Tuesday, January 6, 2015

रायगढ़ इप्टा का 21वां राष्ट्रीय नाट्य समारोह संपन्न

रायगढ़ के इक्कीसवें नाट्य समारोह के पहले दिन अरण्य मुंबई के कुमुद मिश्रा अभिनीत एवं मानव कौल लिखित एवं निर्देशित नाटक ‘शक्कर के पाँच दाने’ का मंचन हुआ। इससे पूर्व मानव कौल को हिंदी रंगकर्म के प्रति उनके अवदान के लिये छठा शरदचंद्र वैरागकर सम्मान दिया गया आैर रायगढ इप्टा की पत्रिका रंगकर्म का विमोचन भी किया गया।

मानव कौल ने इस एकपात्री नाटक के बारे में चर्चा के दौरान बताया कि चूँकि वे और कुमुद मिश्रा लम्बे अरसे से साथ-साथ काम कर रहे थे, सो इसे लिखते समय कुमुद ही उनके दिमाग में थे और राजकुमार का चरित्र और उसकी जिंदगी के पाँच पात्रों की रचना हुई। मंचित नाटक में कुमुद मिश्रा के सहज अभिनय ने नाटक के नायक राजकुमार के जीवन में माँ से जुड़ी मीठी-कड़वी मार्मिक यादें, पुंडलिक मामा की कविताएँ और उन्हें भानजे के नाम पर प्रकाशक को सौंपा जाना, कविता-संग्रह छपने के लिए सिर्फ एक कविता का कम पड़ना और प्रकाशक द्वारा राजकुमार से एक कविता की मांग करना उसे किसतरह संकट में डाल देता है – इसका रोचक और सूक्ष्म प्रत्यक्षीकरण कुमुद मिश्रा ने कराया। स्कूल के हाइ-फाइ दोस्त रघु का किशोर मन पर पड़ा प्रभाव, राधे नामक बूढ़े का खालीपन और डिल्यूज़न में जीना – इनका अभिनेता से जुड़ाव जीवन के बहुविध पक्षों को छूता रहा। पूरे नाटक में प्रकाश और ध्वनियाँ भी संवाद और अभिनय के प्रभावों को गाढ़ा कर रही थीं। एक घंटा दस मिनट के इस एकपात्री मंचन ने इप्टा रायगढ़ के विगत नाट्योत्सवों में मंचित दानिश इकबाल के ‘डांसिंग विथ डैड’, संजय लकड़े की ‘पटकथा’, सीमा बिस्वास के ‘स्त्रीर पत्र’ की स्मृतियों को ताज़ा किया। भावनाओं और विचारों को एकसाथ झकझोरने वाले इसतरह के नाटक अभिनेता और निर्देशक के अतिरिक्त कौशल की मांग करते हैं। ‘शक्कर के पाँच दाने’ ने दर्शकों को एक अविस्मरणीय अनुभव प्रदान किया। प्रकाश-संचालन किया था शाॅन लेविस ने और ध्वनि-संचालन था अजितेश का।

नाट्योत्सव के दूसरे दिन इप्टा रायगढ़ का बहुचर्चित छत्तीसगढ़ी नाटक ‘मोंगरा जियत हावे’ का मंचन हुआ। मूल मराठी में प्रल्हाद जाधव द्वारा लिखित, अजय आठले द्वारा रूपांतरित एवं हीरा मानिकपुरी निर्देशित इस नाटक में नाचा-गम्मत शैली के माध्यम से समाज में स्त्री को एक उपभोग की वस्तु मानकर उसका यौन शोषण करके अपने पद एवं राजनीतिक स्थिति का फायदा उठाने वाले जन-प्रतिनिधि के पर्दाफाश की कोशिश की गई है। कहानी रोचक ढंग से शुरु होती है। थाने के दृश्य से आरंभ होने वाले इस नाटक में एक अजीब शराबी व्यक्ति के आगमन से कथा में सस्पेंस आरम्भ होता है। वह इंस्पेक्टर से आग्रह करता है कि उसने एक रेलगाड़ी के टाॅयलेट में लिखा हुआ देखा ‘मोंगरा जियत हावे’, जो इस बात का द्योतक है कि मोंगरा नाम की किसी ग्रामीण महिला की जान खतरे में है। पुलिस विभाग की स्थूल और असंवेदनशील कार्यप्रणाली पर सवाल उठाती हुई नाटक की कहानी में उस समय मोड़ आता है जब इंस्पेक्टर को पता चलता है कि मोंगरा नामक स्त्री वाकई भाटापारा के पास के महुवापाली गाँव से पिछले एक महीने से गायब है। यह स्त्री महुवापाली के सरपंच के घरेलू नौकर की पत्नी है। इंस्पेक्टर और ‘व्यक्ति’ मिलकर इस मोंगरा-प्रकरण के तथ्यों को खोज निकालते हैं, मगर गृहमंत्री का फोन मोंगरा को न्याय दिलाने वालों पर भारी पड़ता है। 
इस नाटक के माध्यम से सदियों से होने वाले स्त्री के यौन शोषण एवं उसके प्रति असंवेदनशील व्यवहार को रेखांकित किया गया है। महाभारत काल की द्रौपदी से लेकर आज तक की असंख्य लड़कियों, युवतियों और वृद्धाओं को यौन शोषण का शिकार होना पड़ रहा है। क्या स्त्री को सिर्फ यौन वस्तु माना जाना उचित है? क्या स्त्री देह के अतिरिक्त उसका कोई अस्तित्व नहीं है? क्या स्त्री मनुष्य नहीं है? यह नाटक इन प्रश्नों से जूझता हुआ वर्तमान की भ्रष्टाचार एवं अपराध-पोषित राजनीतिक-सामाजिक व्यवस्था की परतें उधेड़ता है और दर्शकों से इस विषमता और शोषण को दूर करने का आव्हान करता है। मंच पर निर्देशक हीरा मानिकपुरी स्वयं व्यक्ति की सशक्त भूमिका निभा रहे थे, इंस्पेक्टर थे अजय आठले, हवलदार की भूमिका निभाई भरत निषाद ने। सरपंच के शातिर, मगरूर और ऐयाश किरदार को विनोद बोहिदार ने जीवंत कर समाज में विद्यमान ऐसे चरित्रों के प्रति भी एक गुस्सा दर्शकों के मन में पैदा किया। इन प्रमुख चार पात्रों के अलावा दो-दो की जोड़ी में छै जोकड़ थे – प्रेमशंकर और मिंटू तिवारी, विवेकानंद प्रधान और आकाश त्रिपाठी, ब्रिजेश तिवारी और आलोक बेरिया, जिन्होंने नाचा के जोकड़ों जैसी समसामयिक चुटकियाँ लेते हुए कहानी को आगे बढ़ाया। महाभारतकालीन द्रौपदी से लेकर आज तक की स्त्रियों की पीड़ा को हृदयस्पर्शी गीतों के माध्यम से व्यक्त किया संगीता चैहान ने। कोरस में अन्य कलाकार थे – स्वप्निल नामदेव, प्रियंका बेरिया, रोहित, लोकेश्वर निषाद। संगीत मंडली में हारमोनियम के साथ प्रमुख गायक एवं संगीत निर्देशक थे रामप्रसाद श्रीवास, नाल पर चंद्रदीप तथा ड्रम पर देवसिंह परिहार थे। लाइट डिज़ाइन श्याम देवकर का था। रूपसज्जा की थी संदीप स्वर्णकार ने। मंच सज्जा में अजेश शुक्ला का योगदान रहा। नाटक के अंत में कुलदीप दास द्वारा पुष्पगुच्छ से एवं इप्टा की छत्तीसगढ़ राज्य इकाई के महासचिव राजेश श्रीवास्तव के हाथों नाटक के निर्देशक हीरा मानिकपुरी को स्मृतिचिन्ह प्रदान किया गया।
नाट्य समारोह की तीसरी शाम अग्रगामी नाट्य समिति रायपुर के ‘एक और द्रोणाचार्य’ के नाम रही। बिलासपुर निवासी स्व. शंकर शेष लिखित एवं श्री जलील रिज़वी निर्देशित यह नाटक दो कालों की शिक्षा-व्यवस्था की समानांतर पड़ताल करता है।महाभारत काल में द्रोणाचार्य अपनी पत्नी कृपि एवं भीष्म के आग्रह पर पांडवों और कौरवों को शिक्षा देने राजभवन जाते हैं और जिस राजपरिवार के माध्यम से उन्हें जीवन-यापन की सुख-सुविधा और प्रतिष्ठा प्राप्त हुई, उसी परिवार के राजकुमार अर्जुन को श्रेष्ठ धनुर्धर बनाने के मनोवैज्ञानिक दबाव के कारण उनके पुतले को गुरु बनाकर धनुर्विद्या में श्रेष्ठतम साबित होने वाले आदिवासी बालक एकलव्य अर्जुन से श्रेष्ठ न बन जाए इसलिए गुरुदक्षिणा में उसके दाहिने हाथ का अंगूठा मांग लेते हैं। बाद में द्रोणाचार्य को अपने इस भेदभावभरे आचरण पर दुख होता है और वे सारा दोष कृपि पर मढ़ देते हैं कि उसने ही उन्हें राजपरिवार का आश्रित बनने पर विवश किया। महाभारत की इस कथा के समानांतर आधुनिक युग के एक प्रोफेसर अरविंद की कहानी चलती है। अरविंद सिद्धांतवादी है, वह मैनेजमेंट के सभापति के बिगडैल लड़के को नकल मारते पकड़ लेते हैं परंतु सभापति द्वारा उन्हें प्राचार्य पद के प्रमोशन का लालच दिये जाने पर पत्नी लीला के आग्रह पर अन्य लड़के चंदू को नकल प्रकरण में फँसा देते हैं। आगे भी सभापति उन्हें कठपुतली की तरह इस्तेमाल करना चाहता है और उनकी अंतरात्मा उन्हें बार-बार कोसती है कि उन्होंने पहली बार ही समझौता क्यों किया। 
पूरे नाटक में आर्थिक-सामाजिक सुविधाओं को अनायास प्राप्त करने के ऐवज में मूल्यों को खोने की मजबूरी को बहुत गंभीरता से उभारा गया है। द्रोणाचार्य और कृपि की भूमिका में जलील रिज़वी और नूतन रिज़वी ने उन पौराणिक चरित्रों को जीवित कर दिया। प्रोफेसर अरविंद और लीला की भूमिकाओं में क्रमशः काजल दत्ता और अनुराधा दुबे ने सिद्धांतवादी व्यक्ति की कशमकश और एक महत्वाकांक्षी पत्नी के चरित्रों को उभारा। अरविंद के मित्र यदु की भूमिका में वाहिद शरीफ, प्रेसीडेन्ट की भूमिका में प्रकाश खांडेकर ने समाज के मध्यवर्गीय अवसरवादी चरित्रों को साकार किया। विमलेन्दु की प्रेतात्मा की आवाज़ को वाणी दी थी घनश्याम सेंदरे ने। इनके अलावा इकराम हैदर जावेद ने भीष्म, विजय श्रीवास्तव ने प्रिंसिपल, रोहित भूषणवार ने चंदू और युधिष्ठिर, अज़हरूद्दीन सिद्दीकी ने अश्वत्थामा, वीणा पंडवार ने अनुराधा, विकासदास बघेल ने एकलव्य एवं सैनिक, जीत पाल सेंदरे ने अर्जुन तथा काव्या पंडवार ने बाल अश्वत्थामा की भूमिकाएँ निभाईं। प्रकाश-व्यवस्था थी बलदेव संधु की। संगीत-व्यवस्था थी जमाल रिज़वी और समीर रिज़वी की तथा उद्घोषक थीं सौम्या रिज़वी।
तीसरे दिन का मंच संचालन किया अजेश शुक्ला ने। नाटक के निर्देशक श्री जलील रिज़वी को मंचन के उपरांत इप्टा के पुराने साथी श्री प्रतापसिंह खोडियार ने पुष्पगुच्छ एवं स्मृतिचिन्ह प्रदान कर सम्मानित किया।
मारोह की चैथी शाम को अंजोर पुणे की सुषमा देशपांडे ने भारत में स्त्री-शिक्षा की नींव डालने वाली सावित्रीबाई फुले एवं जोतिबा फुले के अद्भुत कार्यों को जिसतरह प्रस्तुत किया, वह एक अविस्मरणीय अनुभव रहा। सुषमा देशपांडे ‘मैं सावित्रीबाई’ के मंचन सन् 1989 से निरंतर कर रही हैं। पहले वे सिर्फ मराठी में मंचन करती थीं परंतु अनेक लोगों के आग्रह के कारण वे पिछले कुछ वर्षों से लगातार हिंदी में भी इस नाटक का मंचन करती हैं। वे यह एकपात्रीय नाटक सिर्फ अपनी अभिनय-प्रतिभा के प्रदर्शन के लिए नहीं करतीं, बल्कि जोतिबा फुले और सावित्रीबाई फुले के इस बहुत ही महत्वपूर्ण कार्य से लोगों को परिचित कराने के लिए करती हैं।
इस दम्पति ने स्त्रियों को शिक्षित करने के लिए शुरुआत में कितनी मुसीबतें झेलीं – जातीय विषमता, लिंग भेदभाव का किसतरह डटकर मुकाबला किया – सुषमा ने अनेक घटनाओं के माध्यम से नाटक में स्पष्ट किया है। सावित्रीबाई फुले, जो महाराष्ट्र के अतिशूद्र जाति की एक सामान्य लड़की थी, विवाह के बाद जोतिबा के समानतापूर्ण व्यवहार से किसतरह पढ़ना-लिखना सीखती है, किसतरह निम्न जाति की बच्चियों के लिए खोली गई पाठशाला में पहली महिला शिक्षिका बनती है और उच्च जातियों की अनेक धमकियों के बावजूद किसतरह विधवा स्त्रियों को आश्रय प्रदान करती है – इसकी कथा आश्चर्यचकित करने वाली है। सुषमा देशपांडे एक शताब्दी पूर्व के इन कार्यों की कथा सुनाती हुई वर्तमान परिदृश्य के बदतर होते जाने पर भी सवाल उठाती हैं। पाठशाला में सभी बच्चों को जाति-वर्ग से परे हटकर शिक्षा दी जानी चाहिए, समाज से ही जात-पाँत, छुआछूत का उन्मूलन होना चाहिए, हर स्त्री-पुरुष को एक इंसान की तरह जीने का अधिकार मिलना चाहिए – इस उद्देश्य को लेकर सत्यशोधक आंदोलन चलाने वाले जोतिबा और सावित्रीबाई फुले की मृत्यु के उपरांत उनके चिकित्सक बेटे को काफी परेशान किया गया, जिससे उसकी जल्दी मृत्यु हो गई और आज परिस्थिति पहले से विकट हो चली है। अनेक छोटे-छोटे जातिआधारित संगठन-सम्प्रदाय बन गए हैं। जोतिबा और सावित्री ने जो सोचा था कि शिक्षा के प्रचार-प्रसार से मनुष्य जातीय संकीर्णता के दायरे से बाहर निकल जाएगा, वह भ्रम साबित हो रहा है। शिक्षित व्यक्ति जात-पाँत के इन कटघरों का उपयोग अपने आर्थिक-राजनैतिक स्वार्थ के लिए कर रहा है।
बिना किसी विशेष प्रकाश एवं ध्वनि-प्रभावों के भी सिर्फ अभिनय और वाणी के प्रभाव से भी दर्शकों के दिल-दिमाग को झकझोरा जा सकता है, ‘मैं सावित्रीबाई’ ने यह सिद्ध कर दिखाया। सुषमा देशपांडे द्वारा लिखित, निर्देशित एवं अभिनीत इस एक घंटा बीस मिनट के नाटक ने दर्शकों को आंदोलित कर दिया था। नाट्य प्रदर्शन के उपरांत दर्शकों के साथ सुषमा देशपांडे का संवाद हुआ। इसमें सुषमा ने इस बात पर दुःख व्यक्त किया कि जब उन्होंने यह नाटक शुरु किया, तब उन्हें उम्मीद थी कि जाति-भेद और लिंग-भेद की दीवारें धीरे-धीरे हटते जाने के साथ उनको यह नाटक करने की ज़रूरत नहीं रह जाएगी परंतु आज का परिदृश्य देखते हुए उन्हें लग रहा है कि इस नाटक के मंचन अलग-अलग अभिनेत्रियों द्वारा देश के कोने-कोने में किये जाने चाहिए क्योंकि जिन समस्याओं को दूर करने के लिए सावित्री-जोतिबा लड़े, वे अब और भी विकराल स्वरूप धारण कर रही हैं। खाप पंचायतों जैसी अनेक व्यवस्थाएँ समाज में जड़े जमा रही हैं, जो लोगों को अलग-अलग कर बाँटने में कट्टरता के साथ लगी हुई हैं। दर्शक-निर्देशक संवाद के दौरान एक सवाल किया गया कि क्या जोतिबा-सावित्री के इस काम से और इसतरह के नाटक करने से कोई परिवर्तन हो सकता है? सुषमा ने जवाब दिया कि ‘‘हाँ, निश्चित ही परिवर्तन होता है परंतु यह प्रक्रिया बहुत धीमी होती है। आज मैं जो आपके सामने बोल रही हूँ, उसके पीछे मुझे उपलब्ध हुई शिक्षा ही तो है। कोई भी सामाजिक परिवर्तन बहुत धीरे-धीरे होता है।’’
नाटक के उपरांत अंजोर पुणे की निर्देशक सुषमा देशपांडे को इप्टा के संरक्षक मुमताज भारती ने पुष्पगुच्छ एवं स्मृति-चिन्ह प्रदान कर सम्मानित किया। कार्यक्रम का संचालन किया विनोद बोहिदार ने।
लोक रंगमंच सामान्यतः ऊर्जा, उल्लास और रंगों से भरपूर होता है और जब इसे हरिशंकर परसाई जैसे व्यंग्यकार की लेखनी का सहारा मिल जाए तो एक जादुई संसार खड़ा हो जाता है। यह जादुई संसार तब और भी प्रभावशाली हो उठता है, जब इसमें किसी पौराणिक कथा को आधुनिक संदर्भ मिल जाता है। इप्टा रायगढ़ के इक्कीसवें राष्ट्रीय नाट्य समारोह की अंतिम संध्या में समागम रंगमंडल जबलपुर की प्रस्तुति ‘सुदामा के चावल’ ने सवा घंटे तक रामनिवास टाॅकिज के मंच पर रंगों, गतियों और वर्तमान राजनीतिक-सामाजिक विसंगतियों पर चुटीली टिप्पणियों की बौछार कर दी। एक-एक टिप्पणी पर दर्शकों द्वारा बजाई जा रही तालियाँ नाटक के कथ्य की स्वीकारोक्ति थीं।
यह नाटक हरिशंकर परसाई की एक छोटी सी कहानी पर आधारित था, जिसका रूपांतरण एवं निर्देशन किया था समागम रंगमंडल के युवा निर्देशक आशीष पाठक ने। इस नाटक में चित्रित सुदामा और कृष्ण अपने पौराणिक चरित्रों की परिधि लांघकर आधुनिक रंगों में रंगे हुए हैं। सुदामा अपने दोस्त कृष्ण से मिलने जब राजधानी पहुँचता है, उसे महसूस होता है कि कृष्ण से मिलना बहुत कठिन है। अपने प्रिय सहपाठी से मिलने की इच्छा व्यक्त करते ही बिचैलिये उसे घेर लेते हैं और रिश्वत मांगने लगते हैं। सुदामा की पोटली में बंधे थोड़े से पीले चावल लूट लिये जाते हैं। बहुत तंग होने के बाद जब अंततः वह अपने प्यारे मित्र से मिलता भी है, उसकी आशाएँ, उम्मीदें और आत्मसम्मान चुका हुआ होता है।
इस गीत-संगीत से भरपूर नाटक में लोक रंगमंच और सिनेमा की अनेक लोकप्रिय धुनें प्रयुक्त की गई हैं, अनेक लोगों के लोकप्रिय उद्धरण, संवाद और संबोधन प्रयुक्त हुए हैं, जो नाटक के नाट्यालेख के पैने व्यंग्य को और भी चमका रहे थे। अपने आसपास घटने वाली छोटी-छोटी विडंबनापूर्ण घटनाओं की याद दिला रहे थे। राजनीतिक नेताओं का ‘आम आदमी’ से टूटा हुआ संबंध और उसके प्रति उपेक्षा को पूरा नाटक रेखांकित करता है। कृष्ण से मुलाकात के लिए उसके इर्दगिर्द के लोग सुदामा से ‘खुरचन’ मांगते हैं, जिसका अर्थ वह नहीं समझ पाता। उसे बताया जाता है कि ‘‘शासन की कढ़ाई में जो मलाई चिपकी होती है, उसे राज्य के कर्मचारी खुरचते हैं ओर उसे ही खुरचन कहते हैं।’’ इसी खुरचन की लत शासन की योजनाओं का लाभ मूल हितग्राही तक नहीं पहुँचने देती। योजनाओं को लागू करने के लिए जिम्मेदार अधिकारी-कर्मचारी ही उसे हड़प जाते हैं।
आशीष पाठक के कसे हुए निर्देशन एवं सत्ताईस कलाकारों की ऊर्जावान टीम ने पूरे नाटक के दौरान दर्शकों को बांधे रखा। वेशभूषा, नृत्य-गीत-संगीत की पारम्परिकता ने आधुनिक संदर्भों की सम्प्रेषणीयता में कहीं भी बाधा नहीं पहुँचाई।
नाटक के उपरांत डाॅ. शरद अवस्थी ने इप्टा की ओर से निर्देशक आशीष पाठक को पुष्पगुच्छ एवं स्मृतिचिन्ह प्रदान किया। कार्यक्रम का संचालन किया अपर्णा ने। इस पूरे नाट्योत्सव के सफल आयोजन के लिए जिला प्रशासन, रामनिवास टाॅकिज के संचालक, शर्मा टेंट हाउस, रवि इलेक्ट्रिकल्स, नगर पालिक निगम तथा समस्त दानदाताओ और दर्शकों के प्रति आभार व्यक्त किया गया। इसतरह इप्टा रायगढ़ का यह इक्कीसवाँ राष्ट्रीय नाट्य समारोह अपने दर्शकों के दिलोदिमाग पर नाटकों की अमिट छाप छोड़ने में कामयाब रहा।

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