Thursday, January 8, 2015

कला जब भी उत्पाद के रूप में आयेगी, उसका पतन तय है

पंकज दीक्षित से बसंत त्रिपाठी 
की बातचीत

सबसे पहले आप ये बताइए कि रंगो की दुनिया में आने से पहले वे कौन -सी चीजें थीं जिन्होंने आपके चित्रकार को बनाने में प्रेरक की भूमिका निभायी?
सीधी बात ये है कि बचपन में जैसे हर बच्चा करता है वैसे काम तो करता ही रहता था। बच्चों की बहुत -सी  पत्रिकाएँ आती रहती थी जैसे पराग,नंदन, लोटपोट आदि-आदि तो उसमें से देख देख के चित्र बनाता रहता था। शुरूआत तो इसी से हुई। मुझे चित्र बनाना अच्छा लगता था। एक बात और बताऊँ, मै कक्षा आठ तक एक बहुत छोटे से गाँव जसमरा में पढ़ता था जहाँ न सड़क थी,न बिजली। मम्मी की वहाँ नौकरी लगी थी और मै मम्मी के साथ वहीं रहता था। गाँव जसमरा चम्बल नदी के किनारे था और बिल्कुल बीहड़। सड़क तक पहुँचने के लिए 8.10 कि.मी पैदल चलना पड़ता था। गाँव हालांकि पिछड़ा माना जाता था लेकिन वहाँ की लायब्रेरी बहुत अच्छी और सम्पन थी। वहाँ उस समय की सारी महत्वपूर्ण पत्रिकाए जैसे  धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, दिनमान वगैरह आते रहते थे। प्रेमचंद, यशपाल, जैनेन्द्र से लेकर नए से नए रचनाकारो की किताबें उपलब्ध थीं। चूंकि वहाँ बहुत अकेलापन था, स्कूल भी गाँव से बहुत बाहर था, इसलिए भी मुझे पढ़ने की लत लगी। यशपाल का उपन्यास‘दादा कामरेड‘ तो मैंने उन दिनों वैसे ही बैठे-बैठे पढ़ लिया था। पत्रिकाओं में चित्र देखा करता था, कविताएँ भी पढ़ता रहता था तो इस तरह थोड़ा बहुत माहौल बनने लगा था।

इस तरह के माहौल में चित्र बनाने की शुरूआत आपने कैसे की?
ह लगभग 1987.88 की बात होगी। उस समय राज्य भर में प्रलेस की नई इकाइयाँ बनाने की बात चल रही थी। यहाँ पवित्र सवालपुरिया थे, गुना जिले के प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े थे। कुमार अंबुज उन दिनों मुगावली में थे। उन्हीं दिनो वो अशोक नगर आये हुए थे क्योकि यहाँ भी इकाई बनाने की बात चल रही थी। उस समय तक वे हमारे लिए अजनबी ही थे। उन्होंने कुछ छोटे-मोटे रचनापाठ इकाई बनने से पहले किए। उन्हीं दिनाों जब उन्होंने चित्र बनाने के बाबत पूछा तो मैने बताया कि कुछ रेखाएं वगैरह खींचता रहता हूँ। तब उन्हाेंने  कुछ कविताएँ चुनने और उन पर पोस्टर बनाने के लिए कहा। ये हमने बिल्कुल नई चीज सुनी। संगठनों के नाम भी मैंने उन दिनों पहली बार ही सुने थे। 1988 मे यहाँ इकाई बनी और 1989 में गुना में राज्य सम्मेलन हुआ। तब वहाँ पहली पोस्टर प्रदर्शनी लगाई गई। उसमें मेरे अलावा मुकेश बिजौले और अनिल दुबे ने भी पोस्टर बनाए थे। उस समय समझ नहीं आता था कि कैसे बनाएँ, तो कविता मे जो आता उसी को पोस्टर में ले आते थे। जैसे यदि कविता मे जूता आ गया तो पोस्टर में एक जूता बना दिया या कविता मे हंटर से मारने का कोई ब्यौरा है तो एक ऐसा पोस्टर बना दिया जिसमें एक आड़ा-टेढ़ा आदमी किसी को हंटर से मार रहा है। बहरहाल जैसे -तैसे हमने बनाया। उस प्रदर्शनी का उद्घाटन पुन्नीसिंह ने किया था। उसके तुरंत बाद एक दूसरा कार्यक्रम हुआ। उसमें भाऊ समर्थ जी आ आए। उनका आना हमारे लिए एक टर्निंग पाइंट था। हमने सारे चित्र नए सिरे से बनाए। भाऊ समर्थ तीन दिन अशोक नगर मंे रहे। काम का अंदाज कुछ यूँ था कि एक ड्राइंग शीट पर बनाओ। हमारे लिए ये बहुत मुश्किल था। समझ में नही आता था कि इतना बड़ा  चित्र कैसे बनाया जाए? भाऊ समर्थ हमारे साथ लगातार बैठते रहे, बहुत प्रेरित किया। उन्होने मुझसे कहा कि तुम्हारे पोस्टर मुझे इसलिए अच्छे लग रहे हैं क्योकि अब तक जो पोस्टर मैनें देखे हैं उनमे चित्रकला का प्रदर्शन तो बहुत होता है लेकिन कविता केवल ठूँस दी जाती है। कई बार वे सरकारी सूचनाओं की तरह लगती है, लेकिन तुम कविता को बहुत दूर तक फालो करते हो। क्या अगली बार मैं जब तुमसे मिलूँ तो मुझे हजार रेखांकन बना कर दे सकते हो? यह  बिल्कुल मत सोचना कि ये अच्छी है या बुरी। भाऊ समर्थ का प्रोत्साहन आज भी मेरे साथ है और तब से आज तक कोई ऐसा दिन नहीं गया जब मैं कविता पोस्टर के बारे मे न सोचूँ।

क्या उन दिनो आपने रंगो या रेखाओं के संयोजन से जुड़ी अन्य बातें भी उनसे की, जिसे हम चित्रो का व्याकरण भी कह सकते है?
मारी उतनी समझ तो उन दिनों थी नहीं। दरअसल हम उनके सामजिक व राजनैतिक कामों से बहुत प्रभावित थे। आप कह सकते हैं कि हमने भाऊ समर्थ का नाम ही सुना था और वे हमारे बीच थे। चित्रकला के संस्थानो से निकल कर जो नए -नए लड़के चित्र बना रहे थे,  बहुत से लोग जो बाजार की मांग के अनुरूप अजीब-अजीब से रंग बिखेर कर चित्र बना रहे थे -एक तरह से कला का उत्पादन कर रहे थे, इससे वे बहुत हताश थे। उन्होंने इससे बचने की  सलाह भी दी थी। यह सलाह आज भी मेरे साथ है।

आज ये मानने में किसी को भी इंकार नही होगा कि कविता पोस्टर और उसके साथ कहानी-आलोचना-निबंध-उपन्यास यानी गद्य-पोस्टर आप ही के  माध्यम से पूरे हिन्दुस्तान में जाने जाते हैं। जब इन्हें पोस्टर में रूपांतरित करते हैं तो आपके सामने मुख्य रूप से क्या होता है?
बसे पहले तो मैं यह बताना चाहता हूँ कि पोस्टर बनाने की मुख्य वजह इन पंक्तियो के प्रति लोगों को आकर्षित करना ही होता है। आप कागज पर केवल पक्तियाँ लिख दें और कहीं टाँग दे तो कोई शायद उसे न देखे लेकिन आप उसी कागज पर सामान्य रूप से कुछ रंग छींट दें तो और फिर उस पर लिखें तो लोग जरूर आकर्षित होते हैं। आज साहित्य के प्रति लोगों की जो उदासीनता दिख रही है, शायद वह भी मेरे अवचेतन में कहीं-कहीं रही होगी। इसीलिए मैंने अपने शुरूआती पोस्टर चौराहों में लगाए। एक बार तो एक निश्चित जगह पर रोज लगभग  साल भर तक लगातार पोस्टर लगाता रहा। लेकिन एक बात और बताऊँ कि  कविता पोस्टर बनाने की एक सीमा भी है। कई बार कविता बहुत अच्छी होती है, लेकिन उसका पोस्टर बन नहीं पाता। इसका दुख भी होता है।

रंग अमूर्त होते हैं जबकि शब्द अपेक्षाकृत मूर्त होते हैं, क्योंकि उसके निश्चित अर्थ होते है। जब आप कविता की पक्तियों और रंगो को चुनकर एक पोस्टर बनाते है तो दोनों के बीच संतुलन कैसे बनाते हैं? इन दोनाें विधाआें को एक कृति के भीतर आप कैेसे साधते हैं?
जिन लोगाें ने मेरे पोस्टर देखे हैं वे अक्सर कहते हैं कि कविता की पक्तियो और चित्राें का तालमेल बहुत अच्छा है। इनमें परिचित भी होते हैं और नितांत अपरिचित भी। दरअसल मेरे दिमाग में पंक्तियों को पढ़कर जो भाव आता है, मैं चाहता हूँ कि वही रंगाें या रेखाओं के माध्यम से पोस्टर का हिस्सा बनें। जैसे एक बड़ी भीड़ को कोई संबोधित कर रहा हो तो मैं कुछ छोटे छोटे गोले खींचकर एक बड़ा लाल गोला खींच दूंगा, जिससे यह भाव स्पष्ट हो जाता है। इसके कारण कविता पढ़ने और समझने में मुझे जितनी मेहनत लगती है उतनी रंगों को साधने में नहीं। पंक्तियों का जो भाव मेरे भीतर आकार लेता है, उससे ही मैं पोस्टर बनाता हूँ।

पोस्टर के लिए जब आप टैक्स्ट या पंक्ति चुनते हैं तो किस तरह की पक्तियाँ आपको ज्यादा पंसद आती है या आपके चुनाव का आधार क्या होता है?
मूमन मैं जो पक्तियाँ चुनता हूँ वो समकालीन कविता से ही होती हैं।कई बार अपने पसंद के कवियो को चुनता हूँ। पक्तियाँ चुनते समय मेरे दिमाग में अकादमिक कार्यक्रम नही होते, बल्कि साधारण लोग ही होते हैं और पोस्टर भी मैं सामान्य तौर पर ऐसा ही बनाता हूँ जिन्हें मैं स्कूल-कालेज या चौराहों में भी लगा सकूँ-अर्थात वे आसानी से संप्रेषित हों। साथ ही इस बात को भी   ध्यान में रखता हूँ कि पक्तियाँ महत्वपूर्ण हों, खराब व्यवस्था का प्रतिवाद करती हों और जिनमें मनुष्य के प्रति पक्षधरता स्पष्ट दिखाई पड़े। जो मनुष्य को परिवर्तन के लिए प्रेरित करे। तो  साधारणतः मैं ऐसी ही पक्तियाँ चुनता हूँ। कई बार आयोजन के स्तर और संभावित प्रेक्षक को ध्यान में रखते हुए भी पंक्तियों को चुनता हूँ। जैसे प्रलेस या साहित्य अकादमी या चौराहे पर लगाने के पोस्टर बनाते समय मैं इन आयोजन स्थलों को भी ध्यान रखता हूँ, पर इसे अपने ऊपर दबाव की तरह हॉवी  होने नहीं देता।

जब आप कविता पोस्टर बनाते हैं तो आपका मूल उद्देश्य क्या होता है? लोग रंगो के प्रति आकृष्ट होकर आएँ और कविता या गद्य पढ़ लें या इसे कला की एक विधा के रूप में देखे ओर परखें?
जिसके लिए पोस्टर बना है मेैं सबसे पहले उस पर ध्यान देता हूँ। यदि वह कविता पोस्टर या गद्यपोस्टर है तो उसमें प्रभावी तो कविता या गद्य होना ही चाहिए। कई लोग इसे फैशन के तौर पर भी लेते हैं कि मुझे मूल रूप से पेन्टिंग बनानी है, लेकिन प्रयोग करने के लिये बगल में कुछ लिख दिया। इसे मैं ठीक नहीं मानता। आप मत लिखिए, महज पेन्टिंग ही बनाइए। मेरा मानना है कि कविता या गद्य पूरी तरह से खुलकर दिखना चाहिए और चित्र के बहाने उसे ठीक तरह से पढ़ा जाना चाहिए। कविता पोस्टर की प्रदर्शनी लगाते समय भी मेरे जेहन में यही बात होती है कि लोग चित्र के बहाने एक अच्छी चीज को पढ़ लें, जिससे कि वे दूर होते जा रहे हैं।

किन कवियों की कविताआें का पोस्टर बनाना आपको चुनौती की तरह लगता है?
घुवीर सहाय, विष्णु खरे, मंगलेश डबराल और कुमार अंबुज : जिनमें अतिरिक्त गंभीरता है। उनकी कविताओ के पोस्टर मुझे चुनौती की तरह लगते है।

पोस्टर में आप के पसंदीदा रंग कौन-से है?
काला और लाल रंग अमूमन मैं ज्यादा पसंद करता हूं।

क्या आप इन रंगो के मूड्स के अनुरूप पंक्तियों को ज्यादा चुनते हैं या पोस्टर बनाते समय रंग स्वाभाविक रूप से प्रयोग में आते चले जाते हैं?
लाल तो देखिए, हर कविता में फब जाता है उसके साथ कुछ पीला और काला भी, लेकिन कविताओ के मूड के अनुरूप मैं रंग चुनना ज्यादा पंसद करता हूँ और इस मामले में थोड़ी सर्तकता भी बरतता हूँ।

पोस्टर के अलावा आपने कोलाज और रेखाचित्र भी काफी बनाए हैं। कोलाज आप कैसे बनाते हैं? क्या कोई कोलाज तय करने के बाद आप मटेरियल तलाश करते हैं या जो सामग्री जमा हो गई है उसे ही किसी कोलाज का रूप दे देते हैं?
कोलाज तय करने के बाद मटेरियल की तलाश करना कई बार बहुत थकाने वाला और उबाऊ काम भी हो सकता है। पर्यात्त सामर्ग्री न मिलने के कारण उतना प्रभावी भी नहीं बन पाता और संतुष्टि भी नहीं मिलती। इसकी बजाय मुझे अपने पास जमा हुई चीजों का  अध्ययन करते रहना और बाद में कोई रूप देना ज्यादा अच्छा लगता है। वैसे मेरे जितने भी कोलाज हैं उनमें कोई खास अमूर्तता आपको नहीं दिखाई पड़ेगी। यानी एक चेहरा है तो वह कोलाज में दिखाई पड़ेगा। मेरे पास जितनी भी चीजें हैं उनमें मैं तलाशता रहता हूँ कि इनसे क्या बेहतर बन पाएगा? बहुत से चित्रों को जमा करें तब जा के कोई एक कोलाज मुश्किल से बन पाता है। और कई बार तो जब कोलाज बनना शुरू होता है तो जैसा हमने सोचा था वो खत्म भी होने लगता है। मूल भाव बचा रहे लेकिन जैसा आप बनाना चाहते थे उसकी जगह कुछ और भी बन जाता है।

मुझे लगता है पेंटिंग के बजाय, उसका कला समाज और कला बाजार में चाहे जो मूल्य हो, कविता पोस्टर और कोलाज ज्यादा मुश्किल विधा है।
बिल्कुल। यदि आपके पास रंग है, ब्रश है और कागज या कैनवास भी, तो आप जैसा सोच रहे हैं वैसा बनाते चलते है। लेकिन कोलाज बनाते हुए तो आपको सामग्री पर निर्भर रहना पड़ता है। आप कोई काम कर रहे हैं और आपको लगता है कि काश मुझे इस रंग का कोई टुकड़ा मिल जाता। और नहीं मिलता है तो वो चीज फिर अधूरी रह जाती है। कई बार आपको ध्यान आता है कि मेरे पास एक कैलेण्डर पड़ा तो था और आप फिर सब कुछ छोड़कर उसे ढूँढने लग पड़ते हैं और आपका सारा काम धरा रह जाता है।

रेखांकन बनाते समय आप अपने मूड को रेखाओं में कैसे रूपांतरित करते हैं?
मैं यदि दस मिनट भी अपने घर मे खाली बैठा हूँ तो पेन और कागज लेकर बैठ जाता हूँ। इसका मतलब ये नहीं कि मैं कोई चित्र बना ही लेता हूँ या बनाना ही चाहता हूं लेकिन ये चीजे मेरे साथ होती हैं। रेखाकंन के संदर्भ में भी मैं सबसे पहले भाऊ समर्थ को याद करूँगा। भाऊ समर्थ जब यहाँ आए और मुझे अच्छे भी लगे, तब मैंने भाऊ के चित्रो को देखना शुरू किया। उस समय की सभी लघु-पत्रिकाओं में रेखांकन और चित्र छपते थे। भाऊ समर्थ के चित्रों में काले और सफेद का जो तालमेल था, वो मुझे बड़ा अद्भुत लगता था। हालांकि मैने उनके जैसे चित्र कभी नहीं बनाए लेकिन मुझे उनकी चीज बड़ी अच्छी लगती थी। शुरूआती दौर में मैं लीड पेंसिल की बजाए ब्रश से रेखांकन बनाता था। ब्रश को अगर स्याही में डुबोकर पन्ने पर घुमाया जाए तो अपने आप ही आकृतियाँ बनने लगती हैं। मुझे वह उस समय काफी आसान लगता था। लेकिन बाद में मैंने लीड से काम करना शुरू किया। इसमें प्रलेस और इप्टा की बड़ी भूमिका है। मेरा विचार पक्ष भी इन्ही कार्यक्रमों में लगातार आने -जाने के क्रम में विकसित हुआ। इसीलिए मैंने कला को कभी शुद्व कला के रूप में नहीं देखा। अपने आसपास को देखना समझना, जिस कस्बाई संस्कृति में रहता हूँ, उसकी बारीकियों को समझना और रेखाओं के माध्यम से प्रगट करना य मैं इस ओर से लगातार प्रयासरत रहा हूँ। इसीलिए आप मेरे चित्रों में ग्रामीण और कस्बायी जीवन के अनेक रूप देख सकते हैं। जैसे कई लोगो की भीड़, या श्रम करते मजदूर या खेताें में काम करते या उसकी मेड़ में बैठे किसान या अकेले और उदास घर मे या इसी तरह की अन्य चीजें। इसका एक कारण तो उन इलाकों में लगातार घूमना भी रहा है। अब तो कई बार चित्रों के नीचे मेरा नाम न भी छपा हो तो लोग जान जाते हैं कि ये मैंने बनाए हैं। आप इसे मेरी पहचान भी कह सकते हैं।

आपने जो विधा चुनी है उसकी एक दिक्कत यह भी है कि उसका मूल आपके पास सुरक्षित नहीं रह पाता। मसलन आपने कविता या गद्य पोस्टर बनाए तो वे दो- तीन के आयोजन के बाद नष्ट हो जाते हैं। इसी तरह रेखांकन या कोलाज भी हैं, जो पत्र-पत्रिकाओं में भेजे जाने के बाद वहीं के होकर रह जाते हैं और इससे आपको कोई व्यावसायिक लाभ भी नहीं पहुँचताय तो इससे आपको परेशानी या दुख नही होता? 
शुरू में तो बहुत होता था। हमारे यहाँ तो तब फोटोकॉपी भी अच्छे से नहीं हो पाती थी। तब भेजने मेें कोताही बरतते थे कि अपना चित्र है, अपने पास ही रहने दो। कविता पोस्टर भी दो-तीन आयोजनाें  के बाद लगने लायक नहीं रह जाते। कुछ सफर में खराब हो जाते हैं। शुरू में तो पोस्टर को बहुत सहेज कर भी रखा। दो टुकड़े भी यदि हो जाएँ तो उन्हें टेप लगाकार सहेज लेता था। लेकिन अब इस बात का दुख नहीं होता। लगता है कि चलो जिन्हें वे अच्छे लग रहे हैं उन्हीं के पास सुरक्षित हैं। तो अब वो आग्रह खतम हो गया कि मेरा पोस्टर मेरे पास ही रहना चाहिए। बस,यह प्रेम बचा है कि पोस्टर लगातार बनते रहना चाहिए।

आपने जो रेखाचित्र बनाए हैं, उसमें जो घर सीरीज के रेखाचित्र हैं, उनमें में एक खास बात यह देखता हूँ कि जो शेड आपने दिए हैं उनमें एक अजीब -सी उदासी, बेचारगी या अकेलापन छाया हुआ हैय तो इसके पीछे कोई खास तर्क है या ये यूँ ही आपके रेखाचित्रों में आते चले गए?
मैंने गाँवों या कस्बों के जीवन को जितना निकट से देखा उनमें आज मुझे कुछ उत्साहजनक दिखता ही नहीं है। चारो ओर जैसे एक उदासी छाई हुई है। शायद बचपन मे जिन दिनाें गाँवो में रहता था उन दिनों के दृश्य भी मेरे भीतर घर कर गए हों। गाँवाें में साधारण लोगों से मिलिए, वे आपको अपनी समस्याएँ ही सुनाते हैं, तो ये सारे भाव अपने आप मेरी श्रृंखला के रेखांकनाें में आते चले गए।

आप बीस साल से लगातार काम कर रहे हैं और गाँव और कस्बे आपके मुख्य मुद्दे भी रहे हैं। लेकिन विगत वर्शों में गाँव और कस्बों में जो तब्दीलियाँ आई हैं उसके कारण अपने काम की बनावट, मसलन रेखा-रंग-शेड, के संयोजन में किसी बदलाव को आप महसूस करते है?

गाँव और कस्बाें में गुजरे वर्षों में बदलाव तो हुए हैं। पहले समस्याएँ कुछ दूसरी हुआ करती थीं : जैसे पानी, बिजली, सड़क या स्वास्थ्य। लेकिन आज समस्याएँ दूसरी हैं। सड़क तो हर गाँव में है। हैंडपंप लगे हुए हैं। लेकिन आज ग्रामीणों की स्थिति पहले से ज्यादा बुरी हुई है। वह पहले से कहीं ज्यादा डरा और सहमा हुआ दिखता है, बोलने के पहले दस बार इधर-उधर देखता और सोचता है। भले ही हम विकास की बात करें लेकिन आज गाँव का छुटभैया नेता जिस तरह घूमता है पहले वैसा था ही नहीं। आज गाँव का चुनाव करवाना सबसे मुश्किल काम है। तो ये परिवर्तन और भी बुरा हुआ है। इसीलिए मेरे पहले के चित्राें में अकेले गाँव हुआ करते थे, लेकिन आज के चित्रों में आप देखेगें कि उनमें समूह भी हैं, जो डरे -सहमे हैं या उदास हैं या चुप हैं।

वैचारिक कार्यक्रमों और सांस्कृतिक-साहित्यिक आयोजनांे के अलावा आपकी प्रदर्शनियाँ और कहाँ-कहाँ लगीं और उनकी कैसी प्रतिक्रिया हुई?
मैं आपको इमानदारी से बताऊँ, मुझे बहुत दहशत होती है जब कोई कहता है कि आर्ट गैलरी बुक करवाकर कोई प्रदर्शनी लगाओ। मुझे वो माहौल देखकर ही डर लगता है। एक बार मैं दिल्ली की त्रिवेणी आर्ट गैलरी में गया था। वहाँ का जैसा माहौल था मुझे लगा कि मैं यहाँ से निकलूँ कैसे? और ये अभी -अभी की बात है। वहाँ का माहौल देखकर मुझे लगा कि ये कला किसके लिए है? वहाँ जो कलाकार साहब थे, वे एक कोने में टेबल-कुर्सी लगाकर कई सारी फाइलें लिए धीर- गंभीर मुद्रा में बैठे थे और लोगाें को टोह रहे थे कि हमारे काम का है या नहीं? वहाँ आप बात भी नहीं कर सकते। मैं किसी बात पर हँसा तो एक मुझे टोकने चला आया। तभी मैंने देखा कि एक लाल बत्ती पर कोई सवार आया और वह कलाकार फर्राटेदार अंग्रेजी में उसे अपने चित्रों की बारीकियाँ समझाने लगा। ठीक उसी तरह जैसे बसों के रुकते ही फेरीवाले दौड़े चले आते है। वे कलाकार साहब उसके सामने जैसे बिछे चले जा रहे थे। उसके जाने के बाद कलाकार महाशय फिर उसी गंभीर मुद्रा में आ गए। ऐसी कलादीर्घा में एक आम आदमी तो डर के मारे घुस नहीं सकता। ये सारे कलादीर्घा और उनकी कलाएँ ‘कला के लिए कला’ वाली ही होती हैं। फिर उनके दाँव-पेंच के मारे घुसा ही नहीं जा सकता। ये दाँव-पेंच भी बुरे होते हैं कि मीडिया कैसे आएगा, बाजार में जगह कैसे मिलेगी, दीर्घा में कितनी जगह मिलेगी-आदि। इसीलिए मैंने अपनी    अधिकतर प्रदर्शनी साहित्यिक या सास्कृतिक आयोजनों में ही लगाई या फिर स्कूल-कॉलेज या विश्वविद्यालयों में।अभी पिछले साल मुंबई मंे मुकेश बिजौले और हरीश वर्मा के बहुत आग्रह पर उनके ही साथ एक प्रदर्शनी लगी। मेरा बहुत आग्रह तो नहीं था लेकिन चूँकि मुकेश मुझे बहुत प्रिय हैं तो मैंने दबाव मे हाँ कर दिया कि चलो इसी बहाने दो-तीन दिन मुंबई घूम आया जाएगा। लेकिन उसकी शुरूआत ही मुझे अखरने लगी थी कि ये फ्रेम कतई नहीं चलेगा, कम से कम ढाई-तीन हजार के फ्रेम में चित्र होना चाहिए। काँच भी नहीं चलेगा, प्लास्टिक ट्रांसपेरेंट ग्लास से  बंधवाना होगा। यदि पुराने फ्रेम अच्छे भी है तो उन्हें तोड़कर गैलरी की शर्तों के अनुरूप फ्रेम करवाना होगा और ऐसा हुआ भी। मैं तो वहाँ खैर एक ही दिन टिक पाया लेकिन वहाँ का दृश्य भी वैसा ही था। इतनी शानदार बिल्डिंग, दरवाजा आप खुला छोड़ नहीं सकते। एक अलग ही वर्ग आ रहा है जिसे दस बार फोन किया गया है। फिर पत्रकार बुलाए गए। नए सिरे से मोलभाव हुआ। उसी समय मैंने मुकेश से कह दिया कि मेरी प्रदर्शनी लग गई, अब मुझे फिर कभी प्रदर्शनी के लिए मत कहना। दरअसल गैलरी के पूरे कल्चर से मुझे चिढ़ है। मेरा तो स्पष्ट मानना है कि कला जब भी एक उत्पाद के रूप मे, एक माल के रूप मे आएगी और मांग के अनुरूप सृजित होगी तो उसका पतन निश्चित है। वहाँ वह कलाकार नहीं व्यवसायी होगा- फिर चाहे वह किराने की दुकान में बैठा हो या पेंटिंग लिए बैठा हो।

माँग तो संगठनों या साहित्यिक कार्यक्रमों से भी आती है ओर कला के बाजार से भीय तो आप दोनों माँगो में फर्क कैसे करते हैं?
माँग में फर्क मूलतः दृष्टि का है। पिछले दिनों मैंने रचनाकारों की जन्मशताब्दी के अवसर पर बीसियों पोस्टर बनाए, साहित्यिक और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में भी लगातार बनाते रहता हूँ। लेकिन वे काम महत्वपूर्ण थे और व्यवसाय के लिए नहीं बनाए गये थे। यदि आप लघु पत्रिकाओं से ये उम्मीद रखें कि वे आपको एक चित्र का हजार रूपये दे दें तो वे बिना चित्रों के ही पत्रिका छाप लेंगे और वही उनके लिए बेहतर भी होगा। तो यहाँ मेरी कला माल या उत्पाद के रूप में नही आ रही है। और यही दोनों तरह की माँगो का फर्क भी है।

आपके जो चित्र या कोलाज छपते रहे उनके प्रति संपादकों और पाठकाें की प्रतिक्रिया कैसी होती है?
संपादकों ने उदार भाव से एप्रिशिएट किया है। कहते भी हैं कि पंकज से सहयोग के मामले में कभी परेशान नहीं होना पड़ा। पारिश्रमिक सरकारी पत्रिकाों से जरूर मिलते रहे लेकिन लघु पत्रिकाआें से नहीं मिले और मेरा मानना है कि देना भी नहीं चाहिए क्योंकि जिस तरीके से वो निकलती हैं, ऐसे में उनका निकल जाना ही महत्वपूर्ण है। पाठक भी जब और जहाँ मिलते हैं, अपनी संतुष्टि जरूर जताते हैं।

आपने जो पोस्टर, कोलाज और रेखाचित्र का क्षेत्र चुना है, उसमें सबसे ज्यादा मजा आपको किसमें आता है?
बसे ज्यादा मजा मुझे कविता पोस्टर बनाने में आता है। वैसे मैं अपने तईं कविता पोस्टर और स्केच को एक दूसरे से अलग नहीं करता हूँ। कविता पोस्टर मैंने हजारों की संख्या में बनाए हैं और जहाँ तक छोटे पोस्टरों का सवाल है, मेरे घर मे जहाँ भी हाथ डालेंगे, पोस्टरों की गड्डी निकल आएगी।

क्या कला की दुनिया में एक चित्रकार की हैसियत से कमर्शियल दखल न रखने का मलाल या दुख कभी आपको होता है?
दुख क्यों होगा जब मैंने कभी उस और जाने का सोचा ही नहीं। बल्कि संतोष ही अधिक होता है। दुख तब होता है जब मौका न मिल रहा हो। मुझे तो मौका भी मिला जिसे मैंने छोड़ा। अब आर्ट गैलरी में है ही क्या? बस पैसा ही तो खर्च करना है और कोई खास प्रतिभा भी दिखानी नहीं है।

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