Tuesday, April 23, 2013

बच्चों को बिगाड़ने वाले पापा

-अजय आठले

(मुमताज भारती को छत्तीसगढ़ प्रगतिशील लेखक संघ के राज्य सम्मलेन में सम्मानित किया गया। इस अवसर पर उनके सम्मान में पढ़ा गया प्रशस्ति लेख.)

ज की शब्दावली में कहें तो पेशे से ड्रेस डिजायनर मुमताज भारती उर्फ़ पापा अपने समय के बेहतरीन टेलर थे। पापा को कोट सिलने में महारत हासिल थी। उस ज़माने में जब कोट विशिष्ट लोग ही सिलवाने की हैसियत रखते थे पापा उनके कोट सिला करते थे और सार्वजनिक जीवन में बखिया भी उन्ही विशिष्ट जनो की उधेडा करते थे। ये अजीब अन्तर्विरोध था की सिलते भी वही थे और उधेड़ते भी वही थे। "तुम्ही ने दर्द दिया है तुम्ही दवा देना" की तर्ज पर। उनकी इसी आदत पर कभी स्व. प्रमोद वर्मा जी ने उनपर एक कविता लिखी थी :

पापा , मै काटूँगा तुम सिलना
आओ हम दोनों मिलकर एक कोट बनायें
जिसे दुनिया को पहना सकें


अपने 75 वर्षीय जीवन में पापा ने बहुत से लोगों को बिगाड़ा। राजनीति से लेकर सांस्कृतिक मोर्चे पर नन्द कुमार साय पापा का शिष्य था और अपना राजनैतिक जीवन AISF से शुरू किया था। बाद में उसे अक्ल आ गयी, वह सुधर गया और आज वह BJP सांसद है। मगर बहुत से लोग नहीं सुधर पाए और अब सुधरने की उम्मीद भी नहीं है -अब आखिरी वक्त में क्या खाक मुसलमां होंगे?

पापा राजनैतिक और सांस्कृतिक दोनों ही मोर्चे पर लगातार सक्रिय रहे, जिसका खामियाजा यह हुआ की राजनैतिक लोग उन्हें संस्कृतिकर्मी मानते रहे और संस्कृतिकर्मी उन्हें राजनैतिक। पापा की कार्यशैली ही कुछ ऐसी रही। बादलखोल अभ्यारण्य के विरोध में चल रहे आन्दोलन, जिसका नेतृत्व मैडम मेरी कर रही थी पापा ने कविता लिखी थी:

मेडम मेरी मेडम मेरी
क्यों फिरती हो चोरी चोरी
जंगल जंगल झाडी झाडी
पगडण्डी से राज मार्ग तक
कहाँ नहीं है चर्चा तेरी


पापा स्वयं भी पगडंडियों के राही रहे हैं। राज मार्ग उन्हें कभी न भाया। यही कारण है की एक तीखापन उनके लेखों,उनकी कविताओं में तो दिखता ही है। उनके द्वारा बनाये चित्रों में भी दिखता है। पापा एक बेहतरीन चित्रकार भी हैं, पर उनके बारे में कहा जाता है की पापा यदि गुलाब की पंखुडियां भी बनायेंगे तो वह भी नुकीली और चुभने वाली होगी तथा लहूलुहान होने का डर बना रहेगा। हम लोग मजाक में कहते भी हैं की शायद यही कारण है की इतने वेलेंटाइन डे गुज़र गए और पापा किसी को गुलाब का फूल भी नहीं दे पाए । आज तक अविवाहित हैं और गाहे बगाहे अपना पसंदीद गीत गुनगुनाते हैं-मेरा जीवन कोरा कागज़ ,कोरा ही रह गया पापा अविवाहित जरूर हैं मगर उनका परिवार बहुत बड़ा है न जाने कितने लोगों के लिए वे कलेक्ट्रेट के चक्कर काटते ही रहते हैं न्याय दिलाने के लिये। 75 वर्ष की उम्र में भी पापा सार्वजनिक जीवन में आज भी सक्रिय हैं रायगढ़ के आसपास औद्योगिकीकरण के कारण हो रहे विस्थापन के विरोध में होने वाले हर आन्दोलन में पापा की सक्रिय भूमिका रहती है राजनीतिक जीवन से भले ही सन्यास ले लिया हो मगर सामाजिक जीवन में और सांस्कृतिक मोर्चे पर आज भी पापा युवाओं को बिगाड़ने के कार्य में सक्रिय हैं

75 वर्ष की उम्र में भी पापा सार्वजनिक जीवन में आज भी सक्रिय हैं। रायगढ़ के आसपास औद्योगिकीकरण के कारण हो रहे विस्थापन के विरोध में होने वाले हर आन्दोलन में पापा की सक्रिय भूमिका रहती है। राजनीतिक जीवन से भले ही सन्यास ले लिया हो, मगर सामाजिक जीवन में और सांस्कृतिक मोर्चे पर आज भी पापा युवाओं को बिगाड़ने के कार्य में सक्रिय हैं।

पापा ने रायगढ़ विधान सभा से चुनाव भी लड़ा था और तीसरे नंबर पर रहकर कांग्रेस को विजयी बनाया था-कांग्रेस वाले उनका उपकार माने या न माने अलग बात है। चुनाव के बाद चंदे से बचे पैसों से परिणामों के बाद एक भोज का आयोजन किया गया था, जिसे पापा ने नाम दिया था -पराजय का उत्सव। अपनी पराजय का उत्सव मनाना आसान नहीं होता उसके लिया पापा होना पड़ता है।

अब वे ज्यादा नहीं लिखते। अखबार में एक कॉलम लिखते थे। आनंद दुखदायी के नाम से अब नहीं लिख रहे हैं, मगर अब वे कार्टून बना रहे हैं स्थानीय अखबारों के लिए। शरीर अब थक चुका है, मगर तीखापन अब भी बरक़रार है और अभी भी सभ्य समाज को लहूलुहान करते हैं उनके कार्टून।

हमारे यहाँ जब सरकारों द्वारा किसी शिक्षक को इसलिए राष्ट्रपति पुरुस्कार दे दिया जाता है की उसने स्कूल न जाकर बहुत से बच्चों का भविष्य संवार दिया या साहित्य का पुरस्कार इसलिए दे दिया जाता है, क्योंकि उसने न लिखकर साहित्य की बड़ी सेवा की तब ऐसे में मुमताज भारती पापा को सम्मानित किया जाना उचित ही होगा, जिन्होंने कई पीढ़ियों के युवाओं को बिगाड़ने में अपने जीवन के 75 वर्ष लगा दिए।

पापा से कई बार हम कहते हैं कि "पापा आप विल-लिख जाएँ की आपका अंतिम संस्कार कैसे किया जाये नहीं तो हम परेशानी में पड़ जायेंगे। जीते-जी तो हमें बिगाड़ा ही जाने के बाद भी मुसीबत में डाल गए तो?" पापा कहते हैं, "चलो मै अपनी देह दान कर जाऊँगा मेडिकल कॉलेज को, पर कम्बखत वह भी तो नहीं बन रहा है!" तब सच कहता हूँ दोस्तों, मन ही मन हम मनाते हैं की ये कमबख्त मेडिकल कॉलेज न ही बने 25 साल और पापा शतायु हों, संघर्षरत रहे और बीच-बीच में गुनगुनाते रहें अपना पसंदीदा शेर:

बहुत मुश्किल है दुनिया का संवरना
ये तेरी जुल्फों का पेंचो ख़म नहीं है।

(लेखक वरिष्ठ रंगकर्मी व इप्टा की राष्ट्रीय कार्यसमिति में छत्तीसगढ़ के प्रतिनिधि सदस्य है। उनसे athrat@rediffmail.com के जरिये संपर्क किया जा सकता है। डाक का पता है-अजय आठले, आठले हाउस, सिविल लाइन्स, रायगढ़, छत्तीसगढ़) 

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