Friday, August 9, 2013

मुक्तिकामी जनसंघर्ष को लेनी होगी परिवर्तन की पहल: मनीन्द्र नाथ ठाकुर

पटना/4  अगस्त 2013 

"राष्ट्रवाद, धर्म और नागरिक को पुनर्भाषित करने की आवश्यकता है और प्रक्रिया को अकादमिक बहसों के सहारे नहीं, बल्कि जनसंघर्षों में शामिल कार्यकर्ताओं, संस्कृतिकर्मियो और साहित्यकारों, बुद्धिजीवियों को साथ आना होगा. पूरा राजनीतिक, अकादमिक और चिंतन दर्शन पूंजीवाद के संक्रमण में है. इसलिए आवश्यक है कि जनसंघर्ष में शामिल लोग अपने संघर्ष को मुक्तिकामी बदलाव की ओर तेज़ करें".

ललित किशोर सिन्हा स्मृति व्याख्यान के छठे आयोजन में 'राष्ट्रवाद, धर्मं और नागरिक' विषय पर अपनी बात रखते हुए राजनीति अध्ययन केंद्र, जवाहरलाल नेहरू विश्वविध्यालय के सहायक प्रोफ़ेसर डा० मनीन्द्र नाथ ठाकुर ने उक्त बातें कहीं. वर्तमान आर्थिक, सामाजिक और राजनीति के राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य पर चर्चा करते हुए डा० ठाकुर ने कहा कि कल कल जो शब्द हमें आंदोलित-रोमांचित करते थें, उनकी परिभाषा को इस प्रकार पूँजीवाद ने परिवर्तित कर दिया है या किया जा रहा है; जिसका आज उपयोग करने से ना सिर्फ हम हिचकते हैं बल्कि परहेज भी करने लगे हैं. उन्होंने कहा कि आज जनहित और राज
हित में संघर्ष का समय है. राजसत्ता थोड़े ही लोगों के पास है और वे जनहित के शोषण, दोहन में लगे हैं. जो शब्द हमें कल तक आन्दोलित करते थें आज वे हमारे रहे ही नहीं। समाज में सिविल सोसाइटी को विश्व बैंक ने एक नयी परिभाषा में बांध दिया है जो राजसत्ता के साथ खड़ा हुआ सा नज़र आता है.  आज राष्ट्रवाद शब्द के कई मायने हमारे पास हैं. गाँधी का राष्ट्रवाद मुक्तिकामी था. हिटलर का राष्ट्रवाद एक व्यक्तिवादी अधिनायक राष्ट्रवाद था. 1947 के बाद भारत में राष्ट्रवाद का सन्दर्भ बदला। राष्ट्र निर्माण का नारा लगा. एक कायदा, एक अनुशासन का राष्ट्रवाद बनाना शुरू हुआ. जब सत्ता ख़तरे में होती तो इन्दिरा गाँधी बोलती "राष्ट्र ख़तरे में है" और  पंजाब की सरकार को सत्ता का खतरा होता तो सरकार कहती "क़ौम ख़तरे में है". दरअसल यह ख़तरा राष्ट्र को नहीं, बल्कि ऊँची इमारतों, कल-कारखानों में रहने वाले थोड़े से शासक आदि को होता है. आज़ादी के बाद देश निर्माण का संकल्प पूंजीपति के निर्माण का संकल्प थ. 1980 आते-आते हिन्दुस्तान में दो वर्ग उभर कर आया था - अतिपूंजीवाद और पूंजीवाद। सत्ता के जुड़े कुछेक लोग लाभ ले रहे हैं और जनता शोषित हो रही है. यह साफ़ नज़र आ रहा है कि राजसत्ता में शामिल लोगों की गाँधी टोपी उतर गई है और धर्म व धर्मनिरपेक्षता की आड़ में विदेशी पूँजी का कब्ज़ा हो गया. राष्ट्रवाद का इस्तेमाल राजसत्ता को बचाने में किया जा रहा है और धर्मं को इस पुरे प्रकरण में टूल की तरह प्रयोग में लाया जा रहा है. 

बिहार के ताज़ा राजनीतिक प्रकरण और जदयू-भाजपा के 17 साल पुराने गठबंधन की टूट पर चर्चा करते हुए डा० ठाकुर ने कहा कि यह काफी आश्चर्य का विषय है कि कैसे विश्व बैंक इस राजनीतिक घटनाक्रम को देख रहा है. आज बिहार में विश्व बैंक के 20 हज़ार रूपये का क़र्ज़ है और वर्ष 2005 की विश्व बैंक की रिपोर्ट में सुझाये गए मॉडल पर ही नीतीश जी की विकास गाथा लिखी जा रही है. एक ओर जहाँ विश्व बैंक नरेन्द्र मोदी पर अपना ध्यान और पूँजी लगाये है, वहीँ दूसरी ओर बिहार में इस प्रकार के राजनीतिक प्रकरण पर सन्नाटा चिंतन और समझने का विषय है. इस पूरे घटनाक्रम को देखने, समझने और इस विमर्श करने की ज़रुरत है. 11% का जीडीपी ग्रोथ और गैर-उत्पादक गतिविधियों में राजसत्ता का निवेश बिहार को कहाँ ले जाएगा; यह सोचने और इसपर बोलने की ज़रुरत है. इस सम्बन्ध में बिहार इप्टा की यह काफ़ी महत्वपूर्ण है और जनसंघर्ष की प्रासंगिकता को एक बार फिर से रेखांकित करता है. यह सवाल ज़रूर पूछें कि बिहार का विकास कहाँ पर हो रहा है. 
राष्ट्रीय राजनीतिक परिदृश्य पर चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि देश में पूंजीवाद का विकृत स्वरुप खुल कर दिख रहा है. पूँजीवाद राष्ट्रीय नीतियों और चर्चाओं को निर्देशित कर रहा है. जब इस पर संकट आता है या विरोध की कोई आवाज़ निकलती तो उसे धर्म और राष्ट्रवाद की सीमाएं लाद दी जाती है. इस पुरे सन्दर्भ में हमारी भूमिका क्या होगी और हम किसके साथ मिलकर अपने मुक्तिकामी जनसंघर्ष को आगे बढाएँगे? धर्म के सन्दर्भ में अपनी बात रखते हुए उन्होंने कहा कि धर्म को वैज्ञानिक दृष्टिकोण के साथ देखना और मानना चाहिए क्योंकि यही वह जगह है जहाँ से हम तर्क कर सकते है. हिन्दुस्तानी अवाम धर्म को मानता नहीं बल्कि धर्म के साथ जीता है. 

स्थानीय अनुग्रह नारायण सिन्हा सामजिक अध्ययन संस्थान में आयोजित इस कार्यक्रम की शुरुआत बिहार इप्टा के कार्यकारी अध्यक्ष व वरीय संगीतकार सीताराम सिंह के गायन से हुई. उन्होंने कैफ़ी आज़मी की नज़्म 'सोमनाथ' से कार्यक्रम का आगाज़ किया। बिहार इप्टा संरक्षक मंडल के साथी व शिक्षाविद प्रो० विनय कुमार कंठ व्याख्यान की अध्यक्षता करते हुए कहा कि इप्टा की नायक जनता है और रंगकर्म, संगीत, गीत, नृत्य के माध्यम से जनता की बात रखी जाती है. जो बातें समाज में होती है, घटती है, इप्टा उसको प्रस्तुत करता है. इप्टा के लिए संस्कृतिकर्म महज कर्म नहीं बल्कि एक खास समझ और सोच के की गई सांस्कृतिक अभिव्यक्ति है. इप्टा के एक  दौर में जहाँ धर्म के साथ थोड़ी दूरी रखी जाती थी, मार्क्सवादी विचारधारा के दौर में धर्म के प्रति एक दूरी थि. लेकिन समय बदला है इप्टा ने धर्म के साथ विमर्श करना शुरू किया है. गाँधी को भी अपने साथ लिया है. बिहार इप्टा का 15 से 'हे राम' कार्यक्रम का आयोजन और कुछ साल पहले 'मुझे कहाँ ले आये हो कोलम्बस' नाटक की प्रस्तुति (जहाँ धर्म/आस्था का बिम्व है) इप्टा
के बढ़ते दायरे का द्योतक है. धर्म कहीं से भी जीवन से अलग नहीं है. गाँधी ने धर्म को अपने साथ केंद्र में रखा है. जिन्ना और आज़ाद ने धर्म को अपने तरीके से देखा। धर्म परम्परा और संस्कृति का अंग है, तो इसे कैसे संस्कृतिकर्म से अलग करके देखा जा सकता है. उन्होंने आगे कहा की राष्ट्रवाद और धर्म की अवधारणा पारम्परिक है. अधिकतर लोग मानते हैं कि राष्ट्रवाद और धर्म की अवधारणा आधुनिक है. अकादमिक स्तर पर समाजशास्त्र राष्ट्रवाद को राज्य केन्द्रित अवधारणा के रूप में देखता है. राष्ट्रवाद को राज्य से काट कर नहीं देख सकते हैं. ऐसी परिस्थिति में राज्य, राष्ट्रवाद को अलग नहीं देख सकते है. और तब जब राष्ट्र जनविरोधी हो जाये, तो राष्ट्रवाद को समझना होगा। भारत में एक दौर राष्ट्रवाद उपनिवेशवाद के विरोध में आया था किन्तु आज राष्ट्रवाद एनडीए और यूपीए की राजनीति में आ गया है.  आज राष्ट्रवाद को धर्म के दायरे में लाकर एक ख़तरा पैदा किया गया है. जो राष्ट्र की अवधारणा के लिए भी ख़तरा है और यह खतरा धर्म को लेकर बांटने, विभाजन पर आधारित है. इसी सन्दर्भ किसी भी व्यक्ति को नागरिक मान लेना कितना सही है? मैं शिक्षा पर काम करता हूँ और ऐसी शिक्षा देने में विश्वास करता हूँ जो अच्छा नागरिक बनाये. परन्तु यह अच्छा नागरिक कौन है, जो राष्ट्र के विरोध में कुछ ना बोले, राजनीतिक फैसलों को हर परिस्थिति में स्वीकार करे या कोई जो विरोध करने वाला, अपनी आवाज़ रखने वाला अच्छा नागरिक है. 
 
कार्यक्रम का संचालन करते हुए पटना इप्टा के कार्यकारी अध्यक्ष तनवीर अख्तर ने ललित किशोर सिन्हा स्मृति व्याख्यान श्रृंखला और धर्म व् राजनीति के सम्बन्ध में इप्टा की समझ को रखा.
इस दौरान कवि आलोक धन्वा, अरुण कमल, प्रगतिशील लेखक संघ से कर्मेंदु शिशिर, बिहार इप्टा अध्यक्ष समी अहमद, न्यूरोसर्जन डा० सत्यजीत, अभिनेता जावेद अख्तर खां, फीरोज़ अशरफ़ खां, सहित बड़ी संख्या में विभिन्न संगठनो के बुद्धिजीवी, साहित्यकार, प्राध्यापक, संस्कृतिकर्मी और युवा उपस्थित थें. धन्यवाद ज्ञापन रुपेश ने किया।
 
आयोजन के सहभागी इस्ट एंड वेस्ट एडुकेशनल सोसाइटी, अल-खैर चैरिटेबल ट्रस्ट, कोशिश, पुनश्च और अनुपम समाज सेवा संस्थान थे. इस अवसर पर पटना इप्टा की सचिव डा० उषा वर्मा ने बताया कि डा० मनीन्द्र के व्याख्यान वीडियो रिकार्डिंग करवाई गई है और यह इप्टा बिहार की सारी इकाइयों के माध्यम से पूरे बिहार में दिखाई जायेगी।
 
 

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