक है। उसमे आम लोगों की उंगली पकड़ कर साहित्यकार चलता है। उसमें धार्मिक भेदभाव विभाजन नहीं होता। जब औरंगजेब के दौर में वली दक्कनी कहते हैं-''मुफलिसी सब बहार खोती है, मर्द का एतबार खोती है यहां उनका 'मर्द हिंदू है ना मुसलमान है सिक्ख है ना इसाई है। ये 'मर्द वो आदमी है जो गरीबी में जिंदगी बसर कर रहा है। जब अलाउद्दीन खिलजी के दौर में अमीर खुसरो कहते हैं कि ''जो यार देखा नैन भर मन की गई चिंता उतर, ऐसा नहीं कोई अजब राखे उसे समझाए कर तो मालूम पड़ रहा है कि वो सूफी निजामुद्दीन औलिया की खानकाह में बैठ कर आम लोगों की बात कर रहे हैं। सिकंदर लोधी के दौर में जब कबीर कहते हैं कि ''आत्मज्ञान बिना जग झूठा, क्या मथुरा क्या काशी  यानि साहब आप अपने आप को पहचानो। यही बात बहादुर शाह जफर के दौर में गालिब ने कही थी कि ''बस के दुश्वार है हर काम का आसां होना, आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना, तो मां के पेट से पैदा होने वाला आदमी होता है लेकिन अपनी कोशिशों से आदमी इंसान बनता है। हमारे पोलिटीशियन जो हैं वो आदमी तो हैं लेकिन इंसा बनने का पूरा रास्ता कैद कर रखे हैं। पहली बात तो ये कि हमारे पॉलिटिशियन लोग इतिहास नहीं पढ़ते हैं। अगर पढ़ते भी हैं तो सिर्फ अपने फायदे के लिए।

उर्दू के वजूद पर खतरा देखते हैं..?
आप उर्दू को मजहब से जोडऩा बंद नहीं करेंगे, उसे एक भारत के कल्चर का हिस्सा नहीं मानेंगे और जब तक उसे सियासत के घेरे से आजाद नहीं करेंगे तब तक उर्दू अपने वजूद के लिए जद्दोजहद करती रहेगी। पहले नारायण प्रकाश मेहर, राजिंद्र सिंह बेदी, दत्तात्रेय कैफी, कृष्णचंदर, प्रेमचंद की जुबान उर्दू थी। इसे एक मजहब से जोडऩे का काम जिन्होंने अपने सियासी फायदे के लिए किया वे भारत का पूरा नक्शा नहीं देखते। काजी नजरूल इस्लाम ने बंगाली, बशीर वाहिद अंबी ने तमिल तो शैदा ने गुजराती में अपनी शायरी की जबकि ये तीनों मुसलमान थे। दरअसल एक गलतफहमी पैदा हो गई या कर दी गई। जिससे लोगों को लगने लगा उर्दू तो 'मुसलमान है। जबकि यह पूरी तरह गलत है। अगर मजहब के हिसाब से जुबान तय होती तो मुसलमान हर जगह अरबी में बात करता होता। हकीकत ये है कि मुसलमान जहां रहता है वहां की बोली बोलता है। दिक्कत ये है कि हमारे रहनुमाओं को इतिहास नहीं मालूम। अलाउद्दीन खिलजी और बलबन के पीरियड की भाषा हिंदुस्तानी है। हजरत अमीर खुसरो ने उस दौर में कहा-''खुसरो रैन सुहाग की.... ये वो भाषा का रूप है जहां से आगे चल कर आज की हिंदी और आज की उर्दू सामने आई।

मजहबी किताबें लोगों को किस हद तक जोड़ती है..?
मजहबी किताबें तो लोगों को जोडऩे के लिए ही होनी चाहिए, लेकिन इसके साथ ही हमारे देश में बदकिस्मती की बात यह है कि लोग बाइबिल, कुरआन और गीता के शब्दों पर लड़ते तो हंै लेकिन जुड़ते नहीं है। यह हमारी ट्रेजडी है। हम इन किताबों में लिखी बातों को ज्यादा अहमियत नहीं देते। यह इसलिए हो गया कि हमारे यहां शिक्षा नहीं है। कुरआन में कहा गया है 'अलहम्दो लिल्लाहि रब्बुल आलमीन यानि वो तमाम आलमों का खुदा है। तमाम आलमों में तो सोनिया का इटली भी है मुजीब का बांग्लादेश भी है और ओबामा का अमेरिका भी है। जब हिंदू शास्त्रों में कहा गया है कि कण-कण में नारायण व्याप्त है तो जर्ऱे-जर्ऱे में जब उस ख़ुदा का ज़हूर है तो वो जर्ऱा इटली भी होगा अमरीका भी होगा बग़दाद भी होगा। जब बाइबिल में 2010 साल पहले खुदा ने रौशनी को सारे आलम में फैलने का हुक्म दिया था तो यह नहीं कहा था कि फलां हिस्से में नहीं जाओ या सिर्फ किसी खास मुल्क के चंद घरों में जाओ। अब आलम यह है कि क्रिश्चियन ना तो ईसाईयत को मानता है ना हिंदू अपने धर्म को मानता है ना ही मुसलमान अपने इस्लाम को मानता है। सब बिजनेस कर रहे हैं। आज जेहाद भी बिजनेस है और आतंकवाद भी बिजनेस है, हद तो यह है कि राजनीति भी बिजनेस है।

हाल ही में भाजपा ने अपने अधिवेशन में फिर एक बार मंदिर का मुद्दा उठाया है..?
जो लोग मंदिर और मस्जिद की बातें करते हैं उनसे मैं यह पूछना चाहता हूं कि पहले वो पटना से दरभंगा तक बेहतर सड़क क्यों नहीं बनाते। झोपडिय़ों में पीने के लिए जो गंदा पानी है उसे हाइजिनिक क्यों नहीं बनाते। मैं उनसे यह पूछना चाहता हूं इस भूखे-नंगे देश में माल कल्चर की क्या वैल्यू है। जहां तक मंदिर-मस्जिद की बात है, इसका अपना एहतराम है। ''अंदर मूरत पे चढ़े घी-पूरी मिष्ठान्न,मंदिर के बाहर खड़ा ईश्वर मांगे दान जहां छोटे-छोटे घरों मे बड़े-बड़े परिवार रहते हैं वहां एक बच्चा खड़े होकर कहता है-''बच्चा बोला देखकर मस्जिद आलीशान, अल्लाह तेरे एक को इतना बड़ा मकान दिक्कत यह है कि वे (पालिटिशियन) आम लोगों का ध्यान नहीं रखते। आम लोगों का शोषण सदियों से हो रहा है।

पद्म सम्मानों को लेकर हर साल विवाद की स्थिति रहती है। आपको आज तक ये सम्मान नहीं मिले..?
आज हर चीज बिजनेस है। मैं कभी पद्म सम्मानों की दौड़ में नहीं रहा। मिलने पर मैं इन्हें ठुकरा भी सकता हूं। क्योंकि मैं मानता हूं कि कुत्ते के गले में पट्टा डाल दिया जाए तो कुत्ता एक का हो जाता है। मुझे चाहिए आम लोगों की दाद। मैं आम लोगों के लिए लिखता हूं और अगर आम लोग मुझे एप्रिशिएट करते हैं तो मेरा काम हो जाता है। पद्म सम्मान आज जिस तरह दिए जा रहे हैं उसकी वजह यह है कि हमारे जिम्मेदार लोगों अवेयरनेस है ही नहीं। हद तो यह है कि बेकल उत्साही को पद्मश्री मिल जाता है और अली सरदार जाफरी को नहीं मिलता। क्योंकि हमारे जिम्मेदार लोग कुछ जानते नहीं, यह उनकी गलती नहीं है। बाइबिल में भी कहा गया है कि- या खुदा, उन्हें माफ कर दो वो जानते नहीं वो क्या कर रहे हैं।

आपने फिल्मों में बहुत कम गीत लिखे, इसकी कोई खास वजह...?
मैं शुरू से सलेक्टिव रहा हूं और अपने समय का दुरूपयोग नहीं करता। फिल्में आती हैं तो मैं मना नहीं करता। जहां गुंजाइश होती है वहीं लिखता हूं। मैनें महेश भट्ट की 'सुर में गीत लिखे। मैनें 'सरफरोश में 'होशवालों को खबर क्या लिखने के बाद लड़ाई लड़ ली थी। क्योंकि उन्हें गज़ल बनानी भी नहीं आती थी। खैर, मैनें बीते दौर के म्यूजिक डायरेक्टर्स के साथ भी काम किया और मुझे आज के किसी म्यूजिक डायरेक्टर के साथ काम करने में कोई दिक्कत नहीं होती। जब वो ये सोचते हैं कि मैं उनके काम के लिए उपयोगी हूं तो वो खुद आते हैं। मैं किसी के पास नहीं जाता हूं।

...यानी फिल्मों के लिए गीत लिखना आपकी जरूरत नहीं है..?
दाग़ के दौर में बिहार के शायर शाद अजीमाबादी की मशहूर लाइन है कि ''मैं खुद आया नहीं लाया गया हूं  आप समझ लीजिए मेरे साथ भी यही हुआ है। घर से बेघर हुआ,सांप्रदायिकता के कारण हर शहर में घर की तलाश की। बंबई में ठिकाना मिल गया। जिस ने भी बुलाया, जहां रोटी नजर आती थी चले जाते थे। फिल्म वालों ने बुलाया चले गए, अखबार वालों ने बुलाया चले गए। ये फिल्म लाइन कोई मेरी च्वाइस नहीं है। अभी भी कोई मेरे घर आ जाता है मैं लिख देता हूं उनके लिए। मैंनें म्यूजिक डायरेक्टर या प्रोड्यूसर के चक्कर लगाने में पहले अपना वक्त ज़ाया किया ना अब करता हूं। हां,यह जरूर है कि जब मेरे लिखे हुए नग्मों को मकबूलियत मिलती है। मसलन ''कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता या ''तू इस तरह से मेरी जिंदगी में शामिल है  जैसे फिल्मी गीत और ''दुनिया जिसे कहते हैं जादू का खिलौना है , ''अपनी मर्जी से कहां अपने सफर पर हम हैं और ''हर तरफ हर जगह बेशुमार आदमी जैसे गैर फिल्मी गीत हमारे बोलचाल के मुहावरे बन गए हों तो खुशी मिलती है। वैसे फिल्मों से मैं पूरी तरह दूर नहीं हुआ हूं अभी इस्माइल श्राफ की आने वाली फिल्म 'एक नाजुक सा मोड़ के लिए लिए गीत लिख रहा हूं।

फिल्मों में इंस्पिरेशन (प्रेरणा) के नाम पर कॉपी (नकल) का दौर थमता नहीं दिखता..?
यह आज की बात नहीं है ऐसा हमेशा से होता रहा है। तकलीफ इस बात की है कि इसके खिलाफ कोई एक्शन नहीं लिया जाता है। सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की एक कविता थी 'इब्न बतूता पहन के जूता। उसका इस्तेमाल आज की फिल्म 'इश्किया में हुआ यानी सर्वेश्वर दयाल को पुस्तक से बाहर आने के में 33 साल लगे? मैं साहित्य को साहित्य के इतिहास से पहचानता हूं। मुझे मालूम है कि शब्दों का क्या महत्व होता है। अगर मैं राइटर हूं और पोएट हूं तो दूसरों के शब्दों और दूसरों की रचनाओं की हिफाजत करना भी मेरा फर्ज है। मिर्जा गालिब का शेर उठा कर 'दिल ढूंढता है फिर वही फुरसत के रात-दिन गीत अपने नाम से लिखने का काम मैं नहीं करूंगा। मैं खुद नई बात लिखने की कोशिश करूंगा। 250 साल की उम्र के गालिब को निजामुद्दीन की अपनी कब्रगाह से निकल कर बंबई आने में काफी वक्त लगेगा और अब वह इतने बूढ़े हो चुके हैं कि आएंगे भी नहीं। इसलिए आप गालिब को आसानी से एक्सप्लाइट कर सकते हैं। अब छत्तीसगढ़ का लोकगीत है ''ससुराल गेंदा फूल। इस पर किसी और को फिल्म फेयर अवार्ड भी मिल जाता है क्योंकि यह पब्लिसिटी का युग है और इसे कुबूल करना चाहिए यही हकीकत है।

फिल्मों में म्यूजिक के नजरिए से किस तरह का बदलाव देखते हैं?
बदलाव तो हर दौर में होता रहा है। असल में अब जो डायरेक्टर-प्रोड्यूसर और म्यूजिक डायरेक्टर का लाट आया है, उसमें ज्यादातर लोगों को लैंग्वेज (हिंदी-उर्दू)का भाषा का ज्ञान नहीं है। सारे कान्वेंट में पढ़े हुए हैं। पहले मदनमोहन,आरडी बर्मन और खय्याम साहब जैसे लोग थे जो लैंग्वेज को अच्छी तरह समझते थे। इसलिए पहले लिखे हुए पर धुन बनाई जाती थी अब बनी हुई धुन पर लिखवा लिया जाता है। साहिर लुधियानवी और जां निसार अख्तर जैसे लोग पहले से शायर थे फिर कहीं उन्होंने फिल्मों में लिखना शुरू किया। अब ये होने लगा है कि फिल्म प्रोड्यूसर और डायरेक्टर को कल्चर का कोई अवेयरनेस नहीं है। इसलिए अब अगर आप शब्दों के थोड़े बहुत इतिहास से परिचित हैं तो भी आप अपना काम कर सकते हैं।

देहली में आपकी पैदाइश हुई और परवरिश ग्वालियर में। इस शहर के बारे में और आप के अब तक के सफर पर कुछ..?
मेरे दो आत्मकथात्मक उपन्यास 'दीवारों के बीच और 'दीवारों के बाहर नाम से उर्दू, हिंदी, मराठी और गुजराती में हैं। उसमें मैनें सब कुछ तफसील (विस्तार) से लिखा है। उन्हीं बातों को यहां करना दोहराव हो जाएगा। जहां तक ग्वालियर की बात है तो यह एक बहुआयामी सांस्कृतिक शहर है। यहां ग़ौस गवालियरी का मजार है। अकबर के नौ रत्नों में से एक तानसेन और अकबर के दौर के ही अबुल फजल फैजी का मजार है। दाग देहलवी के जां नशीं (उत्तराधिकारी)नारायण प्रसाद मेहर,जां निसार अख्तर के वालिद मुश्तर खैराबादी और हाफिज अली खां (सरोद नवाज उस्ताद अमजद अली खां के वालिद)भी इसी शहर के हैं। कहा तो यह भी जाता है कि गांधी जी को मारने के लिए गोड़से की तैयारी भी ग्वालियर में हुई थी।

अलग तेलंगाना मसले पर आपकी राय..?
आज सवाल किसी एक नए स्टेट का नहीं है। मेरा मानना है कि पावर चंद हाथों में नहीं बहुत से हाथों में होना चाहिए। दिल्ली में बैठकर मेरे घर के सामने जो सड़क खराब है उसमें सुधार नहीं हो सकता।

लंबे अरसे से लिखते हुए आज आपको वो मकाम मिल गया जिसकी तलाश थी..?
इसका फैसला मैं नहीं कर सकता। यह मेरे पाठक या श्रोताओं को तय करना है। मैं मानता हूं किसी रचना से रचनाकार का संबंध उसकी रचनात्मकता तक होता है। जब रचना कागज पर आ जाती है तो रचनाकार मर जाता है। फिर सारा अख्तियार पाठक या श्रोता पर होता है। एक दौर में कबीर दास को पंडितों ने कहा कि ये कवि नहीं है, इसे भाषा नहीं आती, ये अज्ञानी है। लेकिन आज मालूम पड़ता है कि अज्ञानी कहनो वालों को कोई नहीं जानता कबीर दास को सब जानते हैं। जहां तक मेरी बात है तो जैसे शकर के दाने की तरफ चींटी अपना सफर तय करती है बस वैसे ही मैं भी अपने काम में लगा हूं।

कुल मिला कर आप अपनी शख्सियत को कैसे बयां करेंगे?
सच कहूं तो मैं दरअसल भारतीय रेलवे की सवारी गाड़ी की तरह हूं। जिसमें एसी, सेकंड क्लास और जनरल कंपार्टमेंट भी है। मैं जिस कंपार्टमेंट में जिस वक्त होता हूं वहां के नियमों को निभाता हूं। जब मैं किसी अखबार या बीबीसी के लिए अपनी टेबल में बैठकर कालम लिखता हूं तो अलग मूड में होता हूं। जब अपनी किताब के लिए या फिर गजल लिखता हूं तो अलग मिजाज में होता हूं। मैनें अपने आप को इन अलग-अलग डिब्बों की तरह ढाल लिया है। मैं किसी एक कंपार्टमेंट में अपना ज्यादा वक्त खराब नहीं करता हूं। हां, यह सच है कि पहले समस्या रोटी और पानी की थी,अब समस्या अपनी कहानी की है।

जनपक्षीय कला का विकास जनपक्षीय आंदोलन के साथ


भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा), मध्य प्रदेश का आठवां राज्य सम्मेलन, 1-2 अक्टूबर 2012

‘आज बाज़ार में पाबजौलाँ चलो’ फैज की यह पंक्ति इप्टा मध्य प्रदेश के दो दिन के सम्मेलन के हर क्षण में समायी हुई लग रही थी। जब देश में किसान और मजदूर मर रहे हैं, औरतें-बच्चे और बुजुर्ग न सम्मान हासिल कर पा रहे हैं न प्यार। हर जगह इंसान को उपभोक्ता बनाया जा रहा है तब कलाकार और वह भी इप्टा का कलाकार कैसे खामोश रह सकता है। इंदौर में प्रदेश के अनेक कलाकार अपने वक्त में अपनी सार्थक भूमिका की बात करते हुए बंद कमरे से सड़कों तक पर और दीवारों से मंच तक आये थे। और सम्मेलन की समाप्ति के बाद एक उत्साह सभी में दिख रहा था - समाजवाद के सही रास्ते पर होने का और सामूहिकता की ताकत का।

भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा), मध्य प्रदेश का आठवां राज्य सम्मेलन 1-2 अक्टूबर, 2012 को इन्दौर में संपन्न हुआ। यह सम्मेलन प्रख्यात अभिनेता व रंगकर्मी बलराज साहनी व ए.के. हंगल के अवदान और स्मृति को समर्पित था। सम्मेलन स्थल पर 40 के दशक में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के फोटोग्राफर रहे सुनील जाना के छायाचित्रों, जिनमें आजादी से पहले के किसानों, मजदूरों, संस्कृतिकर्मियों और आंदोलनों की छवियां दर्ज हैं, के अलावा उसी कालखंड के महान चित्रकार चित्तप्रसाद के चित्रों की प्रदर्शनी भी लगाई गई थी। भगतसिंह पर केन्द्रित पोस्टरों की अशोक दुबे द्वारा तैयार प्रदर्शनी और समकालीन कविता और कहानी के अंशों पर एकाग्र पंकज दीक्षित द्वारा तैयार किए गए पोस्टर भी इस प्रदर्शनी का हिस्सा थे।

सम्मेलन का औपचारिक उद्घाटन तो एक अक्टूबर की शाम को आनंद मोहन माथुर सभागार में हुआ लेकिन वैचारिक सत्र की शुरुआत प्रातः 10 बजे राखोड़िया की धर्मशाला में हो गई थी। इस सत्र में ‘नाटक और जन आंदोलन’ विषय पर आधार वक्तव्य देते हुए इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव जितेन्द्र रघुवंशी ने कहा कि ‘जनपक्षीय कला का विकास जनपक्षीय आंदोलन के साथ-साथ ही होता है‘। उन्होंने इप्टा के संघर्ष के दिनों को कई उदाहरणों के साथ याद करते हुए कहा कि 1985 के बाद देशभर में जो काम हुआ है, उसकी भी पड़ताल होनी चाहिए। आज के इप्टाकर्मियों को भी अपने अनुभव लिखने चाहिए।’ हिंदी के कवि कुमार अंबुज ने जन आंदोलनों में मध्य वर्ग की भूमिका का उल्लेख करते हुए कहा कि ‘पिछले बीस-पच्चीस सालों में जो नया मध्य वर्ग उभरा है उसके पास खोने के लिए बहुत कुछ है; यही मध्य वर्ग आज के दौर के जन आंदोलनों को लीड कर रहा है, इस द्वैत को समझने की जरूरत है।’ नाटक व जन आंदोलन के सहअस्तित्व का जिक्र करते हुए रंगकर्मी और फिल्म पटकथा लेखक अशोक मिश्र ने कहा कि ‘आज के समय में नाटक से कलाकारों का जीवकोपार्जन होना चाहिए और आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करके हमे नाटक को जन आंदोलन से जोड़ना चाहिए।’

इसी संदर्भ में ईश्वर दोस्त ने अपनी बात रखते हुए कहा कि ‘नाटक खुद अपने आप में जन आंदोलन है।’ उन्होंने आगे कहा कि ‘आज नाटक को लगातार गैर राजनीतिक बनाया जा रहा है।’ इप्टा को आज संस्कृति की राजनीति करने की जरूरत है।’ युवा कवि बसंत त्रिपाठी ने इस बात को आगे बढ़ाते हुए कहा कि ’हमें इस बात पर भी नजर रखनी होगी कि हमारे दौर की तमाम शक्तियाँ, जो खतरनाक हैं, क्या हमारे दौर की कला उन्हें उघाड़ने की कोशिश कर रही है?’ विनीत तिवारी ने कहा कि इप्टा ने हमें यह संस्कार दिये हैं कि जो हाथ रोटी बेलते हैं, हल चलाते हैं, मेहनत करते हैं वे ज़रूरत पड़ने कलात्मक काम भी कर सकते हैं चाहे वह नाटक हो या अन्य कला। उसी तरह कलात्मक संघर्ष में शरीक हैं वे वक्त पड़ने पर उसी कला को आंदोलन का औजार भी बना सकते हैं। छत्तीसगढ़ इप्टा से आये राजेश श्रीवास्तव व झारखण्ड इप्टा से आये उमेश नजीर ने भी जनांदोलनों के साथ इप्टा को नजदीक लाने की जरूरत पर जोर दिया। इस सत्र में नूर जहीर, शैलेन्द्र शैली, विजय दलाल, शिवेंद्र शुक्ला और जितेंद्र शर्मा ने भी अपने विचार रखते हुए विषय से जुड़े कई बिंदुओं पर चर्चा की। सत्र का संचालन इप्टा मध्य प्रदेश के अध्यक्ष हिमांशु राय ने व अध्यक्षता इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रणवीर सिंह ने की। सत्र समाप्ति से पहले सुश्री रामदुलारी शर्मा के नाटक ‘जालियाँ वाला बाग’ पुस्तक का विमोचन हुआ। इस वैचारिक सत्र के उपरांत प्रांजल श्रोत्रिय के निर्देशन में इंदौर रंगकर्मी साथियों ने कविता कोलाज की नुक्कड़ प्रस्तुति दी। इस सत्र में वरिष्ठ ट्रेड यूनियन नेता वसंत शिंत्रे, प्रख्यात कहानीकार महेश कटारे आदि की विशिष्ट उपस्थिति रही।

शाम चार बजे धर्मशाला से प्रमुख आयोजन स्थल आनंद मोहन माथुर सभागार जिसे हबीब तनवीर परिसर का नाम दिया गया था, तक एक जनगीत रैली निकाली गई। रैली का नेतृत्व प्रखर व वयोवृद्ध वामपंथी नेत्री कॉमरेड पेरीन दाजी, इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष श्री रणवीर सिंह, राष्ट्रीय महासचिव जितेन्द्र रघुवंशी, प्रदेश अध्यक्ष श्री हिमांशु राय, प्रदेश महासचिव श्री हरिओम राजोरिया, प्रलेसं के प्रदेश महासचिव विनीत तिवारी तथा श्रम संगठनों व अन्य प्रगतिशील संगठनों के पदाधिकारियों ने किया। रैली में पूरे प्रदेश व देश के विभिन्न हिस्सों से आए रंगकर्मी, लेखक, कलाकारों के साथ स्थानीय संस्कृतिकर्मी, श्रमिक, महिलाएं व छात्र शामिल थे। रैली में गुना, अशोकनगर, इंदौर, छतरपुर के साथियों ने जनगीत गये और साम्राज्यवाद व साम्प्रदायिकता के खिलाफ नारे बुलंद किए। इंदौर इप्टा ने यह रैली जानबूझकर ऐसे क्षेत्र में रखी थी जो कभी वामपंथी मजदूर राजनीति का मज़बूत गढ़ हुआ करता था लेकिन पिछले कुछ वर्षों में जहाँ साम्प्रदायिक राजनीति ने अपनी जड़ें जमा ली हैं। वर्षों बाद उस क्षेत्र में प्रगतिशील ताक़तों की एक प्रभावशाली रैली निकलने से क्षेत्र की जनता को भी सुखद आश्चर्य हुआ और बहुत से पुराने कॉमरेड अपने आप ही रैली में शरीक हो गए। रैली में चल रहे कलाकार कार्यक्र्रम स्थल पर पहुँचने तक जोश व उत्साह से भरे हुए थे। कार्यक्र्रम स्थल पर प्रख्यात रंगकर्मी सुश्री कीर्ति जैन और इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रणवीर सिंह ने जब मशाल जलाकर मध्य प्रदेश इप्टा के इस आठवें राज्य सम्मेलन का औपचारिक उद्घाटन किया तो यह जोश कई गुना बढ़ गया और काफी देर तक नारों और ढोल-ढमाकों से माहौल गूँजता रहा। ।

इन्दौर इप्टा के वरिष्ठ साथी व स्वागत समिति के अध्यक्ष आनंद मोहन माथुर ने सम्मेलन में शामिल सभी रंगकर्मियों, कलाधर्मियों को संबोधित करते हुए कहा कि हम लोग 1950 के दौर में इप्टा में सक्रिय थे। आज साठ साल लंबे अंतराल के बाद इप्टा में नये, युवा, सक्रिय और प्रतिबद्ध लोगों और इतनी शाखओं का विस्तार देखकर जीवन के कुछ हिस्से में सार्थकता का संतोष होता है। नजीर अकबराबादी की नज्म ‘आदमीनामा’ के साथ उत्पल बैनर्जी ने सांस्कृतिक कार्यक्रमों का शुभारंभ किया।

सोशल मीडिया और वर्चुअल स्पेस आज लोगों को वैचारिक रूप से प्रभावित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं और निश्चय ही जन आंदोलन भी इससे अछूते नहीं हैं। इस वर्चुअल स्पेस से जुड़कर लोगों के बीच इप्टा का वैचारिक पक्ष पहुंचाने, इप्टा की देशभर में होने वाली गतिविधियों को व्यापक प्रसार प्रदान करने के विचार के तहत इस अवसर पर इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रणवीर सिंह द्वारा इप्टा की वेबसाइट लॉन्च की गई। इत्तफाक और बिल्कुल सहजता से वहाँ पहुँचीं नादिरा जहीर बब्बर और जितेंद्र रघुवंशी ने ‘नाट्य आंदोलन के समक्ष चुनौतियां’ विषय पर अपने विचार रखे। तदुपरांत सुश्री कीर्ति जैन, ने जनांदोलन और नाटक व इप्टा को लेकर आत्मीय संबोधन दिया। कीर्तिजी ने अपनी माँ रेखा जैन व पिता नेमिचंद जैन, जो दोनों ही इप्टा की 1943 में शुरुआत से ही इप्टा के सेंट्रल स्क्वाड का हिस्सा थे, से जुड़े अनेक रोचक और प्रेरक प्रसंग सुनाये। इस सत्र में बीते दिनों दिवंगत हुए इप्टा के साथियों को श्रृद्धांजलि अर्पित की गई। इप्टा की सक्रिय साथी और प्रदेश कार्यकारिणी सदस्य ज्योति दीवान का पिछले दिनों अल्पायु में निधन हो गया। उन्हें याद किया गया। इसी क्रम में इप्टा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष ए.के. हंगल का रिकॉर्ड किया हुआ वीडियो इप्टा के साथियों के नाम संदेश दिखाया गया।

‘धरती के लाल’, ‘दो बीघा जमीन’ और ‘गर्म हवा’ के अंशों की दृश्य-श्रव्य प्रस्तुति के माध्यम से जया मेहता व विनीत तिवारी ने प्रख्यात अभिनेता बलराज साहनी के जीवन के विभिन्न कला व राजनीतिक पक्षों, जैसे इप्टा के प्रति उनका समर्पण व राजनीतिक प्रतिबद्धता, आदि पर प्रकाश डाला। इस प्रस्तुति के बाद मुंबई से आए श्री विजय हंगल ने अपने पिता ए.के. हंगल और बलराज साहनी से जुड़े अपने अनुभव साझा किए। अंत में सुश्री नगीन तनवीर एवं नया थियेटर के साथियों ने इप्टा के साथ अपनी एकजुटता जाहिर करते हुए ‘जनता के गीत’ शीर्षक से हबीब तनवीर, फैज अहमद फैज, मख्दूम, व अन्य शायरों के गीतों व गजलों की प्रभावी प्रस्तुति दी। इस सत्र का संचालन जया मेहता और विनीत तिवारी ने किया।

सम्मेलन का दूसरा दिन ‘महिलाओं की सांस्कृतिक आंदोलन में भूमिका’ विषय पर विचार सत्र के साथ प्रातः 10 बजे शुरू हुआ। सत्र की मुख्य वक्ता ख्यात रंगनिर्देशिका कीर्ति जैन एवं लेखिका नूर ज़हीर ने जहां रचनात्मक अभिव्यक्ति के द्वारा, फिर चाहे वह नाट्य प्रस्तुति हो या कहानी लेखन, स्त्री के नज़रिये को लोगों तक पहुंचाने पर ज़ोर दिया, तो अन्य वक्ताओं ने आंदोलन के भीतर, रचनाकर्म के दौरान स्त्रियों के प्रति संवेदनशीलता से जुड़े मसलों को रेखांकित किया। नूर ज़हीर ने तीन कहानियों और उनकी व्याख्या के बहाने से बताया कि किस तरह से न केवल कहानियों का कंटेंट बल्कि कहानियों को पढ़ते-सुनते समय उठने वाले सवालों के जवाब और कथ्य का विवेचन एक नारीवादी नज़रिये से समाज को देखने और समझने का एक अर्थपूर्ण तरीका हो सकता है।

नूर ज़हीर की ही बात को आगे बढ़ाते हुए कीर्ति जैन ने महिला निर्देशकों, ख़ासकर अनामिका हक्सर, माया राव, नीलम मानसिंह एवं अनुराधा कपूर के तथा स्वयं के काम करने के ढंग का उदाहरण देते हुए इस बात पर ज़ोर दिया कि महिला निर्देशकों का काम न केवल एक स्त्री के नज़रिये से नाटकों का एक पाठ प्रस्तुत करता है, बल्कि रचनाकर्म की प्रक्रिया में बहुस्तरीयता एवं सहकर्म को केन्द्रीय स्थान देने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। सवाल-जवाब के लंबे और जीवंत सिलसिले के दौरान दोनों वक्ताओं ने इस बात पर ख़ास ज़ोर दिया कि असल काम नज़रिये को सामने रखना है, एक वैकल्पिक विवेचन प्रस्तुत करना है, न कि किसी को कुछ सिखाना, क्योंकि सिखाया नहीं जा सकता। इस पर टिप्पणी करते हुए कल्पना मेहता ने कहा कि कला एक महत्वपूर्ण माध्यम है, परिवर्तन के लिए एवं आंदोलन को ऊर्जा देने के लिए, परंतु उसे आमजन की भाषा में होना चाहिए।

अपने व्यक्तिगत अनुभवों को साझा करते हुए अर्चना श्रीवास्तव और सीमा राजोरिया ने सांस्कृतिक आंदोलन से जुड़ी महिलाओं की भूमिका और आंदोलन में उनकी स्थिति तय करने में पारिवारिक एवं सामाजिक परिवेश की केन्द्रीयता को रेखांकित करते हुए महिलाओं के प्रति लोगों को संवेदनशील बनाने की दिशा में सांगठनिक स्तर पर कार्यक्रम और कार्यशालाएं करने की ज़रूरत पर ज़ोर दिया। सारिका श्रीवास्तव ने कहा कि महिलाओं की सबसे बड़ी भूमिका आंदोलन में और महिलाओं को लाने में है। इसके लिए उन्हें लोगों के बीच जाकर काम करना होगा। बातचीत में हिस्सा लेते हुए राजेश श्रीवास्तव तथा विजय दलाल ने कहा कि हमें उन महिलाओं के योगदान को भी रेखंाकित करना चाहिए जो पुरुषों को कई जिम्मेदारियों से मुक्त करते हुए इतनी आज़ादी देती हैं कि वे काम कर पाते हैं। मनीष श्रीवास्तव ने प्रगतिशील आंदोलनों के अंतर्विरोधों की ओर इशारा करते हुए कहा कि चूंकि हम अंततः उसी समाज के उत्पाद हैं जिसके विरुद्ध हम लड़ रहे हैं, इसलिए सांस्कृतिक जड़ताएं राजनैतिक समर्थन और समझदारी से नहीं तोड़ी जा सकतीं क्योंकि वे हमारे दैनिक जीवन के व्यवहार में घटित होती हैं। उससे निपटने के लिए संगठन के भीतर तथा बाहर सतत विमर्श एवं बहस की ज़रूरत है। सत्र की अध्यक्षता कर रहे जितेन्द्र रघुवंशी ने कहा कि मसला केवल सहानुभूति और एकजुटता का नहीं है, बल्कि भावनात्मक आत्मसातीकरण का है। उन्होंने कहा कि बावजूद इसके कि यह सार्वजनिक बहस का मसला है अधिकांश सवालों के जवाब हम सभी को निजी स्तर पर तलाशने होंगे, क्योंकि जब हम संस्कृति की बात करते हैं तो या तो कलारूपों की बात करते हैं या फिर रोज़मर्रा के व्यवहार की। हमारी चुनौती यह है कि हम कैसे इन दोनों पक्षों को एक स्त्री के नज़रिये से देख सकते हैं। सत्र के अंत मे सुलभा लागू ने धन्यवाद ज्ञापित किया।  दोनों दिन के कार्यक्रम में देश के प्रख्यात चित्रकार सावि सावरकर (दिल्ली) और मुकेश बिजौले (उज्जैन) ने एक कार्यकर्ता की तरह महत्त्वपूर्ण भागीदारी की। इप्टा से जुड़े रहे वैज्ञानिक चेतना फैलाने के मकसद से एक एक्टिविस्ट की तरह काम कर रहे अमिताभ पाण्डे ने जीवन और कला के प्रति वैज्ञानिक नजरिया विकसित करने की जरूरत पर जोर दिया।

इसके बाद आयोजित संगठन सत्र में मध्य प्रदेश इप्टा की नयी कार्यकारिणी का गठन किया गया जिसमें सर्वसम्मति से अशोकनगर इकाई के हरिओम राजोरिया को अध्यक्ष, इंदौर इकाई के विजय दलाल को उपाध्यक्ष एवं छतरपुर इकाई के शिवेंद्र शुक्ला को महासचिव चुना गया। इसके अतिरिक्त अध्यक्ष मण्डल में हिमांशु राय, जया मेहता, वी.के, नामदेव तथा डॉ. विद्याप्रकाश तथा सचिव मण्डल मे अनिल दुबे, सारिका श्रीवास्तव एवं दिनेश नायर मनोनीत किये गए। सर्वसम्मति से नीरज खरे को नया कोषाध्यक्ष चुना गया। इस सत्र में इप्टा ने प्रस्ताव पारित करते हुए इप्टा के सभी कलाकारों एवं संस्कृतिकर्मियों का आह्वान किया कि वे जन संस्कृति की रक्षा और संवर्धन हेतु हाशिए पर धकेल दिए गए वर्गों के हित में सामाजिक, वैज्ञानिक चेतना का प्रसार करें एवं लोककलाओं एवं लोक कलाकारों से अपने संबंध घनिष्ठ करें।

सम्मेलन का अंतिम सत्र जनगीतों की प्रस्तुति के साथ प्रारंभ हुआ, जिसके उपरांत इस सम्मेलन के अवसर पर प्रकाशित स्मारिका ‘नाव भी है तैयार’ का विमोचन इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रणवीर सिंह व राष्ट्रीय महासचिव जितेंद्र रघुवंशी ने किया। समापन करीब पांच घंटे तक चली गीतों एवं नाटकों की प्रस्तुतियों के साथ हुआ। इन नाटकों में वर्तमान शिक्षा व्यवस्था और उसमें गरीबों की स्थिति पर व्यंग्य करते हुए ‘इंडिया नाटक कंपनी’ के बाल कलाकारों ने भणई (पढ़ाई) प्रस्तुत किया। आदिवासी बच्चों की इस प्रस्तुति ने सैकड़ों दर्शकों से भरे सभागार को तो गँुजाया ही लेकिन वर्षों से थिएटर से जुड़े रहे अनेक विद्वानों को आश्चर्यचकित भी किया। यह आदिवासी बच्चे ज़मीनी आंदोलन में लगे आदिवासी मुक्ति संगठन के कार्यकताओं के बच्चे थे जिन्होंने आदिवासी होने के नाते जीवन के सहजतम रा और कला को आत्मसात किया हुआ है और प्रतिरोध और आंदोलन को भी जिन्हांने अपने जीवन की शुरुआत से ही देखा-समझा है। इसी तरह दूसरी प्रस्तुति भी देश में दमन और अनयाय के खिलाफ चल रहे एक अन्य जनांदोलन की थी। पुणे की जहांआरा ने पूर्वोत्तर राज्यों में आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट के तहत भारतीय सेना की गतिविधियों के विरोध में पिछले 12 साल से भूख हड़ताल कर रही इरोम शर्मिला के संघर्ष पर आधारित और ओजस द्वारा निर्देशित नाटक ‘ले मशालें’ की अत्यंत भावपूर्ण और स्तब्ध कर देने वाली एकल प्रस्तुति दी। इन दोनों नाटकों व इसके बाद हुई प्रस्तुतियों ने दर्शकों को और प्रतिभागियों को इप्टा और जनांदोलन के केन्द्रीय विषय को समझने व आत्मसात करने की कलात्मक अंतर्दृष्टि प्रदान की। चित्तप्रसाद, सुनील जाना, और बलराज साहनी से ए. के. हंगल तक के दौर के चित्रों से सजी पोस्टर प्रदर्शनी, फैज, मख्दूम और हबीब तनवीर के गीतों और इन नाटकों से यह स्पष्ट हो रहा था कि नाटक और जनांदोलन का समवेत अर्थ कलात्मक रूप में क्या हो सकता है।
इसके अतिरिक्त अशोकनगर इकाई ने शंकर शेष लिखित नाटक ‘पोस्टर’, गुना इकाई ने स्वदेश दीपक के ‘कोर्ट मार्शल’ तथा छतरपुर इकाई ने मुंशी प्रेमचंद की कहानी ‘बड़े भाई साहब’ का इसी शीर्षक से नाट्य रूपांतरण प्रस्तुत किया। इप्टा जेएनयू, दिल्ली से आए साथियों ने पुलिस की यंत्रणा झेल रही छत्तीसगढ़ की सोनी सोरी के पत्रों का नाटकीय पाठ प्रस्तुत किया और उसके समर्थन में पोस्टकार्ड कैम्पैन की गई।
सम्मेलन के समापन के अवसर पर इप्टा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रणवीर सिंह ने कहा कि भले ही यह मध्य प्रदेश इप्टा का राज्य सम्मेलन था किंतु जिस ढंग से सभी वैचारिक सत्रों, उद्बोधनों और प्रस्तुतियों में विषयों की बारीकी से पड़ताल करते हुए उन्हें व्यक्तिगत से लेकर अंतरराष्ट्रीय स्तर तक जोड़ा गया है, और जन आंदोलन को अहम बिंदु के रूप में उकेरा गया है, उस लिहाज से यह किसी भी राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन से कमतर नहीं कहा जा सकता। इप्टा के नाटक करने के उद्देश्य को कलात्मक तरह से रेखांकित करता आमंत्रण पत्र जो युद्ध विरोधी विरोधी कविताओं का आकर्षक प्रभावी कोलाज भी था, से लेकर एकलव्य व दानिश बुक्स द्वारा लगायी गई पुस्तकों की प्रदर्शनी, भोजन के स्थान पर लगे अन्न से संबंधित कविताओं के पोस्टर, सत्रों की योजना और कार्यक्रमों की प्रस्तुति, सब इतने करीने से आपस में जुड़ा और क्रमबद्ध और सुनियोजित था कि इससे मध्य प्रदेश इप्टा की वैचारिक व सांगठनिक ताकत स्पष्ट होती है। इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव जितेंद्र रघुवंशी ने कहा कि मध्य प्रदेश इप्टा का यह सम्मेलन इस बात का संकेत है कि रंग-संस्कृति पर हो रहे वर्तमान और भविष्य के राजनीतिक हमलों से निपटने और उनका जवाब देने के लिए हम तैयार हैं। इस सम्मेलन की सफलता आने वाले वक्त के लिए एक नई ऊर्जा है। अंत में इप्टा की इन्दौर इकाई के अध्यक्ष विजय दलाल और सहसचिव अरविंद पोरवाल ने सम्मेलन में शामिल सभी प्रतिभागियों का धन्यवाद ज्ञापन किया और सम्मेलन में आये सभी प्रतिभागियों ने सम्मेलन सफल बनाने में मुख्य भूमिका निभाने के लिए इंदौर इकाई के सचिव अशोक दुबे और कोषाध्यक्ष प्रमोद बागड़ी का अभिनंदन किया।

(हरिओम राजोरिया, मनीष श्रीवास्तव, रजनीश श्रीवास्तव व विनीत तिवारी द्वारा तैयार)

Friday, October 12, 2012

जातियों के झगड़े में हिंदी जाति


-अरुण कुमार त्रिपाठी

भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के नेता अतुल कुमार अनजान ने एक दिन बहुत बेचैनी के साथ फोन किया। कहने लगे, आर्थिक सुधारों के माध्यम से साम्राज्यवादी हमले बढ़ रहे हैं। हम लोगों को सोशलिस्ट-कम्युनिस्ट एकता के लिए काम करना चाहिए। फिर बोले, इस बारे में मधु लिमये की किताब ‘सोशलिस्ट कम्युनिस्ट इंटरैक्शन इन इंडिया’ एक मार्गदर्शक साबित हो सकती है। फिर उन्होंने बताया कि किस तरह से उन्होंने मधु लिमये की उस समय मदद की थी जब वे उस किताब को लिख रहे थे।अनजान ने बताया कि उन्होंने लिमये को ‘पीपुल्स डेमोक्रेसी’ और ‘न्यू एज’ और ‘जनयुग’ के अंक लाकर दिए थे। ऐसा ही कुछ अनुभव अर्थशास्त्री गिरीश मिश्र ने बताया है जब उन्होंने डॉ राममनोहर लोहिया पर किताब लिखी थी। उनकी मधु लिमये ने मदद की थी। और बाद में जिस प्रकार अन्य समाजवादियों ने मिश्र पर आलोचनात्मक हमला बोला था वैसा उन्होंने कुछ भी नहीं किया था। बल्कि मधु जी ने उस किताब को एक अकादमिक आलोचना के भाव से ही लिया था।


"रामविलास शर्मा ने निश्चित तौर पर भारतीय संदर्भ में मार्क्सवाद को लागू करने और उसकी व्याख्या करने की कोशिश की। उनका चिंतन यूरोपीय नकल नहीं, भारतीय स्वाभिमान पर आधारित है। यही कारण है कि उन्होंने आखिर में गांधी, लोहिया और आंबेडकर पर विचार करते हुए भारतीय इतिहास की समस्याओं पर नजर डाली। मजेदार बात यह है कि उन्होंने इन महान विभूतियों पर विचार करते समय डॉ लोहिया को इन दोनों से अलग बताया। उनका कहना था कि आंबेडकर और गांधी दोनों वर्ग संघर्ष के सिद्धांत के पास जाकर खड़े होते हैं जबकि लोहिया उनसे दूर हैं।"


संवाद की इसी भावना की तलाश में डॉ रामविलास शर्मा जन्मशती समारोह के आयोजन में चला गया। आगरा के केंद्रीय हिंदी संस्थान में यहां के स्थानीय नागरिकों के सहयोग से आयोजित इस समारोह में बेहद सादगी से देश के जाने-माने हिंदी आलोचकों और विद्वानों ने हिस्सा लिया और डॉ रामविलास शर्मा के जीवन और कृतित्व पर तीन सत्रों में गहन चर्चा की। इन चर्चाओं में मैनेजर पांडे, डॉ शंभुनाथ, अवधेश प्रधान, प्रोफेसर रविभूषण और जितेंद्र रघुवंशी ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया।

रामविलास शर्मा की हिंदी जाति की अवधारणा और औपनिवेशिक दासता से मुक्ति संबंधी विमर्श ने यह साबित किया कि वे महज हिंदी के आलोचक नहीं थे बल्कि हिंदी समाज, भारतीय राजनीति और विश्व राजनीति के अध्येता और विचारक भी थे। सचमुच उनके चिंतन और लेखन का दायरा इतना बड़ा है कि राहुल सांकृत्यायन के अलावा कोई उनका सानी नहीं है और रामविलास जी भी किसी और को आसपास पाते नहीं थे। फर्क यही है कि राहुल सांकृत्यायन के पैरों तले पूरी दुनिया रहती थी और उनकी अथातो घुमक्कड़ जिज्ञासा से हिंदी समाज चकित था, जबकि रामविलास शर्मा घर से बाहर ही नहीं निकलते थे और उनकी इस अनुपस्थिति को हिंदी समाज अक्सर महसूस करता था। उनकी यह प्रवृत्ति उन्हें ज्यादा से ज्यादा काम करने में सहायता करती थी लेकिन कई बार जमीनी हकीकत से काट भी देती थी। यही वजह है कि उनके कई सिद्धांत बंद कमरे में बैठ कर गढ़े लगते हैं और जमीन पर उन्हें उतारने में दिक्कत नजर आती है।

डॉ शर्मा कभी विदेश नहीं गए। जिस जमाने में वामपंथ के प्रति सामान्य रुझान भी किसी को सोवियत संघ और पूर्वी यूरोपके कम्युनिस्ट देशों का वीजा दिलाने के लिए काफी था उस समय भी उनका वीजा रोक दिया गया। वे कभी लंदन भी नहीं गए तो अमेरिका जाने का सवाल ही नहीं पैदा होता। लेकिन उन्होंने अपने लेखन में इसकी कमी नहीं महसूस होने दी। उनके बेटे विजय मोहन बताते हैं कि जब वे लंदन में थे तो उनके पिताजी जो पत्र लिखते थे उनमें लंदन के पुस्तकालय और स्मारकों की ऐसी जानकारियां होती थीं जो वे वहां रह कर भी नहीं रखते थे।

रामविलास जी ने विदेश यात्रा की इस कमी को अध्ययन से पूरा ही नहीं किया बल्कि वे किसी भी घुमक्कड़ से ज्यादा दुनिया की परिक्रमा कर आए और विदेश यात्रा के लिए की जाने वाली तमाम बेइमानियां और तिकड़म उन्हें छू नहीं गए। यही कारण है कि उन्होंने पूंजीवाद पर लगातार हमला किया और अपने कम्युनिस्ट साथियों को भी मौका पड़ने पर नहीं बख्शा। अपनी इसी ईमानदारी के कारण वे औपनिवेशिक दासता के विमर्श को ज्यादा धारदार तरीके से चला सके जिसे चलाते समय तमाम कम्युनिस्ट नेता और विचारक लड़खड़ा जाया करते थे।

इसकी वजह उनकी ईमानदारी के साथ उनका हिंदी क्षेत्र के उस स्थान से संबंधित होना भी था जिसने 1857 में सबसे कठिन संघर्ष किया था और सबसे बुरी तरह दमन झेला था। रामविलास शर्मा के इतिहास लेखन और उनके राजनीतिक विमर्श को स्थापित विश्वविद्यालय और उनके इतिहासकार कितना स्थान देंगे यह तो समय बताएगा, लेकिन उन्होंने उन तमाम लोगों के दिलो-दिमाग में जगह बना ली है जिन्हें अपने समाज के लिए समझदार और ईमानदार नजरिए की तलाश है। वे सत्तावनवादी थे और उनकी इसी दृष्टि ने उनके लेखन और विमर्श के विभिन्न आयामों को संचालित किया। बाद में जब उनके जीवनकाल में उदारीकरण और वैश्वीकरण के बहाने पूंजीवाद ने नया जाल फैलाया तो उनकी बात न सिर्फ प्रासंगिक हुई बल्कि नई ताकत के साथ उभरी। यह हैरानी की बात है कि जिस तरह का शोध प्रबंध सुरेंद्रनाथ सेन जैसे इतिहासकार राष्ट्रीय अभिलेखागार के महानिदेशक होकर नहीं लिख पाए उससे कई गुना बेहतर काम उन्होंने बिना संसाधन के कर दिया।
आज जब उदारीकरण विफल होते हुए भी जनता के संसाधनों पर पूंजीवादी कब्जे को बढ़ावा दे रहा है, सुधार के नाम पर आम जनता को नए-नए तरह के कष्ट दे रहा है, तब उनकी चिंताएं और भी प्रासंगिक होती जा रही हैं।

डॉ रामविलास शर्मा की चिंताएं सही लगती हैं और उनके विश्लेषण को बाद में अंग्रेजी में इतिहास लिखने वाले तमाम लोग आधार भी बनाते हैं। जबकि डॉ शर्मा अंग्रेजी के विद्वान होते हुए भी अंग्रेजी में लिखने को तैयार नहीं थे।उनका यही संकल्प उन्हें हिंदी जाति का महान विचारक और उसके सिद्धांतकार के तौर पर भी स्थापित करता है। पर मुश्किल यह है कि विदेशी पूंजी और अंग्रेजी भाषा के नए हमले से हिंदी और देश को बचाने के लिए वे जिस विकल्प का सुझाव देते हैं वह व्यावहारिक दिखता नहीं। यही कारण है कि उनके बारे में पंकज सिंह जैसे कवि और बौद्धिक का कहना है कि डॉ शर्मा जितने बड़े बौद्धिक थे उनकी भूलें भी उतनी ही बड़ी हैं।
रामविलास जी की हिंदी जाति की अवधारणा को तमाम लोगों ने हिंदी इलाके की भोजपुरी, मैथिली, बुंदेलखंडी, मारवाड़ी, मगही, बज्जिका, कुमाऊंनी, गढ़वाली और छत्तीसगढ़ और झारखंड की तमाम बोलियों और भाषाओं की स्वायत्तता का हवाला देकर खारिज कर दिया था। जाहिर है, उनकी यह अवधारणा सोवियत संघ के तानाशाह शासक स्तालिन की रूसी राष्ट्रीयता की अवधारणा से प्रेरित थी। लेकिन उनकी हिंदी जाति की अवधारणा को बोलियों और भाषाओं से ज्यादा हिंदी प्रदेशों की सामाजिक जातियों के विद्रोह ने चुनौती दे रखी है। उनको इस इलाके में पनपी जातिवादी और सांप्रदायिक राजनीति के पतन का अहसास तो था तभी उन्होंने इस पूरे इलाके को एक करने और कई हिंदी प्रदेशों को मिला कर एक प्रदेश बनाने की बात कर डाली थी।
लेकिन वर्ग संघर्ष के सिद्धांत में अटूट आस्था रखने वाले रामविलास शर्मा इस इलाके की राजनीति, साहित्य और अर्थनीति में जाति के योगदान और उसके हस्तक्षेप को अच्छी तरह से समझ नहीं सके या उसमें उतर कर उससे निकलने का रास्ता बताने का साहस नहीं कर सके। वे होते तो आज यह देख कर और विचलित होते कि जिस हिंदी आलोचना को वे अपने विपुल लेखन से तराश रहे थे उसमें अब दलित विमर्श के साथ अन्य जातिवादी विमर्श प्रचंड हो गए हैं।

कबीर और प्रेमचंद के बहाने डॉ धर्मवीर ने हिंदी के तमाम आलोचकों पर जो प्रहार किए हैं उससे बड़े-बड़े लोग भागते घूम रहे हैं। वे प्रतिक्रिया जताने का साहस नहीं करते। आज अगर डॉ शर्मा होते तो उन पर कैसी प्रतिक्रिया करते यह सोचने लायक विषय है। संभव है वे हिंदी के तमाम आलोचकों की तरह से मौन रहने के बजाय विमर्श में जरूर उतरते, बिना इस बात की परवाह किए कि इससे क्या फर्क पड़ता है।

यह भी देखने लायक होता कि अंग्रेजी देवी का मंदिर बनवाने और मैकाले की जयंती मनाने में लगे दलित बौद्धिकों के बारे में वे क्या कहते। हालांकि दलित बौद्धिक तो अस्मिता के कारण मांस-भक्षण के कार्यक्रम से लेकर इस तरह का कार्यक्रम कर रहे हैं, जबकि सवर्ण बौद्धिक बिना इस तरह का कार्यक्रम लिए वही सब कर रहा है। वह भी रोज मैकाले की पूजा करता है और अंग्रेजी देवी की प्रतिमा दिल में स्थापित करता है।
रामविलास शर्मा ने निश्चित तौर पर भारतीय संदर्भ में मार्क्सवाद को लागू करने और उसकी व्याख्या करने की कोशिश की। उनका चिंतन यूरोपीय नकल नहीं, भारतीय स्वाभिमान पर आधारित है। यही कारण है कि उन्होंने आखिर में गांधी, लोहिया और आंबेडकर पर विचार करते हुए भारतीय इतिहास की समस्याओं पर नजर डाली। मजेदार बात यह है कि उन्होंने इन महान विभूतियों पर विचार करते समय डॉ लोहिया को इन दोनों से अलग बताया। उनका कहना था कि आंबेडकर और गांधी दोनों वर्ग संघर्ष के सिद्धांत के पास जाकर खड़े होते हैं जबकि लोहिया उनसे दूर हैं।

उन्होंने आंबेडकर में भी औपनिवेशिक दासता के खिलाफ विमर्श के सूत्र ढूंढ़ निकाले और लोहिया को महज मध्य जातियो तक केंद्रित बताया। जबकि गौर से देखें तो आंबेडकर और गांधी के अंतर्विरोध के बीच अगर कोई सेतु है तो वह लोहिया ही हैं। इन दोनों से उम्र में काफी कम होने और जेल जाने और संघर्ष करने में बेजोड़ होने के साथ उन्होंने जातिगत दासता और औपनिवेशिक दासता दोनों के खिलाफ लड़ने की सैद्धांतिक ही नहीं व्यावहारिक जरूरत पर जोर दिया।

लोहिया अगर प्रासंगिक हैं तो महज आरक्षण के सिद्धांत के कारण नहीं बल्कि अपनी विश्व-दृष्टि के कारण, जिन्होंने समाजवाद को उसी तरह गांधी के व्यवहार के माध्यम से भारतीय रूप देने की कोशिश की जिस तरह रामविलास शर्मा ने मार्क्सवाद को भारतीय विद्रोह की परंपरा से जोड़ कर नया रूप दिया। रामविलास जी हिंदी के सवाल पर भी लोहिया के बहुत पास बैठते हैं।

आज सवाल यह है कि समाजवादी ब्राह्मण और दलित ब्राह्मण जैसे संगठनों में विभाजित हिंदी इलाके की स्थिति को देख कर औपनिवेशिक विमर्श को छोड़ दिया जाए या फिर इसी बीच से नए समाज की संरचना का संघर्ष तलाशा जाए। रामविलास शर्मा के चिंतन में जमीनी हकीकत की तमाम अनदेखी के बावजूद हिंदी समाज और व्यापक भारतीय समाज के लिए बहुत ऊर्जा है। आज गांधी, लोहिया और आंबेडकर जितने प्रासंगिक हैं उतने ही रामविलास शर्मा। अतुल अनजान की बेचैनी गलत नहीं थी कि सोशलिस्ट-कम्युनिस्ट संवाद ही इस इलाके को सही दिशा देने का तरीका है।

-जनसत्ता से साभार

Thursday, October 11, 2012

Tribute to the Legendary-Personality of Street-Theatre Sardar Gursharan Singh

Kapurthala(Punjab)  :  IPTA-Punjab & IPTA-Chandigarh  paid  a rich tribute to the Legendary-personality of Street-theatre and eminent playwright Bha ji Gursharan Singh by organising a series of functions of his plays at  variours villages including Morron (Distt. Shaheed Bhagat Singh Nagar), Ikkolaha (Distt. Fatehgarh Saheb) and  Rasulpur (Distt.  Roopnagar) by different theatre-clubs affiliated with Ipta-Punjab like Ipta-RCF, Kapurthala(Director : Mr. Inderjit Rupowali), Pragati Kala Kender, Landhran(Dirctors : Mr. Sodhi Rana &  Mr. Makhan Kranti) and Sajri Saver Kala Kender, Morinda(Director : Mr. Rabinder Singh Rabbi) in 4-days Gursharan Singh Memorial functions. It was culminated in a big show of  a state level   function  organised on 25th September, 2012 jointy by Ipta-RCF,Kapurthala, Ipta-Kapurthala & RCF Cultural Society, Kapurthala. Mr. Inderjit Rupowali, Co-ordinator of Doaaba region of Ipta-Punjab was the main organiser and spirit behind this huge show. The  function was held at Waris Shah Auditorium of RCF, Kapurthala. it was devided into two sessions.

In the first session, A seminar was conducted regarding the life and contribution of S. Gursharan Singh in the field of theatre, who dedicated himself to awake the downtrodden and under-previlied strata of the society through the media of theatre. This session was started at 4.00 PM. It was presided over by a presidium comprised of  eminent personalities related with theatre including veterans like Mr. Gurcharan Singh Boparai & Mr. Sawarn Singh, who were amongst the founders of Punjab-ipta alongwith Late Tera Singh Chann, Late Joginder Baharla, Late Niranjan Mann,  Late Harnam Singh Narula , Late Hukam Chand  Jaleeli, Late Jagdeesh Fariyadi, Nightingale of Punjab Late Mrs. Surinder Kaur and many more, and Mr. Fulwant Singh Manocha, Co-ordinator of Puaadh region of Punjab-ipta, Mr. Hansa Singh Beaas, Co-ordinator of Majha region of Punjab-ipta, Mr. Balkar Sidhu, Senior Vice-President of Punjab-Ipta (Also General Secretary of Chandigarh-ipta & Member of National Committee of ipta), Mr. Rabbinder Singh Rabbi, Co-Co-ordinator of Puaadh region of Punjab-ipta, Mr. Chann Momi, famous poet and Mr. Surjit Lahoria. Various speakers including Mrs. Suman Lata, Mr. Inderjit Rupowali, Mr. Roop Lal Dheer, Mr. Dharam pal Painther, Mr. Gurmukh Singh Dhod, Mr. Balbir Sudan, Mr. Makhan Kranti, Mr. Sodhi Rana, Mr. Amrik Singh besides presidium expressed their views regarding the contribution of Mr. Gursharan Singh in vaious fields including theatre, left ideaology, left politics, publication, literature and trade union fronts. They also shared with the audience their personal experiences they had experienced during theatrical activities with him. To make the seminar more interesting a few musical items were presented in-between. Folk Singer Barjinder Singh,  Bisharat Maseeh  and others sang  revolutionary songs.  A Special Programme of songs  related with Ipta's old times  was presented by Mr. Gurcharan Singh Boparai and Mr. Sawarn Singh. Mr. Gurmel Sham Nagar conducted the seminar very well.

Mr. Fulwant Singh Manocha re-collected his memoirs with Mr. Gursharan Singh for the period during which both of them had worked together at Bhakhra Dam Project at Nangal. He narrated how Gursharan bha ji joined first time the Bhangra-team of Bhakhra Nangal Cultural Club and later on his inclination towards theatre. Deewa Bhujh Geya was his first play in which Bha ji  had acted, followed by  Lohri Di Hartaal  and then his theatrical activities picked up the tempo and there was no need to look back then. Mr. Gursharan Singh firstly established Amritsar Naatak Kala Kender, then Amritsar School of Drama. During traumatic peroid of Punjab terrorism, he had shifted his headquarter to Chandigarh and estblished Chandigarh School of Drama, to which he had been giving his guide-lines till he breathed his last. Mr. Hansa Singh Beaas also spoke about his association with Gursharan bha ji during the traumatic period. He said that Mr. Gursharan Singh was the spirit behind the constitution of Revolutionary Centre  and Punjab Lok Sabhyachaarak Manch. Bha ji raised his voice against state-terrorism and terrorism by terrosists simultaneously during those periods.

Mr. Balkar Sidhu elaborated, while addressing the audience, that  Mr. Gursharan Singh was very much influnced with the ipta movement. He was the youngest person who joined Communist Party of India in 1944. His elder brother Mr. Inderjit Singh was amongst the persons who went to Calcutta to tender helping hand to the victims of 1942-43 Bengal-famine. After coming back to Punjab, he narrated young Bha ji about the role of ipta-movement  played during that Bengal-famine. His home had become the meeting place of the persons, writers and artists committed with progressive idealogy. The rehearsals of Punjab-ipta's operas on world-peace by Mr. Joginder Bahrla  and Mr. Tera Singh Chann were held at his residence at Amritsar.  During partition of India, he had seen how ipta-people were trying their best to maintain communal-harmony amongst different religious communities. Later on when He himself started theatrical activities during his service, he took  the legacy of ipta-movement forward  with a different name.  He was of the view that we should build a society with such a system, in which every body should get equal opportunities & Woman should get respectful place in society.

Mr. Rabbinder Singh Rabbi spoke about the  theatrical intricacies he had learnt from Bha ji. Mr. Sodhi  Rana and Mr. Makhan Kranti  said that they are following the foot-steps of Gursharan Bha ji. As bha ji had been giving stress upon the upliftment of lower strata of society  by awakening them through theatre, so they have been doing theatre to make aware the downtrodden about the ideaology of Great Martyr Bhagat Singh and Dr. B.R. Ambedkar. Mrs. Suman Lata narrated about another aspect of Gursharan Bha ji's personality. She  told that she had been associated with Bha ji during the editing and distribution of  magazines of left-ideaology named Sardal and Samta, which were edited and got published by Gursharan bha ji. On this occasion  People's Singer Octogenarian S. Amarjit Singh Gurdaspuri was honoured for his life-time achievements & contribution for Punjab-ipta. A Citation depicting Amarjit Gurdaspur's achievements and contribution was read on this occasion by Mr. Gurmukh Singh Dhod, which was written by  Mr. Sanjeevan Singh, General Secretary of Punjab-ipta, who could not attend the function due to his illness. Mr. Gurcharan Boparai and Sawarn Singh received a shawl and a momento on Mr. Amarjit Gurdaspuri's behalf  from Mr. Balkar Sidhu, Senior Vice-President of Punjab-ipta.

                                 
Second session of the function was  for the presentation of theatrial items. Secretary W.W.O., RCF, Kapurthala Ms. Bharati inagurated the function by setting light the candles. State awardee Mr. Raushan Khera, Deputy C.M.S. Mr. J.S. Arora,  S.P.O. Mr. Dinesh Mandal,  A.P.O. Mr. Kirpal Singh,  S.E.E. Mr. Raghbir Singh, C.P.O. Mr. C.L. Bharati and other officers of R.C.F. were the dignitaries, who graced the function with their benign presence and healthy co-operation for the encouragement of the artists. Pragati Kala Kender, Landhran presented the play Mochi Da Putt, which was adapted by Late Gursharan Singh from a story of the same title written by Mr. Mohan Lal Philauria  and wonderfully directed by Mr. Sodhi Rana and Mr. Makhan Karanti. It depicted the dignity of work. It was followed by an other play titled Raahat, which was again written by Gursharan bha ji and well directed by Inderjit Rupowali, it was a presentation of Lok Kala Manch, R.C.F. Kapurthala. It depicted the superflous relief-measures taken by politicians and government officers for the victims of floods. Then came a beautiful choreography  Dhee Di Pukar. An other choreographed item showing the life history of Martyr Bhagat Singh got a tremendous applause from the audience. Its presentation was based on  the use of unique  style of folk dance Giddha with revolutionary Bolis. In the end, the participating artists were given mementos  by the dignatories and also the persons, who had done hard work to make this function a great success  like  Mr. Jatinder Bhatti, Mr. Gurmej Sham Nagar, Mr. Surjit Lahoria, Mr. Roop Singh Pardesi, Mr. Jaswant Saini, Mr. Krishan Jassal,  Mr. Ranjit Singh, Mr. Mewa Singh, Mr. R.K. Mehta, Comrate Mukand, Mr. Bikram  Singh, Mr. Kashmiri lal, Mrs. Sawanpreet Kaur, Mr. Taranjit Singh, Mr. Saranjit Singh  and Ms. Priya were specially thanked by the organisers.


Tuesday, October 9, 2012

प्रगतिशील आन्दोलन के महत्वपूर्ण स्तम्भ श्री रामशरण शर्मा 'मुंशी' का अवसान

डॉ. रामविलास शर्मा के भाई और प्रगतिशील आन्दोलन के एक महत्वपूर्ण स्तम्भ श्री रामशरण शर्मा 'मुंशी' का अवसान...

 ४ अक्टूबर की सुबह हिन्दी साहित्य के प्रगतिशील आन्दोलन के एक महत्वपूर्ण स्तम्भ श्री रामशरण शर्मा'मुंशी ने दुनिया को अलविदा कहा. ९० वर्ष की आयु में भी वे जितनी उत्कट जिजीविषा से भरे हुए थे, उसे पिछली २२ जुलाई को दिल्ली के साहित्य अकादमी हाल में जन संस्कृति मंच द्वारा आयोजित 'रामविलास शर्मा जन्मशती' के अवसर पर उपस्थित कई पीढ़ियों के साहित्यानुरागियों और संस्कृति-प्रेमियों ने साक्षात देखा था. अस्वस्थ होने के बावजूद बेटे बहू के साथ कार्यक्रम में पहुंचकर उन्होंने हमें सुखद रूप से चौंका दिया था. अपने जीवन के सर्वोत्तम वर्ष उन्होंने कम्यूनिस्ट पार्टी को दिए, पूर्णकालिक तौर पर, बीमारी और अभाव में रह कर भी. हाल-हाल तक भी उन्हें देखकर और सुनकर कोई जान सकता था की सादगी, विनम्रता और विचारों में दृढ़ता कम्यूनिस्ट मूल्य हैं जिन्हें वे जीते थे. साम्राज्यवाद और सामंतवाद का आजीवन विरोध उन्होंने एक सच्चे कम्यूनिस्ट देशभक्त की तरह किया और इन अर्थों में वे सर्वाधिक रामविलास शर्मा के सहोदर थे. वे भारत के कम्यूनिस्ट आन्दोलन और साहित्य में प्रगतिशील आन्दोलन के जीवंत यादों के चलते-फिरते कोष थे जिससे अचानक वंचित हो जाना सभी वाम संस्कृतिकर्मियों की भारी क्षति है. कल रात रामविलास जी के सुपुत्र श्री विजयमोहन जी बता रहे थे कि १० अक्टूबर को दिल्ली में होनेवाले 'रामविलास शर्मा जन्मशती आयोजन' को लेकर वे खूब उत्साह में थे. क्यों न होते? रामविलास शर्मा के भाई तो थे ही, उनके वैचारिक और रचनात्मक सहयोगी भी थे और उनके न रहने के बाद 'रामविलास शर्मा' फौन्डेशन और शर्मा परिवार के अभिभावक भी. लेकिन कुछ दिन पहले ही वे गिर पड़े थे और फिर स्वस्थ न हो सके.

रामशरण शर्मा 'मुंशी' उन विलक्षण लोगों में थे जिन्होंने कम्यूनिस्ट आन्दोलन और प्रगतिशील साहित्य में अपना योगदान ज़्यादातर नेपथ्य में रहकर किया , जबकि 'इप्टा' में नाटकों में वे नेपथ्य में रहकर नहीं, खुले मंच पर अभिनय करते थे. इप्टा, प्रगतिशील लेखक संघ , कम्यूनिस्ट पार्टी से निकलनेवाले पत्र 'जनयुग' के सम्पादन और पी.पी.एच. के ज़रिए प्रगतिशील साहित्य के नियमित प्रकाशन में उन्होंने जो जिम्मेदारियां निभाईं, वे उनके समय के किसी भी रचनाकार से कम प्रतिभा और प्रतिबद्धता की मांग नहीं करती थीं. शंकर शैलेन्द्र तो शायद उनके सबसे घनिष्ठ मित्र थे ही , लेकिन शमशेर, नरोत्तम नागर, नागार्जुन भी कम आत्मीय न थे. निराला जी की 'राम की शक्तिपूजा' का पाठ , लोगों का कहना है कि मुंशी जी लगभग वैसा ही करते थे जैसा उन्होंने निराला से सुना होगा. केदार नाथ अग्रवाल , अमृतलाल नागर, राहुल, यशपाल से लेकर राजेन्द्र यादव, नामवर सिंह तक न जाने कितने तब के प्रगतिशील लेखकों से उनका काम-काज का घनिष्ठ सम्बन्ध रहा, बाद की पीढी के विश्वनाथ त्रिपाठी, नित्यानंद तिवारी, मुरली बाबू , मैनेजर पाण्डेय , रविभूषण आदि उनके स्नेह के सदा ही पात्र रहे.

मुंशी जी श्रेष्ठ अनुवादक और सम्पादक थे. अनुमान किया जा सकता है कि उनके खुद के किए अनुवादों (जिनमें उनका नाम छपा है जैसे कि पी.पी.एच से प्रकाशित डायसन कार्टर की पुस्तक 'सिन एंड साइंस' का अनुवाद 'पाप और विज्ञान' आदि ) से कहीं ज़्यादा अनुवाद ऐसे होंगे जो दूसरों के नाम से निकले होंगे लेकिन ज़्यादा काम मुंशी जी का रहा होगा. राजेन्द्र यादव ने लिखा है कि फाद्येव के रूसी उपन्यास 'मोटर आफ हार्ट' का अनुवाद उन्होंने मुंशी जी के साथ बैठ कर किया था क्योंकि तब पी.पी.एच. में ये रिवाज़ था कि जिस मूल भाषा से अनुवाद किया जाना है उस मूल भाषा के जानकार के साथ बैठना ज़रूरी था. मुंशी जी के साथ इसीलिए बैठना ज़रूरी था कि वे रूसी भाषा के अच्छे जानकार थे. मुंशी जी की 'लाईमलाईट' से अलग रहने की प्रवृत्ति का एक उदाहरण था ६० के दशक में नरोत्तम नागर द्वारा संपादित 'दिल्ली टाइम्स' के अंतिम पेज पर उनके द्वारा उपनाम से लिखना ताकि सम्पादक को सुविधा रहे कि वह जब न चाहे तो न छापे और दुनिया को पता भी न चले. मुंशी जी बतौर लेखक तब भी प्रतिष्ठित नाम थे, अपने नाम से लिखते तो न छाप पाने की दशा में उनके आत्मीय सम्पादक-मित्र की किरकिरी होती.

मुंशी जी सम्पादक कैसे थे ये 'जनयुग' के तब के अंकों से ही नहीं, उनके द्वारा पुष्पलता जैन के साथ मिलकर पी.पी.एच . से निकले ' 'राहुल स्मृति' शीर्षक ग्रन्थ से ही नहीं, बल्कि सर्वाधिक उनके ही उन संस्मरणों से पता चलता है जिनमें वे बताते हैं कि ' बाल जीवनी माला' के तहत निराला पर रामविलास शर्मा, प्रेमचंद पर नागार्जुन और राहुल पर भदंत आनंद कौसल्यायन से उन्होंने कैसे कैसे लिखवाया या फिर 'जनयुग' में किन हिकमतों से वे नागार्जुन से लिखवाते थे. नागार्जुन पर उनके संस्मरणात्मक लेख से पता चलता है कि उनका आलोचना-विवेक कितना गहरा था.

मुंशी जी का परिवार भी उनके और उनकी जीवन-संगिनी धन्नो जी के संस्कारों की गवाही देता है-बेटे, बेटी, बहू सब. धन्नो जी खुद कम्यूनिस्ट आन्दोलन से जुडी रहीं. एक समय वे भारत की कम्यूनिस्ट पार्टी की उत्तर प्रदेश इकाई के कंट्रोल कमीशन की सदस्य रहीं, कामरेड रुस्तम सैटिन के साथ. मुंशी जी का जाना उनके परिजन , वाम आन्दोलन और तमाम जनधर्मी सांस्कृतिक आन्दोलन की भारी क्षति है.

तमाम लेखक उनके बारे में समय समय पर लिखते हुए यह लिखना नहीं भूले है कि वे रामविलास शर्मा के भाई थे. रामविलास जी भले ही अपने बड़े भाई से भावनात्मक रूप से सर्वाधिक जुड़े हुए थे, लेकिन उनके वैचारिक 'संगतकार' तो 'मुंशी' जी थे. ये सिर्फ कयास लगाने की ही बात है कि खुद रामविलास जी के बनने में मुंशी जी की क्या भूमिका रही होगी. याद आती है मंगलेश डबराल की कविता 'संगतकार' जिसके सभी आशयों/अभिप्रायों में मुंशी जी और रामविलास जी का सम्बन्ध भले ही संगत न हो, लेकिन कुछ आशयों में ज़रूर ही ऐसा है-

मुख्य गायक के चट्टान जैसे भारी स्वर का साथ देती
वह आवाज़ सुंदर कमजोर काँपती हुई थी
वह मुख्य गायक का छोटा भाई है
या उसका शिष्य
या पैदल चलकर सीखने आने वाला दूर का कोई रिश्तेदार
मुख्य गायक की गरज़ में
वह अपनी गूँज मिलाता आया है प्राचीन काल से


तारसप्तक में जब बैठने लगता है उसका गला
प्रेरणा साथ छोड़ती हुई उत्साह अस्त होता हुआ
आवाज़ से राख जैसा कुछ गिरता हुआ
तभी मुख्य गायक को ढाढस बँधाता
कहीं से चला आता है संगतकार का स्वर

कभी-कभी वह यों ही दे देता है उसका साथ
यह बताने के लिए कि वह अकेला नहीं है
और यह कि फिर से गाया जा सकता है
गाया जा चुका राग
और उसकी आवाज़ में जो एक हिचक साफ़ सुनाई देती है
या अपने स्वर को ऊँचा न उठाने की जो कोशिश है
उसे विफलता नहीं
उसकी मनुष्यता समझा जाना चाहिए।



जन संस्कृति मंच मुंशी जी के अवसान के दुःख में उनके परिजन और तमाम प्रगतिशील जमात के साथ है, इस मनुष्यद्रोही युग में उनके समाजवादी जीवन-मूल्यों को आगे लेते जाने के लिए कृतसंकल्प है.

मुंशी जी को लाल सलाम!

(प्रणय कृष्ण, महासचिव, जन संस्कृति मंच द्वारा जारी)