Saturday, January 17, 2015

गुमनामी में खत्म होते लोक कलाकार

प्रदेश में लोक कलाओं की समृद्ध परंपरा रही है। यूं कहें कि इन्हीं के बूते छत्तीसगढ़ की ख्याति दूरजराज तक पहुंची है, तो अतिशयोक्ति न होगी। लेकिन जिंदगी की जद्दोजहद में इन कलाकारों की न सिर्फ कला लुप्त हो रही है, बल्कि अनेक नामचीन कलाकार असमय ही मौत के शिकार भी हो रहे हैं। विगत 9 जनवरी को नाचा शैली का ऐसा ही अद्भुत कलाकार चैतराम यादव भी हमसे बिछुड़ गया। अपने पिता स्व.भुलवाराम की परंपरा को आगे बढ़ाने में चैतराम की जिंदगी भी खप गई। वैसे कहें तो गोविंदराम, रामचरण, भुलवाराम, चैतराम जैसे अनेक कलाकारों ने गुमनामी की जिंदगी में बिना किसी सुविधा के अपना जीवन त्याग दिया।

हबीब तनवीर के नया थिएटर के ऐसे चंद कलाकार अब भी जिंदगी से जूझते हुए अपना समय गुजार रहे हैं।कहने को तो शासन ने चिन्हारी योजना के जरिए ऐसे कलाकारों को चिन्हित करने का प्रयत्न किया किंतु इनके हालात में सिर्फ और सिर्फ मुफिलसी ही नसीब में आई। यह भी विडंबना ही है कि सहायता के नाम पर ऐसे कलाकारों को महज 1500 रुपए प्रतिमाह मुहैया किए जाते हैं। जाहिर है कि इतनी कम राशि में न तो गुजर­बसर हो पाता है, न ही इनका इलाज। यह इसलिए भी चिंताजनक है चूंकि चंद मिनटों के प्रदर्शन के लिए बॉलीवुड की हस्तियों को जिस मंच पर करोड़ों रुपयों से नवाजा जाता है, उसी राज्य में प्रदेश को पहचान दिलाने वाले लोक कलाकार दाने­ दाने को मोहताज हैं। मुझे याद है कि नया थिएटर के सुपिरिचत कलाकार रामचरण निर्मलकर को आंखों के इलाज के लिए इप्टा रायपुर ने बीस हजार रुपयों की मदद की थी।इसी तरह प्रदेश के मोहम्मद रफी के नाम से प्रख्यात शेख हुसैन ने भी अपने अंतिम वक्त में इसी तरह संघर्ष करते हुए इस दुिनया से विदाई ली थी।

इन कलाकारों की विशेषता यह भी रही कि तमाम विसंगितयों के बावजूद इन्होंने बार­बार लौटकर अपनी कला की पक्षधरता ही की। जीवन यापन के लिए या बैंक बैलेंस बनाने की चिंता इन्होंने कभी नहीं की। भले ही इन्हें पद्मश्री से सम्मािनत किया गया, किंतु इनकी  जीवन शैली जैसी थी, वैसी ही बनी रही। अपनी कला के लिए इतना समर्पण करने वाले दरअसल इसमें ही अपनी सांसे खोजते थे। क्या यह समर्पण सम्मान पाने का हकदार नहीं है? खास तौर पर यह इसिलए भी कहना पड़ता है चूंकि छत्तीसगढ़ की कला संस्कृति ने अब बॉलीवुड की दहलीज पर भी दस्तक दे दी है। किंतु खेद के साथ कहना पड़ता है कि पीपली लाइव का नत्था रातोरात स्टार बनकर फिर से गुमनामी में खो जाता है। ऐसे कितने ही नत्था आज इस प्रदेश में जीवकोपार्जन के लिए मशक्कत कर रहे हैं।

दरअसल संस्कृति विभाग ने ऐसे कलाकारों के लिए चिन्हारी नाम से एक योजना चलाई थी। इनमें लोक
कलाकारों को चिन्हित कर उन्हें प्रतिमाह सम्मानजनक राशि देने का प्रावधान था। किंतु अधिकारी बदलते ही यह योजना भी ठंडे बस्ते में चली गई। वर्तमान में इन कलाकारों को नाममात्र 1500 रुपए की राशि देकर संस्कृति विभाग अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर रहा है। सोचने वाली बात यह भी है कि सुदूर अंचल में रहने वाले कलाकार इस राशि को लेने के लिए विभाग तक पहुंचने में ही इससे ज्यादा का व्यय कैसे करेंगे? इसमें भी विभाग में इन्हें कितनी तवज्जो मिलेगी इसका कोई भरोसा नहीं है। जाहिर तौर पर अपनी कला में माहिर कोई भी कलाकार स्वाभिमानी होता है। विभाग में इतनी अल्प राशि के लिए चक्कर काटना उसे गवारा नहीं होगा। थक हारकर वह इसकी भी उम्मीद छोड़ देता है।

स्व. जैतराम यादव की श्रद्धांजलि सभा में ऐसे कलाकारों को चिन्हित करने के अलावा प्रदेश स्तर पर
कलाकारों को संगिठत करने के भी सुझाव आए। इनमें एक सुझाव यह भी था कि इन कलाकारों को पंचायत स्तर पर ही सम्मान के साथ सहायता राशि मुहैया कराई जाए। यह व्यवस्था कर्नाटक, केरल जैसे राज्यों में
प्रभावी है। यदि इस तरह की सुविधा इन कलाकारों को मिले और इनकी सहायता राशि को सम्मानजनक कर दिया जाए तो कोई वजह नहीं कि अपने अंतिम काल में इन्हें इस तरह मशक्कत करना पड़े।

प्रदेश में एक वक्त मनोरंजन के नाम पर केवल रेडियो ही एकमात्र साधन हुआ करता था। उस वक्त गांवों में रात­रात भर नाचा मंडिलयों के प्रदर्शन न केवल जनजागरण का माध्यम होते ते बल्कि इनके जरिए सार्थक मनोरंजन भी होता था। रंगनी नाचा मंडली, रामचंद्र देशमुख की मंडली जैसे अनेक नामचीन मंडिलयां प्रदेश में अपनी कला के बूते पहचानी जाती थीं। विशेष तौर पर ऐसे कलाकार जिन्होंने हबीब साहब के साथ या फिर किसी नामचीन नाचा मंडली के साथ काम किया हो, कम से कम इन्हें अब यदि सम्मान न मिला तो कब मिलेगा? लिहाजा मुफिलसी की जिंदगी जीने वाले इन कलाकारों के लिए भी छत्तीसगढ़ का बनना सार्थक होगा।

(लेखक रायपुर इप्टा से संबद्ध हैं)

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