Monday, January 21, 2013

रायपुर इप्टा का 'मुक्तिबोधी' नाट्य समारोह


इप्टानामा के लिये संजय पराते की रिपोर्ट

ह रायपुर इप्टा द्वारा आयोजित 'मुक्तिबोध राष्ट्रीय नाटय समारोह' (11-15 जनवरी, 2013) का 16वां आयोजन था। 16वां वर्ष किशोरावस्था से वयस्कता की ओर संक्रमण की अवस्था होती हैं। अपनी तमाम छोटी-मोटी कमजोरियों के बावजूद इस आयोजन ने एक बार फिर आश्वस्त किया कि रायपुर की रंग सक्रियता सिर्फ रंगमंच तक सीमित नहीं है, बलिक रंगकर्म के सरोकारों तक विस्तृत है। यह आयोजन केवल नाटय प्रदर्शन के लिए ही नहीं, बलिक विचार-विमर्श और रंग-संगीत के लिए भी याद किया जाएगा। रंग-उपादानों के घोर अभाव के बावजूद रायपुर की रंग-ऊर्जा किसी भी महानगर के रंगमंच को टक्कर देने का मादृदा रखती है। 

मुक्तिबोध को हर साल याद करना महत्वपूर्ण है, लेकिन इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि यह स्मरण रस्म-अदायगी भर नही है। नाम के अनुरूप ही पूरा आयोजन 'मुक्तिबोधी' था- उस उददेश्य के प्रति समर्पित, जिसके लिए मुक्तिबोध ता-उम्र संघर्ष करते रहे। सड़ी-गली और पिछड़ी चेतना से मुक्ति के लिए संघर्ष का यह बोध ही इस आयोजन को विशिष्ट बनाता है और इप्टा के रंगकर्म को दूसरे सभी आयोजनों से अलग करता है। आखिर मानव मुक्ति का अभियान- जो उसके वर्गीय शोषण के संघर्ष से सीधा जुड़ा है- कभी एकांगी तो रहेगा नहीं। वह न केवल बहुआयामी है, बलिक बहुरंगी भी है। एकांगिता और एकरंगिता तो मनुष्य को केवल संकीर्ण ही बना सकते हैं और संकीर्णता कभी किसी को मुक्ति नहीं देती। वामपंथी राजनीति की संकीर्णता के साथ भी यही बात लागू होती है, जिसे वामपंथी संस्कृति-कर्म ही तोड़ता है। इसी मायने में इप्टा का यह संस्कृति-कर्म महत्वपूर्ण है कि वामपंथ की जड़ता और खामोशी को ये तोड़ने का काम करता है- यह मनुष्य को मनुष्य बनाने का रचनात्मक अभियान है। इसीलिए ये आयोजन 'मुक्तिबोधी' था। 

लेकिन समारोह की पहली संध्या पर ही खलल पड़ा- वैसे ही, जैसे यह सामान्य धारणा है कि शुभ काम में खलल तो पड़ता ही है। उसके बिना काम की 'शुभता का महत्व स्थापित नहीं हो पाता। आना तो था बनारस की किसी टीम को 'कामायनी का प्रदर्शन करने, लेकिन मोबाइल युग में संचार ठप्प हो गया और खैरागढ़ संगीत विश्वविधालय के नाटय विभाग की टीम ने वाहवाही लूटी। उन्होंने डा. योगेन्द्र चौबे के निर्देशन में हरिशंकर परसाई के व्यंग्य 'वैष्णव की फिसलन' का मंचन किया। हरिशंकर परसाई धर्म के गोरखधंधे से अच्छी तरह वाकिफ थे। इस गोरखधंधे पर उन्होंने पूरी जिंदगी चोट की और बदले में मार खाई। मार से उनके व्यंग्य की धार और तीखी हुई। 'वैष्णव की फिसलन' इसका प्रमाण है। यह पूरी व्यवस्था के फिसलने और ढहने की कहानी है- सामाजिक नैतिकता, अर्थव्यवस्था और राजनीति के- सबके फिसलने-ढहने की कहानी। जब धर्म में धंधा घुस जाता है और यह धधा राजनीति से हाथ मिला लेता है, तो ईश्वर भी पूरी व्यवस्था का बंधक बन जाता है। उसका विकृत मानव विरोधी, सभ्यता विरोधी, धर्म विरोधी चेहरा उजागर होने लगता है। इसीलिए धर्म को राजनीति से अलग रखने की जरूरत है और धंधे से भी। धर्मनिरपेक्षता की राजनीति की जरूरत भी इसीलिए बनी हुई है- वरना शोषणकारी व्यवस्था उत्पीडि़त जनता से उसकी अज्ञानता का फायदा उठाकर पूजा-पाठ करवाती रहेगी, गणेश की मूर्तियों को दूध पिलवाती रहेगी, मसिज़दें ढहाती रहेगी और दंगे करवाकर वोट बटोरती रहेगी। डा. योगेन्द्र चौबे इसी मायने में सफल निर्देशक हैं कि परसाई की सोच के अनुसार धर्म के धंधे को राजनीति के धंधे से जोड़ने में सफल रहे। शमशेर आलम वैष्णव और धीरज सोनी विष्णु के रुप में खूब जमें। संगीत व मंच सज्जा भी आवश्यकतानुसार अच्छी थी। 

नाटय समारोह की दूसरी संध्या रस-रंग को समर्पित रही। बोधायन के प्रहसन पर आधारित नाटक 'भिक्षुक और गणिका का प्रदर्शन किया फोक आर्ट, चंडीगढ़ के ओजस्वी कलाकारों ने और निर्देशिका थीं डा. रानी बलबीर कौर। डा. कौर को इप्टा द्वारा स्वर्गीय कुमुद देवरस सम्मान से सम्मानित किया गया। यह सम्मान रंगमंच से जुड़ी महिला को दिया जाता है। डा. कौर पूर्व में भी कई सम्मानों से नवाजी जा चुकी हैं। उनकी ये प्रस्तुति बेहद आकर्षक थी और रंगमंच के सभी रंगों की झलक दिखला रही थी। पात्रों का रंगाभिनय, उनकी शारीरिक गतियां, रंग-संगीत और प्रकाश सभी यह अहसास करा रहे थे कि रंगदर्शक एक लोकरंग का रसास्वादन कर रहे हैं। लेकिन इस नाटक की सबसे बड़ी कमजोरी यही है कि नाटक का पूरा उत्तरार्ध गैर-यथार्थवाद की भावभूमि पर खड़ा है और इसीलिए दूसरे निर्देशकों की तरह वे भी इसे आधुनिक संदर्भों से जोड़ने में असफल रहीं।

संस्कृत साहित्य की एक धारा दर्शन के क्षेत्र में भाववाद और भौतिकवाद के संघर्ष पर टिकी है। बोधायन का प्रहसन भी इसी संघर्ष को अभिव्यक्त करता है और अंत में भाववाद को समर्पित होता है। संन्यासी के 'मोक्ष और उसके शिष्य शांडिल्य का 'माया-मोह इसी संघर्ष की अभिव्यकित है। यह नाटक सातवीं सदी का है और हम इक्कीसवीं सदी मे जी रहे हैं। इन 14-15 सदियों में दर्शन और विचारधारा के क्षेत्र में मानव समाज ने एक लंबी छलांग लगायी है। अब आत्मा और अध्यात्म शुद्धता और पवित्रता के दायरे से निकलकर व्यवसाय बन गया है और आधुनिक मानव समाज की समस्याओं का हल अध्यात्म और आत्मा की पवित्रता के दायरे में खोजना बेतुका है। इसीलिए बोधायन के प्रहसन को आधुनिक आत्मा देने की जरूरत है, वरना रंग-तत्वों से सुसजिजत रंगमंच दर्शकों का केवल मनोरंजन कर सकता है। 

नाटय समारोह की तीसरी संध्या में फिर परसाई छाये रहे। पुणे के निर्देशक प्रसाद वानारसे ने 'लड़ी नजरिया प्रस्तुत की, जिसमें पात्रों का अभिनय जितना मंझा हुआ था, संगीत पक्ष भी उतना ही जोरदार और रंग-प्रकाश दोनों के अनुकूल। नाटक में व्यंग्य तो था ही, सामाजिक-राजनैतिक मुददे भी थे, इन मुददों के विविध पक्ष भी थे, संवेदना थी, आक्रोश था और सबसे बढ़कर सौदेश्यता भी। प्रसाद के लिए रंगमंच के सरोकार बहुत ही स्पष्ट हैं और 'लड़ी नजरिया' एक लोकरंजक नाटक साबित हुआ। शुरू से अंत तक रंगदर्शक इस नाटक से बंधे रहे और यह सम्मोहन नाटक खत्म होने के बाद भी भंग नहीं हुआ। 

सनकी बाबा (हिमांशु तलरेजा), नाम्या (राकेश कुमार), सावित्री (रविजा चौहान) और कथावाचक (रोहन सचदेव)- इन सबने परसाई की कल्पना को रंगमंच पर उतारा। वर्तमान व्यवस्था के सभी प्रतीक नाटक में विद्ममान हैं। गांधीवाद से लेकर बाबावाद तक। अन्ना टोपी से लेकर केजरी टोपी तक। रामदेव के योगासन से लेकर साधिवयों के भोगासन व छल-कपट तक। आंदोलन, आमरण अनशन और आत्मदाह की धमकियां तक। ये सब मिलकर एक विराट परिदृश्य की रचना करते हैं। 

लेखक और निर्देशक जब एक दृष्टि और एक सौद्देश्यता के साथ मंचित होते हैं, तो रंगमंच पर किस तरह का निखार आता है, 'लड़ी नजरिया' इसका प्रमाण है। तब रंगदर्शक भी निरपेक्ष व तटस्थ नहीं रहते। दर्शक दीर्घा भी रंगमंच का हिस्सा बन जाती है और तब दर्शकों की संवेदनायें भी जागृत हो जाती हैं और पात्रों के सुख-दुख का वे भी हिस्सा बन जाते हैं। रंगमंच तभी सफल कहलाता है और 'लड़ी नजरिया' की सफलता भी इसी से जुड़ी है। 

अगली संध्या पर दो प्रस्तुतियां हुईं। पहली प्रस्तुति रायपुर इप्टा की थी- के पी सक्सेना लिखित और रवीन्द्र गोयल निर्देशित 'गज फुट इंच'- एक साफ-सुथरा और हल्का-फुल्का व्यंग्य। जीवन में ऐसे हास्य की भी बहुत जरूरत है, जो रंग दर्शकों के कमजोर होते फेफड़ों में हवा भरने का काम करे। इस काम को अंशुदास (जुगनी), राजा पांडे (टिल्लू), प्रिया शर्मा (गुल्लू), मुस्कान (टिल्लू की मां) और रवीन्द्र गोयल (पोखरमल) ने बखूबी निभाया।

दूसरी प्रस्तुति थी- भिलाई इप्टा की 'रामलीला'- अशफाक खान के निर्देशन में एक उददेश्यपूर्ण नाटक। अपने आर्थिक हितों को साधने के लिए इस देश की सांप्रदायिक ताकतों द्वारा किये जा रहे नंगे नाच का खुलासा। इस नाटक को बाबरी मसिज़द के विध्वंस के पहले लिखा गया था। संघी गिरोह तब इस विवाद को गरमा ही रहा था और राम के बहाने अयोध्या और पूरे देश की शांति भंग की जा रही थी। इस देश की हिंदू सांप्रदायिक ताकतें एक ऐसी 'लीला खेलने की तैयारी कर रही थी, जिसमें रावण का नहीं, इस देश की सौहाद्र्रपूर्ण सांस्कृतिक परंपराओं का दहन होना था। 'रामलीला' के मैदान को 'महाभारत' के युद्ध क्षेत्र में बदलने का षड़यंत्र रचा जा रहा था- जिसके बाद केवल तबाही मचनी थी, बसितयां उजड़नी थीं, मरघट का सन्नाटा और घृणा नफरत की दीवारें खड़ी होनी थीं। ये ताकतें सफल भी हुर्इं- 'रामलीला भंग हुई, एक लंबे रक्तरंजित 'महाभारत के बाद राम को पलायन करना पड़ा और रावण मुस्कुराता रहा। दस साल बाद यही 'महाभारत फिर गुजरात में रचा गया और मोदी सत्तासीन हुये। मोदी के भाजपाई राज में मानव विकास सूचकांक भले ढह गये हो, इन ताकतों का आर्थिक साम्राज्य आज भी जगमगा रहा है। कलिकाप्रसाद और अली बहादुर इसी साम्राज्य के प्रतिनिधि हैं, जो असल खेल तो जमीन हड़पने का खेल रहे हैं, लेकिन निशाने पर वह 'रामलीला है, जो मुसिलमों की भागीदारी के बिना पूरी नहीं होती, जो हिंदू-मुसिलमों के सहयोग से एक समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा के रुप में विकसित हुर्इ है। शोषण की व्यवस्था को बनाये रखने वाली ताकतों को यही संशिलष्टता रास नहीं आती। उन्हें पाषाण युग के हथियार अच्छे लगते हैं। 

इस नाटय समारोह का अंत हुआ मोहन राकेश के 'आधे-अधूरे' के मंचन से। जबलपुर की 'विवेचना' गंभीर रंगकर्म के लिए जानी जाती है। न केवल नाटकों के चयन के हिसाब से,बलिक प्रस्तुति के लिहाज से भी। नाटककार की कल्पना को रंगमंच पर उतारना किसी भी निर्देशक के लिए आसान नहीं होता और मोहन राकेश तो निर्देशकों के लिए हमेशा चुनौती ही रहे हैं। चुनौती की इस कसौटी पर अपने निर्देशन व अभिनय दोनों में विवेक पांडे व प्रगति पांडे खरे उतरे। मोहन राकेश अपने नाटकों को एक नयी रंगभाषा में प्रस्तुत करते हैं। यह रंगभाषा जीवन की त्रासदी और नाटकीय विडंबनाओं को गति देती है और इससे रंग विस्तार की व्यापक संभावनायें पैदा होती हैं। इन संभावनाओं का पूरा उपयोग 'विवेचना ने अपनी रंग प्रस्तुति में किया है। विवेक पांडे ने महेन्द्रनाथ व जुनेजा सहित सभी पुरुष पात्रों को मंच पर एक साथ जिया है और कहीं एकरसता नहीं दिखी।

मोहन राकेश का 'आधे-अधूरे सातवें दशक का नाटक है। आधुनिक भारत के इतिहास में सातवां दशक बहुत उथल-पुथल भरा था- न केवल राजनैतिक रुप से, बलिक अर्थव्यवस्था के लिहाज से भी। फिर परिवार और समाज ही इससे कैसे अछूता रहता? मोहन राकेश ने अपने सांस्कृतिक सरोकारों को समाज और परिवार से जोड़ा। नाटय आंदोलन के क्षेत्र में यह एक नई सृजनात्मक रंग-चेतना थी। सत्तर के दशक की तुलना में आज यह सामाजिक तनाव और ज्यादा गहरा हो गया है और इसीलिए आज भी यह नाटक बहुत प्रासंगिक है। 'आधे-अधूरे की नायिका सावित्री  (प्रगति पांडे) अपने अधूरेपन को मानने को तैयार नहीं है। वह महेन्द्रनाथ में पूर्णता की खोज करती है और जीवन में निराशा और ऊब उसके पल्ले पड़ती है। यह मध्यवर्गीय जीवन की त्रासदी है कि पूर्णता की खोज से ऐसे नये तनावों का जन्म होता है, जिससे बचा जा सकता है और संकटग्रस्त जीवन में भी थोड़ा सुख खोजा जा सकता है। लेकिन पूर्णता की मांग पूरे जीवन को नष्ट कर देती है। लेकिन यह सवाल फिर भी अपनी जगह है कि जिस चरम पर जाकर मोहन राकेश ने नाटक का अंत (महेन्द्रनाथ का लौटकर आना) किया है, वह भारतीय समाज क निराशावाद है या नियतिवाद? या फिर इस पूरी त्रासदी का हल कहीं और है? दुर्भाग्य की बात है कि भारतीय समाज के तनावों को मंचित करने वाले नाटक अब नहीं के बराबर आ रहे हैं। यह सामाजिक रंगकर्म कार्पोरेटी सीरियलों में कहीं गुम सा हो गया है। 

समारोह में इन पूर्ण नाटय प्रस्तुतियों के अलावा नेशनल एसोसिएशन फार ब्लाइंडस 'प्रेरणा की नेत्रहीन छात्राओं ने लोकगीत तो प्रस्तुत किये ही, भीष्म साहनी कृत और निसार अली निर्देशित 'चीफ की दावत का भी मंचन किया। इप्टा रायपुर ने नुक्कड़ नाटक 'सरकार का निजीकरण का मंचन किया। दीपक और पूनम की टीम ने दिवंगत हबीब तनवीर के नाटक के गीतों को प्रस्तुत किया। गोविंदराम निर्मलकर ने नाटय समारोह का उद्घाटन किया। उन्होंने छत्तीसगढ़ के 'नाचा जैसी लोकप्रिय विधा के प्रति सरकारी उदासीनता पर नाराजगी और चिंता जाहिर की। 'रंगकर्म के सरोकार' विषय पर हई गोष्ठी में प्रसार वानारसे व डा. रानी बलबीर कौर ने विचारोत्तेजक वक्तव्य रखा। 

कुल मिलाकर इस समारोह ने रायपुर के रंगकर्म की जीवंतता को पुन: रेखांकित किया। छत्तीसगढ़ के संस्कृति विभाग ने जिस नाट्य कर्म को दोयम दर्जे पर रख दिया है, ऐसे में इप्टा का यह समारोह संस्कृति विभाग को उसका असली चेहरा तो दिखाता ही है। 

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