Tuesday, March 31, 2015

मंदराजी दाऊ का नाचा होने पर चोरों की बन आती थी

-योग मिश्रा

नाचा ने कला जगत को विश्वस्तरीय कलाकार भी दिए हैं । उनकी अभिनय क्षमता किसी भी सर्वश्रेष्ठ कलाकार से जरा भी कम नही आँकी जा सकती, लेकिन नाचा के न जाने कितने कलाकार उच्चकोटि की कला क्षमता रखते हुए भी व्यापक रूप में नही जाने जाते और गुमनाम रह जाते हैं या अपने क्षेत्र तक ही जाने जाते हैं । लोकप्रियता और कीर्ति के नागर प्रतिमानों से वे परखे नही जा सकते । उनकी गुमनाम रचनाशीलता इतिहास के अँधेरे में गुम जाने के लिए अभिशप्त है । सदियों से ऐसे अनगिनत कलाकार हमारे समाज में जन्म लेते रहे हैं पर हम उन्हें नही जानते जिन्होंने अपना सर्वस्व कला और संस्कृति की सेवा में होम कर दिया । हमारे संस्कृति बोध को जिन्होंने परिष्कृत किया है, हमें परम्पराएँ दी । सच कहा जाए तो हमारी परम्परा हमारे पुरखों का दान है और हमारी लोक कलाएँ और लोक परम्पराएँ ऐसे ही अज्ञात पुरखों की देन है । नाचा के अनगढ़ स्वरूप को रूप देने वाले और छत्तीसगढ़ी नाचा के खड़े-साज परम्परा के जनक स्व. मंदराजी दाऊजी की आज जयंती है । इस अवसर पर उनके गृहग्राम रवेली में उनके साथी कलाकार हर साल जुटते हैं और अपने कार्यक्रम प्रस्तुत कर दाऊजी का पुण्य स्मरण करते है । 

दाऊजी अपने नाचा कार्यक्रम में तत्कालीन समाजिक बुराइयों को गम्मत के माध्यम से मनोरंजक तरीके से समाज के सामने उजागर करते थे । उनके गम्मत में प्रमुख हैं -"मेहतरीन" जो छूआछूत पर था जिसे बाद में हबीब साहब ने "पोंगा पंडित" के नाम से किया, जिस पर काफी विवाद भी मचा था । "बुढ़वा विवाह" नकल में में वृद्ध और बालिका विवाह रोकने का संदेश था । बाद में हबीब साहब ने "बुढ़वा बिहाव" और "देवारिन" नकल को मिलाकर "मोर नाम दमाद गांव के नाम ससुराल" नाटक बनाया । "ईरानी" गम्मत में हिन्दू-मुस्लिम एकता का संदेश होता था । "मरारिन" गम्मत में देवर-भाभी के पवित्र रिश्ते को समाज के सामने माँ-बेटे के रूप में रखा ।
दाऊजी ने १९४२ के स्वतंत्रता आन्दोलन के समर्थन में भी कुछ राष्ट्र भक्ति के गीतों को अपने कार्यक्रमों में शामिल किया था । उनकी नाचा पार्टी में तत्कालीन स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के आंदोलन का प्रभाव भी था । इसलिए कई स्थानों पर इनके नाचा प्रदर्शन पर प्रतिबंध भी लगाया गया था । मँदराजी दाऊ ने खड़े-साज की नाचा परम्परा को बैठक-साज में तब्दील कर, हारमोनियम और चिकारा को नाचा में शामिल कर नाचा के संगीत पक्ष को सबल किया और नाचा को समय-समय पर परिष्कृत कर एक नई ऊंचाई पर ला खड़ा किया । नाचा में उनके प्रयोगों को व्यापक लोक-प्रसिध्दि मिली ।

नके साथी बताते थे कि उनकी पार्टी का नाचा देखने आस पास के गांव के गांव उमड़ पड़ते थे ऐसे में चोरों की बन आती थी । एक बार दाऊजी को भी चोरों से सांठगांठ के संदेह में पकड़ा गया फिर असलियत सामने आने पर छोड़ भी दिया गया । दाऊजी के नाचा पार्टी के कार्यक्रमों की पूर्व सूचना पुलिस को देनी पड़ती थी और गांवों में पुलिस गस्त लगाई जाती थी ताकि सूने गांव का फायदा चोर न उठा सकें । नाचा के विकास पुरूष मंदराजी दाऊ ने अपनी सारी धन-संपत्ति नाचा के जुनून के भेंट कर दी । अपना सबकुछ खोकर उन्हें लोक कला कि यह सिध्दि मिली । धन ने साथ छोड़ा तो साथी संगी भी साथ छोड़ गए । उनकी रवेली पार्टी इतिहास के गर्त में खो गई । वे मान सम्मान से वंचित होते चले गए । फिर भी अपने अंतिम दिनों तक वे असंगठित नाचा पार्टियों में संगत शिरकत करते ही रहे । आज उनके बाद अब गाँव में उनका परिवार बड़ी तंगहाली में गुजर कर रहा है ।
यहाँ कोई संस्कृति विभाग, सचमुच में कहीं बना भी है क्या ? भला किसके लिए है यह संस्कृति विभाग ? कला के लिए ? कलाकार के लिए ? या कला के कोचियों के लिए ?

Monday, March 30, 2015

भिलाई इप्टा द्वारा पंडवानी कलाकार उषा बारले का सम्मान

भिलाई , इप्टा द्वारा नेहरू सांस्कृतिक भवन सेक्टर - 1 में भिलाई इस्पात संयंत्र के खेल,सांस्कृतिक एवं नागरिक सुविधाएँ विभाग के सहयोग से आयोजित विश्व रंगमंच दिवस समारोह में इप्टा के मंच से प्रसिद्द पंडवानी गायिका एवं लोक कलाकार उषा बारले का सम्मान किया गया । कार्यक्रम के मुख्य अतिथि प्रसिद्द भजन/ ग़ज़ल गायक प्रभंजय चतुर्वेदी थे । शरद कोकास,प्रदीप शर्मा भी इस अवसर पर विशेष अतिथि के रूप में उपस्थित थे। 

इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव जितेंद्र रघुवंशी को समर्पित इस आयोजन में इप्टा के प्रांतीय महासचिव राजेश श्रीवास्तव ने विश्व रंगमंच दिवस के आयोजन एवं सन्देश की जानकारी दी । मुख्या अतिथि प्रभञ्जय चतुर्वेदी ने इस आयोजन के लिए इप्टा को साधुवाद दिया साथ ही दर्शकों की कम उपस्थिति पर अपनी चिंता भी व्यक्त की । उषा बारले ने भी आयोजन की प्रशंसा की एवं अपने सम्मान के प्रति इप्टा का आभार व्यक्त किया । 

आयोजन के दूसरे चरण में भिलाई इप्टा के कलाकारों ने मोहित चट्टोपाध्याय के लिखित नाटक "सुन्दर" का मंचन किया । मूल बंगला नाटक का हिंदी रूपांतरण भिलाई इप्टा के रणदीप अधिकारी ने किया । भारत भूषण परगनिहा और सुनील मिश्रा के संगीतबद्ध और निशु पाण्डेय द्वारा निर्देशित इस नाटक में रूचि गोखले,सोनाली चक्रवर्ती,अर्चना ध्रुव,राजेश श्रीवास्तव,अनिल साहू,सागर गुप्ता,अत्ता -उर-रहमान,श्याम वानखेड़े,पोषण साहू,जगनाथ साहू,जितेंद्र,नरेंद्र,विक्रम, ने अलग अलग भूमिकाएं अभिनीत कीं । संदीप गोखले, शैलेश, सुबास, रोशन, डैडी के सहयोग से मंचित इस नाटक का दर्शकों ने भरपूर लुत्फ़ लिया । मंच संचालन सोनाली चक्रवर्ती ने किया । 

-राजेश श्रीवास्तव

Friday, March 27, 2015

किसानी, आत्महत्या आैर रंगमंच

ज़ेबा हसन
खनऊ। हाल ही में शहर आईं फिल्म और टीवी एक्टर इला अरुण ने कहा कि भारत में लोग रंगमंच को नौकरी की तरह नहीं लेते हैं जबकि लखनऊ के पुराने रंगकर्मियों का मानना है कि अगर हम कोई नौकरी न कर रहे होते तो शायद कभी थिएटर न कर पाते। थिएटर में इतना पैसा नहीं है कि लोग सिर्फ रंगमंच के जरिए अपनी जिंदगी चला सकें। आज विश्व रंगमंच दिवस है। इस मौके पर हमने रंगमंच की पुरानी संस्था इप्टा से जुड़े उन लोगों से बात की, जो कभी नीम के पेड़ के नीचे तो कभी गली की नुक्कड़ पर रिहर्सल करते थे। फंड की कमी से झूझते ये आर्टिस्ट कहते हैं कि रंगमंच हमारी जिद है।

सुरमई शाम, नीम का पेड़ और नाटक की रिहर्सल। कैसरबाग स्थित इप्टा कार्यालय में नाटकों का यही अंदाज कई दशक से चला आ रहा है। देश के कई बड़े आंदोलन और गम्भीर मुद्दों के साथ जुड़ी इप्टा संस्था आज भले ही तंगी की मार झेल रही हो लेकिन आज भी इप्टा की शामें उसी अंदाज में लिपटी नजर आती हैं। इप्टा के महामंत्री प्रदीप घोष ने बताया कि 1986 में हमने इप्टा शहर में रिवाइव किया था लेकिन बात नहीं बनी। लोग दूर हो गए और संस्था में एक खालीपन आ गया। 1992 से हमने एक बार फिर एक होकर इप्टा की नींव मजबूत की जो आज तक कायम है। जो जॉब में थे वे अब रिटायर होकर पूरा समय संस्था में गुजार रहे हैं।

एचएएल से रिटायर प्रदीप घोष कहते हैं कि रंगमंच की यहां इतनी बुरी स्थिति है कि अगर थिएटर करने वाला कोई दूसरा काम न करे तो वह थिएटर से घर नहीं चला सकता। मैं नौकरी में था, ऑफिस से छूटते ही कैसरबाग पहुंच जाता था। मुझे फिक्र नहीं थी कि महीने भर बाद अपने परिवार को कैसे खिलाऊंगा। अगर जॉब न होती तो थिएटर का शौक कब का रफूचक्कर हो गया होता। अब तो रिटायर हो चुका हूं। अपना ज्यादा से ज्यादा वक्त यहीं देता हूं। कम उम्र में लगा यह शौक अब जिद बन गया है।

प्रदीप कहते हैं कि हमारे कार्यालय में बहुत सारे पेड़ लगे हैं लेकिन एक नीम का पेड़ है, जिसके नीचे कई बड़े दिग्गजों ने रिहर्सल की है। यहां सिर्फ एक ही कमरा है और हम आज भी उसी नीम के पेड़ के नीचे ही रिहर्सल करते हैं। बस हमने एक बार 25 बाई 25 का चबूतरा जरूर बनावाया है लेकिन छत आज भी नहीं पड़ी। हमें यही खुशी है कि आज भी इप्टा की प्रस्तुती को पसंद किया जाता है। युवा भी हमसे जुड़ रहे हैं। अगर फंड होता तो इप्टा की तस्वीर कुछ अलग ही होती। रंगमंच में पैसा नहीं है और हम ग्रांट मांगने नहीं जाते। हां, हमें डोनर्स जरूर मिल जाते हैं।

इप्टा के कई आंदोलन का हिस्सा रहे राम प्रताप त्रिपाठी कहते हैं कि हम पहले भी किसान थे और आज भी हैं। जब तक लोग आत्महत्या ना करा लें तब तक उन्हें किसान नहीं माना जाता। रंगमच एक तरीका है अपनी बात को जनता तक पहुंचाने और उन्हें कनविंस करने का। इससे अच्छा तरीका और कोई नहीं हो सकता। यही वजह थी कि मैं इससे जुड़ा था। मैंने शॉर्ट फिल्म में भी काम किया है, अब तो पूरा समय बस इसी संस्था को देता हूं। मैं तो यहीं रहता हूं। यही मेरा आसमान है और यही मेरी जमीन। ऑल इंडिया रेडियो से रिटायर एसआर बनर्जी, बैंक से रिटायर राकेश जी और बीएनए से रिटायर जुगल किशोर जैसी हस्तियां यहां अपना समय देती हैं।

रंगमंच दिवस के मौके पर इप्टा में नाटक पागल की डायरी का मंचन किया जाएगा। प्रदीप घोष ने बताया कि करीब 8 साल पहले मासिक श्रंखला का आयोजन हुआ करता था लेकिन किसी कारण बंद हो गया था। विश्व रंगमंच दिवस के मौके पर हम इस नाटक को इसी कार्यालय में करके एक बार फिर से मासिक श्रंखला की शुरुआत कर रहे हैं। यह चीनी साहित्य लुशून की कहानी है, जिसे मैंने ही डायरेक्ट किया है।

नवभारत टाइम्स से साभार

Wednesday, March 25, 2015

जीने की तमीज सिखाती हैं पाश की कवितायें

शोकनगर , दिनांक 23- 03 – 2015 को प्रगतिशील लेखक संघ एवं भारतीय जन नाट्य संघ ( इप्टा ) ने अमर शहीद भगतसिंह , सुखदेव , राजगुरु एवं पंजाब के क्रांतिकारी कवि अवतारसिंह ‘पाश’ पर केन्द्रित वैचारिक गोष्ठी का आयोजन किया |आज जब दक्षिणपंथी राजनैतिक ताकतें भी भगतसिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों का नाम लेकर अपने-अपने राजनैतिक स्वार्थ भुनाने में लगी है तब भगतसिंह को और उनके विचारों को करीब से जानने की आवश्यकता महसूस होती है ,इसी तारतम्य में अनेक वक्ताओं ने इस गोष्ठी में अपने विचार रखे |

इप्टा ने अपनी परम्परा के अनुसार कार्यक्रम की शुरुआत जनगीत से की और सीमा राजोरिया तथा निवेदिता शर्मा द्वारा बल्ली सिंह ‘चीमा’ का जनगीत ‘ले मशालें चल पड़े है लोग मेरे गाँव के’ का गायन किया | हरिओम राजोरिया ने आधार वक्तव्य देते हुए कहा कि – “ आज हम देख रहे हैं कि भगतसिंह के क्रांतिकारी वैचारिक और दार्शनिक पक्ष को भुलाने की साजिश चल रही है और उन्हें एक वीर बालक की तरह प्रचारित किया जा रहा है | भगतसिंह के सपने और उनके विचार को प्राचारित करने की जारूरत आज सबसे जियादा है जब धार्मिक कट्टरतावादी और जातिवादी ताकतें हमारी  साझा सांस्कृतिक विरासत को बांटने पर आमादा हैं “ | हरिओम राजोरिया ने अपने वक्तव्य को आगे बढ़ाते हुए कहा कि आज ही के दिन भगतसिंह की विरासत को आगे बढ़ाने वाले क्रन्तिकारी कवि ‘अवतार सिंह पाश’ को भी शहादत मिली| पाश मूल रूप से पंजाब के थे| वे धार्मिक कट्टरता तथा आतंकवाद के खिलाफ लड़ते हुए आतंकवादियों की गोली का शिकार बने | उनकी रचनायें आज भी हमें आदमी होकर जीने की तमीज सिखाती हैं |

संजय माथुर ने भगतसिंह के दो लेख ‘सांप्रदायिक दंगे और उनका इलाज’ तथा ‘अछूत समस्या’ का पाठ किया ‘ गोष्ठी में भगतसिंह एवं उनके क्रांतिकारी साथियों के कुछ पत्रों का पाठ भी किया गया | वे कहते हैं कि वह समाज जिसमें ऐसे व्यक्ति रहते है जिन्हें मानव अधिकार तक प्राप्त नहीं हैं | जिन्हें छूने भर से आपका धर्म भ्रष्ट हो जाता हैं| ऐसे समाज के व्यक्तियों को स्वतंत्रता की मांग करने का क्या अधिकार है? भगतसिंह सांस्कृतिक बदलाव की मांग करते हुए कहते हैं, कि सबसे पहले हमें खुद अपने भीतर बदलाव करने होंगे उसके बाद संगठित होकर आज़ादी की लड़ाई के लिए तैयार हो जाना होगा| वे युवाओ से अपील करते है कि देश का प्रत्येक युवा राजनीति में आये तथा देश के विकास में अपनी भूमिका अदा करे| 

  अभिषेक ’अंशु’ ने कहा कि कथित राष्ट्रवादी ताकतें भगतसिंह का असली चेहरा जनता के सामने आना नहीं देना चाहती हैं | वे अन्य नेताओ के मामले में भी इसी तरह की नीतियों पर चल रहीं हैं| जनवादी लेखक संघ के अध्यक्ष सुरेन्द्र रघुवंशी ने कहा कि “इस घोर अन्याय और निराशा के दौर में भगतसिंह के मार्ग पर चलकर ही हम वास्तविक आज़ादी प्राप्त कर सकते हैं |” जहाँ विनोद शर्मा ने भगतसिंह के विचारो को जनता के सामने आने न देने के लिए लगातार हो रहे षडयन्त्रो का खुलासा किया वहीं सीमा राजोरिया ने उनके विचारो को जनता तक पहुँचाने के लिए मुहिम चलाये जाने की बात कही | रामबाबू कुशवाह ने भगतसिंह के विचारों को आत्मसात करने पर जोर दिया | अरबाज़ खांन ने कहा कि भगतसिंह क्रन्तिकारी के साथ- साथ विचारक भी थे | वे उस समय फ्रांस, इटली, रूस आदि की क्रांतियो का अध्ययन कर भारतीय क्रांति की रूपरेखा बनाते हुए आज़ादी की लड़ाई लड़ रहे थे | वे ऐसी आज़ादी का सपना देखते थे जिसमे प्रत्येक व्यक्ति आजाद होगा. वे चिंतित थे कि आज़ादी कुछ गिने-चुने लोगो के हाथो में सिमटकर न रह जाये | शिवानी ने भगतसिंह के जीवन को काफी प्रेरणादायक बताया | डॉ अर्चना प्रसाद, निवेदिता शर्मा, उमा दुबे तथा अन्य साथी भी बातचीत में शामिल हुए| श्री एस एन सक्सेना ने युवाओ के राजनीति से लगातार दूर होते जाने पर चिंता व्यक्त की| संजय माथुर ने आये हुए सभी अतिथियों का आभार व्यक्त करते हुए बैठक का समापन किया |

Not Lonely in Life or Alone in Death

-Noor Zaheer

(The author is a writer, researcher and the President of the Delhi State IPTA.)
The show is over, the actors and director have taken the last bow and curtain call and from a crowded auditorium after the thunderous applause has died down, friends and acquaintances are walking up with smiles, hugs and congratulations. I look around searching the face of the person responsible for our theatre group being in Agra for the convention of the Indian People’s Theatre Association [IPTA], the one who had been scouring India for units still functioning as the IPTA, digging out theatre groups who were doing similar work but with different names, persuading senior members to set aside differences and join the revival process and convincing the younger lot that unity under the umbrella of the IPTA was the need of the hour. Jitendra Raghuvanshi was nowhere to be seen. Feeling a bit put out I had asked a volunteer and was informed that he had rushed to the dining place to get some food packed for our artistes who were travelling back to Delhi the same night.

That was Comrade Jitendra Rahguvanshi, the silent worker who did not stop to collect his share of praise and applause after a successful organisation. He would immediately initiate something else, plan another meet, another theatre festival or a conference. A car he had bought only a few years back. It used to be a two-wheeler scooter on which he negotiated the pot-holed roads of Agra, manoeuvring it through puddles, crowded alleys, attending college to teach Russian, parking outside a printing press to check the proof of a pamphlet, stopping for a few minutes to remind a friend of a coming symposium and ferrying pillion-riding guests from the Taj Mahal to the venue of the seminar.In 1984 his father, Comrade Rajendra Raghuvanshi, had decided that the disinte-gration and groupism that had already become visible in Indian politics could only be checked by a strong cultural movement that would unite the youth and strengthen the Left. As a founder member of the IPTA in 1943 he had witnessed the power wielded by performing arts in spreading awareness about the freedom struggle, igniting the fire of social justice in the workers and in countering communalism. In the late fifties he had also observed the crumbling down of the lively movement. He planned a year-long campaign to get in touch with all the earlier pillars of the movement and also find out those who now espoused the Left ideology in their theatre and music but remained outside the main body of the organised Left movement.

It was Jitendrabhai who did all the running around to make the 1985 convention for the revival of the IPTA take place. He had heard about our group, Brechtian Mirror, and had come down from Agra to Delhi to see it perform ‘Hartaal’, an adaptation of John Galsworthy’s ‘The Strike’. It was a shoe-string production, performed in the Shriram Centre basement, with no sets and floor seating. But the play had a pace, using traditional songs of the IPTA and a lively narrative of how factory strikes are manipulated and workers’ struggles disinte-grated by the industrialists and their stooges. Jitendra bhai had waited after the show for the audience to disperse and then invited the group to the Agra Convention. Comrade Rajendra Raghuvanshi also managed to get Kaifi Azmi, Shaukat Azmi, Himango Biswas and Ruma Guha Thakurta, Subroto Bannerji and Samik Bandyo-padhyay, A.K. Hangal, Paresh Das and so many more. It was the shining suns and the moons of the past sending out the message of unity to the contemporary wayward, solitary planets to merge, to form a strong and alternate solar system.

All these eminent artistes had no problem sleeping in dormitories, eating the simple fare being served and sitting on the floor during academic sessions. It was answering the call of the time, it was reliving their formative years. But more than that the convention sent out another message to the younger generation: a people’s struggle cannot provide luxuries, the road of a movement is not a bed of roses but it is a journey that must be undertaken and once a person has embarked on this road there is no turning back.
At the convention Jitendrabhai was everywhere, arranging extra beds, making time for all the performers who had turned up, seeing to the food, talking to the managers of the Sur Sadan where the evening performances were held, guiding the volunteers and taking notes. His wife, Bhavya, was too tied down with two young children but was beside her husband as soon as the children had become a little independent. Teaching in a school and giving all her free time to the Agra IPTA, together they organised theatre workshops in Agra and around, wrote plays, sang songs and put in all their energies to reviving the IPTA.

Jitendrabhai was a young Professor, with a Ph.D from Leningrad, teaching Russian at the Agra University, a department that he helped set up; he also wrote poetry, plays and short stories, was a sensitive analyst and critic of literature. He could have been all these things and lived a comfortable life. But one found him running from one place to another, to organise the IPTA units, supervise their democratic elections and functio-ning, have national conventions every three years and, in short, fulfil the dream his father had of a strong, united Left cultural force.

When Rajendra Raghuvanshi passed away, Jitendrabhai worked harder. He organised regular summer theatre workshops and also formed the Little IPTA. Here he would not turn away even a child of two years, convincing the parents that theatre is part of everyone’s being from the day one is born.
In the years that he functioned as the Secretary and then General Secretary of the National IPTA, he gathered so many details on the IPTA’s past and contemporary happenings that one had only to ask a question and he would reel out, names, dates, events, anecdotes. He became like a storehouse of information, never once holding it back from anyone and passing it with a smile. Only a person who believes that with all assets he is still a worker, a comrade can be so approachable.

The last time we met was in Raipur, where the Chhattisgarh IPTA was holding its State Convention. A year back he had persuaded me to be the President of the IPTA, Delhi and on the back and forth train journey we discussed the progress made by the IPTA since 1985, the States where it was still inactive and, most importantly, that it was time to begin organising an archives of the IPTA and of organisations involved in similar activities. We talked about this project again over the phone twelve days before he passed away. He was unwell and promised to come down to Delhi to prepare a blueprint as soon as he was better. He had also promised to go down to Indore to meet and guide the Madhya Pradesh unit where the National Convention is to take place in 2016. He did come down to Delhi but only to be admitted in Safdarjang Hospital where he succumbed to swine flu after two days.

It is again in Sur Sadan that a huge crowd has gathered for the condolence meeting. The hall that seats 800 gets overcrowded and we shift out on the lawns. People are embracing and weeping, the family undefined, all one single clan: mourners for a man who loved Agra, loved people and loved life. But even in death he has a lesson for all. The Secretary of the Bharatiya Janata Party gets up to convey the condolences sent by his party unit. All his life Jitendrabhai had been a staunch Communist, upholder of secular values and an outspoken critic of the policies of the BJP. Yet such was his work and contribution that even his enemies had to stand up and be counted in the list of people grieving at his untimely demise.

Source : http://www.mainstreamweekly.net/article5545.html


Thursday, March 19, 2015

विश्व रंगमंच दिवस संदेश – 2015 : क्रिस्तोव वार्लिकोव्सकी

रंगमनीषी अधिकतर मंच से दूर देखे जा सकते हैं जो रंगमंच को विचारों या परिपाटियों की प्रतिकृति और सामान्योक्तियों की पुनरावृत्ति करने वाले उपकरण या मशीन के रूप नहीं देखते | वह ऐसे स्पंदनों और जीवित प्रवाहों की तलाश में रहते हैं जो प्रेक्षागृहों और ऐसे जमावड़ों को पीछे छोड़ दें जहाँ किसी न किसी लोक की नक़ल होती रहती है | हम अनुकरण में लगे रहते हैं, बजाय एक ऐसी दुनिया और माहौल रचने के जो दर्शकों के साथ गहरे और सार्थक विचार-विमर्श, विश्वास और भावनाओं की गहराई पर टिका हो | सच तो यह है कि गूढ़ मनोभावों की अभिव्यक्ति के लिए रंगमंच से बेहतर कोई माध्यम नहीं है |

अक्सर मैं मार्गदर्शन के लिए किताबें पढता हूँ | मैं दिन-रात उन लेखकों के बारे में सोचता रहता हूँ जिन्होंने लगभग सौ बरस पहले दबे स्वरों में यूरोपीय प्रभुता के पतन की भविष्यवाणी की थी – उस धुंधलके की जिसने हमारी सभ्यता को ऐसे अन्धकार में धकेल दिया जहाँ आज भी उजाले का इंतज़ार है | मैं फ्रैन्ज़ काफ्का, टॉमस मैन और जॉन मैक्सवेल कोएतज़ी को भी उन्हीं भविष्यवक्ताओं की सूची में रखना चाहूंगा |

दुनिया के अवश्यम्भावी ख़ात्मे के प्रति उनकी समान चेतना वर्तमान मानवीय मूल्यों , सामाजिक संबंधों और व्यवस्था के रूप में आज पूरे तीखेपन के साथ हमारे सामने है | हम सब जो दुनिया के अंत के बाद भी जीवित हैं नित नए ऐसे अपराधों, षड्यंत्रों, द्वंदों और संघर्षों का सामना कर रहे हैं जो सर्वव्यापी मीडिया की गति को भी पीछे छोड़ देते हैं | और ऐसी घटनाएं बहुत जल्दी ही बासी होकर स्मृतियों से लोप हो जाती हैं | हम असहाय, भयभीत और फंसा हुआ महसूस करने के साथ ऐसे केन्द्रों और स्थलों का निर्माण भी नहीं कर पा रहे हैं जो हमें सुरक्षा दें – बल्कि इसके विपरीत ये सब हमसे अपनी सुरक्षा की गुहार कर रहे हैं – इन्हें बचाने में हमारी जीवन उर्जा का एक बड़ा अंश खपता जा रहा है | अब हममें दीवारों के उस तरफ देखने की ताक़त नहीं रही | इसी साहस को फिर से एकजुट करने के लिए रंगमंच का जिंदा रहना निहायत ज़रूरी है – जहाँ पर खड़े होकर हम निषिद्ध स्थानों और वहां हो रहे षडयंत्रों को साफ़-साफ़ देख समझ सकें |

प्रोमिथियस अनुश्रुति के रूपांतरण के बारे में काफ्का ने कहा कि “ यह कथा ऐसे सन्दर्भ को स्पष्ट करती हैं जिसकी व्याख्या की आवश्यकता नहीं है क्योंकि यह सत्य पर टिकी है – इसका व्याख्या या वर्णन से परे रहना ही उचित है | “ मैं बहुत गहराई से महसूस करता हूँ कि रंगमंच की व्याख्या भी इन्हीं शब्दों में होनी चाहिए |
ऐसे ही रंगमंच की आवश्यकता है जिसकी जड़ें सच्चाई में निहित हों , जिसके लक्ष्य को बयान करने की ज़रुरत न पड़े – रंगकर्मी मंच पर हों, मंच परे हों या दर्शकों में – सभी के लिए मेरी यही भावना है यही कामना है|

हिंदी अनुवाद – अखिलेश दीक्षित

क्रिस्तोव वार्लिकोव्सकी – परिचय

26 मई 1962 को स्टाचिन, पोलैंड में जन्मे क्रिस्तोव वार्लिकोव्सकी पोलैंड के नोवी थियेटर के  निर्देशक हैं | विलेज वायस साप्ताहिक अखबार द्वारा ऑफ़ ब्रोडवे थियेटर में उत्कृष्ट निर्देशन के लिए प्रदान किये जाने वाले ओबी पुरस्कार - 2008 के अतिरिक्त मेयर होल्ड, गोल्डन मास्क, कोनराड स्विनार्सकी और ऐसे ही कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित | 


भारत 
में 
भारतीय जन नाट्य संघ 
द्वारा 
प्रसारित।

विस्तृत जानकारी के लिए इस लिंक पर जायें :
http://en.wikipedia.org/wiki/Krzysztof_Warlikowski

Tuesday, March 17, 2015

World Theatre Day Message 2015 by Polish director Krzysztof Warlikowski!


The true masters of the theatre are most easily found far from the stage. And they generally have no interest in theatre as a machine for replicating conventions and reproducing clichés. They search out the pulsing source, the living currents that tend to bypass performance halls and the throngs of people bent on copying some world or another. We copy instead of create worlds that are focused or even reliant on debate with an audience, on emotions that swell below the surface. And actually there is nothing that can reveal hidden passions better than the theatre.

Most often I turn to prose for guidance. Day in and day out I find myself thinking about writers who nearly one hundred years ago described prophetically but also restrainedly the decline of the European gods, the twilight that plunged our civilization into a darkness that has yet to be illumined. I am thinking of Franz Kafka, Thomas Mann and Marcel Proust. Today I would also count John Maxwell Coetzee among that group of prophets.

Their common sense of the inevitable end of the world—not of the planet but of the model of human relations—and of social order and upheaval, is poignantly current for us here and now. For us who live after the end of the world. Who live in the face of crimes and conflicts that daily flare in new places faster even than the ubiquitous media can keep up. These fires quickly grow boring and vanish from the press reports, never to return. And we feel helpless, horrified and hemmed in. We are no longer able to build towers, and the walls we stubbornly construct do not protect us from anything—on the contrary, they themselves demand protection and care that consumes a great part of our life energy. We no longer have the strength to try and glimpse what lies beyond the gate, behind the wall. And that’s exactly why theatre should exist and where it should seek its strength. To peek inside where looking is forbidden.

“The legend seeks to explain what cannot be explained. Because it is grounded in truth, it must end in the inexplicable”—this is how Kafka described the transformation of the Prometheus legend. I feel strongly that the same words should describe the theatre. And it is that kind of theatre, one which grounded in truth and which finds its end in the inexplicable that I wish for all its workers, those on the stage and those in the audience, and I wish that with all my heart.


Circulated 
by 
Indian Peoples Theatre Association
in 
India.

Saturday, March 14, 2015

दूसरों के लिए उम्मीद बनना भी संस्कृतिकर्म है

"सिर्फ नाटक करना, गीत गाना, कहानी लिखना ही संस्कृतिकर्म नहीं, बल्कि दूसरों के लिए उम्मीद बनना भी संस्कृतिकर्म है. विगत दो-तीन दशकों से इप्टा का नेतृत्व कर रहे जितेंद्र रघुवंशी इसी तरह का संस्कृतिकर्म कर रहे थे. उन्होंने करोड़ों हिन्दुस्तानियों को अपने सपने, अपने जीवन को नाटक- गीत-संगीत के माध्यम से देखने, सोचने और करने का एक मंच 'इप्टा' दिया; यही उनका संस्कृतिकर्म है.
इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव साथी जितेन्द्र रघुवंशी को याद करते हुए वरिष्ठ नाटककार हृषीकेश सुलभ ने उक्त बातें इप्टा राज्य परिषद् के द्वारा आयोजित स्मृति सभा में कहीं . दिवंगत साथी के साथ बिताये लम्हों को याद करते हुए श्री सुलभ भावुक हो गए और कहा कि जितेंद्र भाई के साथ उनके स्कूटर पर आगरा की गलियों में घूमना हमेशा याद रहेगा और यह सालेगा कि अब कभी आगरा गया तो किसके साथ आगरा की गलियां घूमूँगा? जितेंद्र रघुवंशी के रचनात्मक योगदान की चर्चा करते हुए श्री सुलभ ने उनकी कहानियों को मंचित करने और इप्टा के दस्तावेज़ों का एक संग्रह प्रकाशित का सुझाव दिया. उन्होंने दिवंगत साथी के साथ हाल के विमर्शों को साथ करते हुए कहा कि पचास के दशक में इप्टा और इप्टा के दिल्ली राष्ट्रीय सम्मलेन के ऐतिहासिक दस्तावेज़ों को किताब की शक्ल देना साथी जितेंद्र का ख्वाव था।

वरिष्ठ नाट्य निर्देशक परवेज़ अख्तर ने जितेंद्र रघुवंशी को याद करते हुए कहा कि इप्टा ने अपना नायक खो दिया है. हम जब इप्टा को राष्ट्रीय स्तर पर देखते हैं तो जितेंद्र भाई एक सशक्त संगठनकर्ता के रूप में नज़र आते थे. आज उनके जाने के बाद इप्टा को एक मज़बूत नेतृत्व देना बड़ी चुनौती होगी. वरीय अभिनेता जावेद अख़्तर खां ने कहा जितेंद्र जी एक सजग संस्कृतिकर्मी होने के साथ ही एक सुलझे हुए मज़बूत संगठनकर्ता भी थे. इप्टा के राष्ट्रीय संगठन को आगरा से चलाना एक चुनौती थी जिसे उन्होंने दशकों सफलतापूर्वक निभाया। 

स्मृति सभा में बोलते हुए बिहार इप्टा अध्यक्ष-मंडल के साथी समी अहमद ने कहा कि आज जब देश में सांस्कृतिक उन्माद बनाने की साजिश चल रही है और देश की अवाम जन नाट्य आंदोलन की ओर देख रही तो ऐसे समय में जितेंद्र भाई का जाना हमारे लिए अपूरणीय क्षति है. बिहार इप्टा के सचिव-मंडल एवं राष्ट्रीय संयुक्त सचिव-मंडल के साथी फीरोज़ अशरफ खां ने कहा कि पिछले सप्ताह ही हमने उनसे बात कर बिहार इप्टा के 15वें राज्य सम्मलेन की तैयारियों को लेकर चर्चा की थी और विशेष अतिथि के रूप में भागीदारी पर सहमति प्राप्त की थी, पर यह नहीं मालूम था कि हमें अपना सम्मेलन जितेंद्र जी के बिना ही करना होगा. उनका विनम्र व सौम्य व्यवहार अनुकरणीय है।

स्मृति सभा का संचालन करते हुए बिहार इप्टा के महासचिव व राष्ट्रीय सचिव-मंडल के साथी तनवीर अख्तर ने 1984 के आगरा कन्वेंशन को याद किया और इप्टा पुनर्गठन के साथी के जाने को व्यक्तिगत क्षति बतायी. उन्होंने कहा कि 15वाँ बिहार इप्टा राज्य सम्मेलन-सह-राष्ट्रीय सांस्कृतिक समारोह जितेंद्र रघुवंशी को समर्पित होगा. जन सांस्कृतिक आंदोलन को मजबूत करना साथी जितेंद्र रघुवंशी को सच्ची श्रद्धांजलि होगी.
स्मृति सभा को बिहार इप्टा की उपाध्यक्षा उषा वर्मा, अभिनेता विनोद कुमार, बिहार इप्टा के कोषाध्यक्ष संजय कुमार सिन्हा, राज्य कार्यकारिणी सदस्य ओम प्रकाश प्रियदर्शी, पीयूष सिंह ने भी अपनी बात रखी.
स्मृति सभा में बड़ी संख्या में पटना इप्टा एवं पटना सिटी इप्टा से जुड़े इप्टाकर्मी शामिल हुए.
अंत में उपस्थित लोगों ने दो मिनट मौन रहकर साथी जितेंद्र रघुवंशी को श्रद्धांजलि दीं।

Friday, March 13, 2015

Tumhi So Gaye Dastan Kahte Kahte.: Red Salute Com. Jitendra Raghuvanshi


- Rakesh, 
National Secretary, IPTA
On the March 7th, 2015 our beloved General Secretary, crusader of progressive cultural movement in the country, an organizer par excellence and an activist with enviable energy ceased to act for ever. Thousands of members of IPTA and Comrades of other organizations
are shocked and it is hard to believe that com. Jitendra Raghuvanshi is Born on Sep. 13, 1951 Jitendra's early cultural & political education began at home. He was a worthy son of worthy father and mother duo. Rajendra Raghuvanshi, one of the founders of IPTA, and well known theatre personality, writer journalist, freedom fighter imparted him basic political and cultural training. Jitendra acquired unbeatable compassion from his able mother Aruna Raghuvanshi. He did his M.A. in Hindi from Agra University and then his Post Graduation in Russian Language from Leningrad University St. Petersberg and Ph.D. in Comparative Literature. He joined K.M. Institute as a teacher for Russian Language in 1984 and retired last year as head of foreign Languages department.


Though associated with IPTA from the date of his birth he concisely joined IPTA in late 70s as an actor, director, writer and more than that as an organizer with able guidance of Com. Rajendra. He became an architect of reorganization of IPTA at Agra in 1985. Later he became general secretary of IPTA and continued till his last breath. He wrote translated and adopted several plays including Bijuke Jagte Raho, Hitler ki Hazamat. Lal Telephone & several stories of Premchand. He was associated with various organizations at Agra namely Shahid Bhagat Singh Smarak Samiti, Nagari Pracharni Sabha, Agra, bazme nazeer, yadgare Agra, PWA and many others. He was an active member of Communist Party of India. He was associated with film "Sara Akash" based on Rejendra Yadav's novel, 'Garmhawa' by M.S. Sathyu.


Reaching out to people was his fascinalion and that is how he pioneered the cultural marches of IPTA such as Ayodhya Yatra from Lko. to Ajodhya in 1989, "Padcheenh Kabeer", from Varanasi to Maghar in 1993. "Pahchan Najeer" from Agra to Delhi1995 and various other cultural marches. Unity of progressive cultural movement was always on top of his priorities. Many of his tasks are unfinished, lot of his creative work is unpublished and the best tribute to this noble crusader would be to carry forward the legacy of IPTA and complete his unfinished tasks and publish his creative work. We resolve to do so and salute Com. Jitendra Raghuvanshi by saying "Bade Gaur se sun raha tha Jamana ,Tumhi So Gaye Dastan Kahte Kahte."

Tuesday, March 10, 2015

जितेन्द्र रघुवंशी : भारी मन आैर नम आंखोंं की स्मृतियां

गरा के लोगों का मन बहुत भारी था, आखों में नमी लिए शहर ने नाट्य कर्मी व शिक्षाविद डॉ जितेन्द्र रघुवंशी को याद किया. इस अवसर वक्ताओं ने कहा कि “डॉ जितेन्द्र रघुवंशी वो शख्स थे जिसने अनास्था के वक्ष पर आस्था को गढ़ा और अपने सृजन को व्यक्तिगत अमरता के लिए नहीं अपितु समाज को जीवंत बनाये रखने के लिए इस्तेमाल किया, उनका जीवन समाज के लिए समर्पित था, उनका जाना शहर की बौद्धिक सम्पदा के लुट जाने जैसा है.  डॉ रघुवंशी एक विनम्र और सहृदय शिक्षक और कुशल संगठनकर्ता के साथ साथ संकल्प के शिखर के रूप में याद किये जायेंगे, उनका निधन न केवल आगरा अपितु देश में न भरी जाने वाली रिक्तता है इस अवसर पर देश के विभिन्न हिस्सों से रंगकर्म, सांस्कृतिक आन्दोलन, राजनीति व कला जगत से जुडी नामचीन हस्तियों ने अपनी श्रद्धांजलि अर्पित की.

अंतराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त नाट्य निर्देशिका, साहित्यकार नूर ज़हीर ने कहा कि उनके जाने से हमारी सूचनाओं और सांगठनिक संप्रेषण का एक बड़ा माध्यम चला गया ,उनके रहने से हम कई मोर्चों पर निश्चिन्त रहा करते थे वो एक सफल संगठन कर्ता और स्वप्न दृष्टा भी थे हमको उनके सपनों पूरा करने का संकल्प लेना चाहिए.”
केन्द्रीय मंत्री उत्तर प्रदेश शासन राजा अरिदमन सिंह ने कहा कि डॉ रघुवंशी का जाना आगरा का बहुत बड़ा नुकसान है इसको आने वाले दिनों में जल्द नहीं भरा जा सकता. 

पूर्व केन्द्रीय मंत्री रामजी लाल सुमन ने कहा, “रघुवंशी जी एक अच्छे मित्र के रूप में तो याद किये ही जायेंगे अपितु मूल्यों पर जीने वाले इंसान थे जो अपनी स्पष्ट उदेश्यों के लिए जाने जाते थे उन्होंने कहा कि "बेवजह दिल पर बोझ न भारी रखिये , जिंदगी जंग है इस जंग को जारी रखिये, कितने दिन जिंदा रहे इसकी न शुमारी रखिये, किस तरह जिंदा रहे इसको...."

खगोल विज्ञानी और दिल्ली इप्टा के डॉ अमिताभ पाण्डेय ने कहा कि जितेन्द्र जी मेरे लिए आगरा का पर्याय थे वो कला को विज्ञान से जोड़ने के बड़े हामी थे हम उनकी उमीदों को आगे बढाएं यही उनको सच्ची श्रद्धांजलि  होगी . शिक्षाविद और कानपुर विवि के पूर्व कुलपति डॉ वी के सिंह ने कहा कि उन्होंने अपने जेवण को सामाजिक और साहित्य के लिए जिया वो चाहते तो व्यक्तिगत अमरता के लिए काम न करके सामाजिक सरोकारों को महत्वपूर्ण माना.

इस अवसर पर विभिन्न राजनैतिक दलों की ओर से भी उनको श्रद्धा सुमन अर्पित किये भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के रमेश मिश्रा , भारतीय जनता पार्टी के शहर अध्यक्ष निगामा दुबे, समाजवादी पार्टी के जिलाध्यक्ष राम सहाय यादव मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के जिलामंत्री श्री लाल तोमर ने उनको संगठनकर्ता और कुशल सांस्कृतिक नेता के रूप में याद किया.

स्मृति सभा में डॉ रघुवंशी के परिवार के सदस्यों ने उनके सपनों को पूरा करने के लिए सभी का आशीष और सहयोग माँगा उनकी बहन डॉ ज्योत्स्ना रघुवंशी ने कहा कि मेरे भाई एक बहुआयामी व्यक्तिव्य के धनी और बहुत सारे कामों से घिरे रहने के बावजूद बहुत धैर्यशाली व्यक्ति थे हम उनके सपनों को पूरा करने का प्रयास करेंगे पुत्र मानस रघुवंशी ने उनके द्वरा लिखित कविता “तुम मानसरोवर हो” का पाठ किया.

जितेंद्र रघुवंशी को जन संस्कृति मंच का सलाम

भी लोगों के शरीर से होली का रंग छूट भी नहीं पाया था कि देश के तमाम तरक्कीपसंद संस्कृतिप्रेमियों का कॉमरेड जितेंद्र रघुवंशी से  हमेशा के लिए साथ छूट गया। 63 वर्ष की उम्र में 7 मार्च की सुबह ही उनका स्वाइन फ्लू के कारण दिल्ली स्थित सफदरजंग अस्पताल में निधन हो गया। पिछले साल ही जून माह में आगरा विश्वविद्यालय के के. एम. इन्स्टीट्यूट के विदेशी भाषा विभाग प्रमुख के पद से 30 साल की सेवा के उपरांत उन्होंने अवकाश प्राप्त किया था। अभी वे लिखने-पढ़ने और हिन्दी क्षेत्र में सांस्कृतिक आंदोलन के विकास को लेकर कई योजनाओं पर काम कर रहे थे। उनके निधन की खबर से देश भर के साहित्य-कला प्रेमी लोकतान्त्रिक जमात को जबर्दस्त आघात लगा है। वे अपने पीछे पत्नी, पुत्री और दो बेटों का भरा-पूरा परिवार छोड कर हमेशा के लिए हमसे विदा हो गए।


            13 सितंबर 1951 को आगरा में पैदा हुए श्री जितेंद्र रघुवंशी की शिक्षा-दीक्षा आगरा में ही हुई। यहीं के. एम. इंस्टीट्यूट से हिन्दी से परास्नातक की उपाधि हासिल करने के बाद उन्होंने अनुवाद और रूसी भाषा में डिप्लोमा भी किया। बाद में लेनिनग्राद विश्वविद्यालय से (सेंट पीटर्सबर्ग) रूसी भाषा में एम.ए. किया। उन्होंने तुलनात्मक साहित्य में पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की थी। पिता राजेन्द्र रघुवंशी और माँ अरुणा रघुवंशी के सानिध्य में प्रगतिशील साहित्य संस्कृति के साथ बचपन से ही उनका संपर्क हो गया था। पिता राजेन्द्र रघुवंशी इप्टा आंदोलन के सूत्रधारों में से एक थे। कॉमरेड जितेंद्र रघुवंशी आजीवन भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य रहे। थियेटर को उन्होंने अपने सांस्कृतिक कर्म के बतौर स्वीकार किया।  1968 से इप्टा के नाटकों में अभिनय, लेखन, निर्देशन आदि के क्षेत्र में वे सक्रिय हुए। एम.एस. सथ्यू द्वारा निर्देशित देश विभाजन पर आधारित बेहद महत्त्वपूर्ण फिल्म ‘गरम हवा’ में उन्होंने अभिनय किया। राजेन्द्र यादव के ‘सारा आकाश’ पर बनी फिल्म के निर्माण में सहयोग दिया। ग्लैमर की दुनिया  में वे  बहुत आसानी से जा सकते थे पर उसके बजाए उन्होंने अपनी प्रतिबद्धता हिन्दी क्षेत्र में सांस्कृतिक आंदोलन के निर्माण के प्रति जाहिर की। अभी वे भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) के राष्ट्रीय महासचिव और उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष थे।

जितेंद्र जी का मुख्य कार्यक्षेत्र भले ही नाटक और थियेटर रहा हो पर मूलतः वे एक कहानीकार थे। आजादी आंदोलन के प्रमुख कम्युनिस्ट कार्यकर्ता राम सिंह के जीवन पर आधारित उनकी एक कहानी काफी चर्चित हुई थी। इसके अलावा लाल सूरज, लाल टेलीफोन जैसी कहानियों के शीर्षक इस बाद के गवाह हैं कि वे लाल रंग को चहुँओर फैलते देखना चाहते थे। उनके द्वारा लिखे कुछ प्रमुख नाटक ‘बिजुके’, ‘जागते रहो’ और ‘टोकियो का बाजार’ है। अभी मृत्यु से कुछ दिन पूर्व आकाशवाणी आगरा से उनकी एक कहानी का प्रसारण किया गया था और आगरा महोत्सव के दौरान 23 फरवरी को प्रेमचंद की कहानियों पर आधारित नाट्यप्रस्तुति ‘रंग सरोवर’ का मंचन हुआ था। इससे यह आसानी से समझा जा सकता है कि मृत्यु के ठीक पहले तक वे किस तरह प्रतिबद्ध और सक्रिय थे. आगरा में किसी भी प्रगतिशील सांस्कृतिक आयोजन की संकल्पना उनको शामिल किए बगैर नामुमकिन थी। वे युवाओं के लिए एक सच्चे रहनुमा थे। 2012 में आगरा में हुए रामविलास शर्मा जन्मशती आयोजन समिति के सलाहकार के रूप में उनके अनुभव का लाभ इस शहर को प्राप्त हुआ। हर साल होने वाले आगरा महोत्सव के सांस्कृतिक समिति के वे स्थाई सदस्य थे। इसके अलावा शहीद भगत सिंह स्मारक समिति, नागरी प्रचारिणी सभा, आगरा, बज्मे नजीर, यादगारे आगरा, प्रगतिशील लेखक संघ आदि से भी उनका जुड़ाव रहा। आगरा में वे हर साल वसंत के महीने में नजीर मेले का आयोजन कराते थे और हर गर्मी में बच्चों के लिए करीब एक माह की नाट्य-कार्यशाला नियमित तौर पर कराते  थे। 1990 के बाद देश के भीतर सांप्रदायिक राजनीति के उभार के दिनों में उनके भीतर का कुशल संगठनकर्ता अपने पूरे तेज के साथ निखर कर सामने आया। इप्टा द्वारा इसी दौर में कबीर यात्रा, वामिक जौनपुरी सांस्कृतिक यात्रा, आगरा से दिल्ली तक नजीर सद्भावना यात्रा, लखनऊ से अयोध्या तक जन-जागरण यात्रा आदि का आयोजन किया गया। उनका वैचारिक निर्देशन और उनकी सांस्कृतिक दृष्टि ही इस पूरी योजना के केंद्र में थी।

वे लेखक संगठनों की स्वायत्तता, विचारधारात्मक प्रतिबद्धता और सांस्कृतिक संगठनों की जरूरत और भूमिका को नया आयाम देने वाले चिंतक भी थे। लेखकों की आपेक्षिक स्वायत्तता के हामी होने के बावजूद वे यह मानते थे कि ‘‘अब यह तो उसे (लेखक को ) ही तय करना है कि वह नितांत व्यक्तिगत स्वतन्त्रता चाहता है या सामाजिक स्वतन्त्रता। सामाजिक स्वतन्त्रता की जंग सामूहिक रूप से ही लड़ी जा सकती है। सामूहिकता के लिए संगठन अनिवार्य है। अब संगठन का न्यूनतम अनुशासन तो मानना ही होगा। ऐसे लेखक तो हैं और रहेंगे, जिन्हें एक समय के बाद लगता है कि उनका आकार संगठन से बड़ा है। वे अपनी ‘स्वतन्त्रता’ का उपयोग करें लेकिन अपने अतीत को न गरियाएँ।’’ वैचारिक भिन्नता का सम्मान करते हुए भी सांस्कृतिक कार्यवाहियों के लिए एकता का रास्ता तलाश लेने वाले ऐसे कुशल संगठनकर्ता की आकस्मिक मृत्यु से हिन्दी क्षेत्र में वाम सांस्कृतिक आंदोलन को ऐसी क्षति हुई है जिसकी भरपाई निकट भविष्य में संभव नहीं दिखती। वे आखिरी दम तक प्रतिबद्ध मार्क्सवादी सांस्कृतिक योद्धा रहे। विचारधारात्मक दृढ़ता और समाजवादी-धर्मनिरपेक्ष भारत का स्वप्न देखते हुए वामपंथी सांस्कृतिक आंदोलन के लिए जो जमीन छोडकर कॉ. जितेंद्र रघुवंशी चले गए हैं उस पर नए दौर में नई फसल की तैयारी ही उनके प्रति एक सच्ची श्रद्धांजलि होगी। जन संस्कृति मंच एक सच्चे कम्युनिस्ट, क्रांतिकारी संगठनकर्ता  और सांस्कृतिक आंदोलन के मजबूत योद्धा को क्रांतिकारी सलाम पेश करता है। 

जन संस्कृति मंच की ओर से राष्ट्रीय सहसचिव प्रेमशंकर द्वारा जारी

(आगरा : 8 मार्च 2015, pahleebar.blogspot.in)

Monday, March 9, 2015

मोती पाने को जिंदगी दांव पर लगानी पड़ती है

‘अपनी गहराई को अपने मानवीकरण पर सतही मत बनाओ, मोती पाने को जिंदगी दांव पर लगानी पड़ती है। इसे समझो, तब सच तुम्हारे निकट होगा।’ मगर, क्या पता था कि अपने अंतिम नाटक के लिए लिखे इन डायलॉग के माध्यम से दुनिया को जब डा. जितेंद्र रघुवंशी सच की परिभाषा समझाने की कोशिश कर रहे थे, तब वह खुद ‘अंतिम सच’ के काफी करीब थे। 23 फरवरी को ताज महोत्सव में ‘रंग मानसरोवर’ के माध्यम से उन्होंने अपनी जिंदगी के अंतिम नाट्य रूपांतरण को जीवंत किया। उनके निधन की सूचना शनिवार को हुई तो कला, साहित्य और सांस्कृतिक शहर में शोक की लहर दौड़ गई।

वरिष्ठ रंगकर्मी राजेंद्र रघुवंशी के पुत्र डा. जितेंद्र रघुवंशी का जन्म 13 सितंबर 1951 को आगरा में ही हुआ था। डा. भीमराव अंबेडकर विश्वविद्यालय के केएमआई में रूसी भाषा के विभागाध्यक्ष भी रहे। पिछले वर्ष ही सेवानिवृत्त हुए थे। वर्ष 1962 से भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) से जुड़े थे। अभिनय के क्षेत्र में उनका आखिरी नाटक ‘फ्लैश..फ्लैश..फ्लैश’ था। इसके बाद जागते रहो, बिजूका, नजीर-शाह-फकीर, खूनी पंजा के नाट्य रूपांतरण के अलावा रांगे राघव और मुंशी प्रेमचंद की कहानियों का भी नाट्य रूपांतरण किया। ‘लाल टेलीफोन’ नाटक का मंचन तो देशभर में हुआ। अफसर शाही और भ्रष्टाचार पर प्रहार करता यह नाटक रेडियो पर भी प्रसारित किया गया था। बलराज साहनी अभिनीत फिल्म ‘गर्म हवा’ में पिता राजेंद्र रघुवंशी के साथ काम किया था। 

जितेंद्र रघुवंशी अपने पीछे पत्नी भावना रघुवंशी, पुत्र मानस रघुवंशी और पुत्री सौम्या रघुवंशी छोड़ गए हैं। वह अभिनेता अंजन श्रीवास्तव के समधी थे। वह कम्युनिस्ट पार्टी से भी जुड़े रहे थे। शनिवार शाम को ताजगंज शमशान घाट पर अंतिम संस्कार किया गया। शवयात्रा में केंद्रीय मानव संसाधन विकास राज्यमंत्री डा. रामशंकर कठेरिया, पूर्व सांसद राजबब्बर, पूर्व विधायक अनुराग शुक्ला, सैय्यद अजमल अली शाह, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के वरिष्ठ नेता रमेश मिश्र, इप्टा आगरा के प्रमोद सारस्वत, डा. विजय शर्मा, विशाल, रियाज, केएन अग्निहोत्री, सुबोध गोयल आदि उपस्थित थे।

रंगमंच में एक ऐसी क्षतिपूर्ति है, जिसकी भरपाई नहीं हो सकती।
- अंजन श्रीवास्तव, वरिष्ठ रंगकर्मी

जितेंद्र रघुवंशी ने हमेशा सांस्कृतिक विरासत को सहेजने की कोशिश की।
- अनिल शुक्ला, वरिष्ठ रंगकर्मी

वह हमेशा कोशिश करते थे कि युवा पीढ़ी को रंगमंच की बारीकियों से रूबरू कराएं।
- पुरुषोत्तम मयूरा, रंगकर्मी

केएमआई में सोमवार को शोकसभा
डा. जितेंद्र रघुवंशी के निधन पर केएमआई के प्रो. हरिमोहन, प्रो. प्रदीप श्रीधर, प्रो. हरिवंश सोलंकी, उपेंद्र शर्मा आदि ने शोक संवेदना व्यक्त की है। इंस्टीट्यूट के निदेशक डा. जयसिंह नीरद के अनुसार सोमवार को मध्याह्न 12 बजे शोकसभा होगी। �

बज्म ए नजीर ने दी श्रद्धांजलि
डा. जितेंद्र रघुवंशी बज्म ए नजीर के वरिष्ठ उपाध्यक्ष भी थे। बज्म-ए-नजीर के अध्यक्ष उमर तैमूरी ने बताया कि वह 1972 से अब तक लगातार संस्था के उपाध्यक्ष रहे। शोकसभा में हाजी इकबाल पच्चेकार, पंडित रमाकांत सारस्वत, आरिफ तैमरी, राकेश दीक्षित, ब्रह्म दत्त शर्मा आदि मौजूद रहे।

इप्टा सदस्यों ने लिया संकल्प
गोरखपुर। इप्टा की गोरखपुर इकाई के सदस्यों ने श्रद्धांजलि अर्पित की। संस्था के पदाधिकारियों ने भविष्य के लिए तैयार की गई उनकी हर योजना को साकार करने का संकल्प लिया। प्रांतीय सचिव डॉ. मुमताज खान एस रफत, धमेंद्र दुबे टाटा, विनोद चंद्रेश, सीमा मुमताज, रीना श्रीवास्तव, आसिफ सईद, एमके तिवारी, शैलेंद्र निगम, प्रियंका आदि शामिल रहे।

साभार : अमर उजाला

Sunday, March 8, 2015

सारा घर ले गया घर छोड़ के जाने वाला

जितेन्द्र जी का इस तरह अचानक चले जाना स्तब्ध कर देने वाला है। यकीन नहीं हो रहा। लग रहा है कि बस अभी किसी क्षण मोबाइल की घंटी बजेगी और बेहद आत्मीय लहजे में उनका जाना-पहचाना स्वर सुनाई पड़ेगा, ‘भाई माफ करना, मार्च महीने का कार्यक्रम भेजने में थोड़ा विलंब हो गया। इधर व्यस्तता कुछ ज्यादा हो गयी थी...।’’

पर अफसोस कि यह अब न हो सकेगा। इस बार होली के ठीक पहले पहली बार ऐसा हुआ कि देश भर के इप्टा के कार्यक्रमों की सूचना मानस के मेल से मिली। बेहद संक्षिप्त। लग रहा था कि कुछ छूटा हुआ है। भिलाई के कार्यक्रम की सूचना भी नहीं थी, जबकि राजेश भाई ने बताया था कि खबर भेज दी है। भगत सिंह की शहादत व विश्व रगमंच दिवस के कारण आमतौर पर मार्च के महीने में कार्यक्रम कुछ ज्यादा ही रहते हैं।

आभासी दुनिया में भी उनकी उपस्थिति बराबर रहती थी। कहते थे कि यह समय बहुत खाता है पर सांगठनिक सूचनाओं के लिये बहुत जरूरी है। इस एक सप्ताह में न तो वे इंटरनेट पर कहीं दिखाई दिये न फोन किया। ताज महोत्सव के दो-तीन दिनों पहले आखिरी बार बात हुई। विश्व रंगमंच दिवस करीब है सो ‘इप्टानामा’ के नये वार्षिक अंक को लेकर विस्तृत बात हुई। जयपुर की सभा में ‘ इप्टा के पुनर्जागरण के 30 साल’ विषय को लेकर सहमति बनी थी। कहा कि ताज महोत्सव के बाद बहुत सारी सामग्री भेजूंगा। लेकिन 3-4 मार्च तक भी कोई खबर नहीं आयी न कार्यक्रम की सूचना तो थोड़ा खटका लगा। सोचा कि मैसेज भेजकर खैरियत पूछ लूँ। इसी उधेड़बुन में होली आ गयी और दूसरे दिन अचानक जुगलकिशोर जी का फोन आया। इप्टानामा के लिये उनके इंटरव्यू की बात थी और एक सवाल भी भेजा था। सोचा इसी सिलसिले में फोन किया होगा। काश ऐसा होता! जो उन्होंने बताया अप्रत्याशित था: जितेन्द्र जी नहीं रहे !!

नाटककार और संस्कृतिकर्मी के रूप में जन-संस्कृति के हल्के में उनके अवदान की पड़ताल तो अभी निश्चित रूप से होनी है पर मैंने उन्हें एक संगठनकर्ता के रूप में ज्यादा देखा और ट्रेड यूनियन आंदोलन के अपने संक्षिप्त अनुभव के आधार पर कह सकता हूँ कि वे एक बेहतरीन संगठनकर्ता थे। तमाम व्यस्तताओं के बावजूद छोटी-छोटी इकाई के साथ भी उनका जीवंत संपर्क होता था। संभव होता तो उनकी उपस्थिति सशरीर होती थी अन्यथा टेलीफोन, मेल, मोबाइल पत्र-आदि जिस माध्यम से भी संभव हो वे स्वयं को नवीनतम सूचनाओं से अपडेट रखते थे। दक्षिण भारत के संगठनों, जम्मू-कश्मीर व छोटे कस्बों में होने वाली गतिविधियों पर उनकी विशेष नज़र होती और अक्सर फोन पर वे यह निर्देश देते थे कि इन इलाकों से आने कोई भी खबर नहीं छूटनी चाहिये। अगर सूचना टाइप होकर नहीं आयी है तो उनका आग्रह होता था कि फोटो फारमेट में ही खबर लगा दी जाये ताकि उन इकाइयों की हौसला-अफजाई होती रहे।

हाल ही में रायपुर में छत्तीसगढ़ इकाई के प्रांतीय सम्मेलन मे उनसे विभिन्न मुद्दों पर ढेर सारी बातचीत हुई। सांगठनिक गतिविधियों को तीव्रता प्रदान करने के लिये और खासतौर पर नयी पीढ़ी को इप्टा के साथ जोड़ने के लिये नवीनतम टूल्स के प्रयोग उनकी चिंता के केंद्र में थे और इसलिये ही उन्होंने इंटरनेट जैसे माध्यम से परहेज नहीं किया, जबकि उन्हीं की पीढ़ी के कई साथी इससे बचते-बचाते रहे। कहा कि आभासी दुनिया में हिंदी टाइपिंग मैंने आपकी ही वजह से सीखी। मेरा ‘इनबॉक्स’ उनके द्वारा भेजी हुई सूचनाओं से भरा हुआ है। यह सब लिखने से पहले एक बार उन्हें ‘स्क्रोल’ किया तो कितनी बातें, कितनी यादें जेहन में खदबदाने लगीं। यह लिखते हुए मन फटा जा रहा है कि यह इनबॉक्स अब उनके खाते से अपडेट नहीं होगा। नियति ने उनका एकाउंट क्लोज कर दिया है। बकौल शायर, ‘उसको रूखसत तो किया था मुझे मालूम न था/सारा घर ले गया घर छोड़ के जाने वाला।’’

कामरेड जितेन्द्र रघुवंशी को लाल सलाम!
कामरेड जितेन्द्र रघुवंशी अमर रहें!

- दिनेश चौधरी

आभासी दुनिया में जितेन्द्र जी को विनम्र श्रद्धांजलि
(सारे देश से शोक संवेदनाआें का सिलसिला जारी है। यहां कुछ अंशों को ही हम रख पा रहे हैं। प्रयास होगा कि अन्य साथियों की भावनाआें को भी हम आप तक पहुंचा सकें। -संपादक)

भारत में जन संस्कृति के प्रमुख हस्ताक्षर वरिष्ठ रंगकर्मी व कहानीकार , भारतीय जन नाट्य संघ इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव डॉ जितेन्द्र रघुवंशी का आज सुबह 7 मार्च को दिल्ली में सफदरजंग अस्पताल में देहांत हो गया।
रंगकर्म के सकारात्मक युग के प्रणेता कोमरेडरघुवंशी जी का जन्म13 सितम्बर 1951 को आगरा में हुआ और शिक्षा दीक्षा क्रमश आर बी एस इंटर कॉलेज , आगरा कॉलेज , लेनिनग्राद (सेंट पीटर्सबुर्ग) से रुसी भाषा में डिप्लोमा करने के बाद आगरा विश्व विद्यालय के के एम् आई इंस्टिट्यूट में सेवाओं में आयें 1962 से भारतीय जन नाट्य संघ इप्टा से नाटकों में अभिनय लेखन निर्देशन के काम से जुड़े रहे , यह विरासत उन्हें अपने पिता राजेंद्र रघुवंशी और माता अरुणा रघुवंशी जी से मिली जो इप्टा के संस्थापक सदस्यों में से एक थे . 

जितेन्द्र रघुवंशी जी वर्तमान में इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव, आगरा इप्टा के समन्वयक वउत्तर प्रदेश इप्टा के अध्यक्ष भी थे व भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के आजीवन सदस्य रहे कामरेड रघुवंशी जी अपने परिवार में अपनी पत्नी श्रीमती भावना रघुवंशी , पुत्र मानस रघुवंशी और पुत्री सौम्या रघुवंशी को छोड़ गए हैं अभिनेता अंजन श्रीवास्तव जी के समधी भी थे बहन डॉ ज्योत्सना रघुवंशी व भाई दिलीप रघुवंशी जी के अतिरिक्तआज उनके शव यात्रा में सिने अभिनेता व् पूर्व सांसद राजबब्बर , एम् एल सी विधायक डॉ अनुराग शुक्ला , यादगारे आगरा के सरपरस्त सैयद अजमल अली शाह ,भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के के वरिष्ठ नेता कामरेड रमेश मिश्र और समस्त पार्टी कार्यकर्ता इप्टा आगरा के प्रमोद सारस्वत डॉ विजय शर्मा विशाल रियाज़ के एन अग्निहोत्री सुबोध गोयल के अलावा मथुरा से हनीफ मदर , गनी मदार, अनीता चौधरी आगरा के समस्त रंगकर्मी श्री अनिल जैन , उमा शंकर मिश्रा , डिम्पी मिश्र , उमेश अमल विश्वनिधि मिश्र आदि शोकसंतप्त थे
विजय शर्मा



उन्हें यूँ तो इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव के रूप में जाना जाता है ,लेकिन वे एक थियेटर एक्टिविस्ट के रूप में याद किये जाते रहेंगे | एक प्रतिबद्ध संस्कृति कर्मी जिसने अपनी विचारधारा किसी ग्रांट या समारोह में एंट्री के लिए नहीं छुपायी जितना किया खुलकर किया | बेबाक साफगोई से कहा कि राजनीति निरपेक्ष संस्कृति या तो अराजकता लायेगी या फासिज्म और अंध विश्वास पैदा करने वाले बाबा पैदा करेगी | वे बिना लाग लपेट संस्कृति की राजनीति तय करने वालों में थे | छतीसगढ़ में लोक कलाकारों को एकजुट करने का ऐतिहासिक काम उन्होंने किया |वे प्रोफेशनल रंग-कर्म की तरह शौकिया और नुक्कड़ रंग-कर्म के लिए भी प्रबंधन के विकास पर जोर देते थे | रचना शिविर और कार्यशाला उनका माध्यम था जिसे उन्होंने कस्बो और छोटे शहरों पर केन्द्रित किया | आगरा में बच्चो का नाट्य शिविर बिना नागा लगाते रहे | देश भर में घूम घूम कर वे संस्कृतिकर्मियों का जनमोर्चा बनाने के विराट मिशन में लगे हुए थे कि असमय उनकी मृत्यु ने ...
इप्टा उनके DNA में थी|

इप्टा के जयपुर अधिवेशन में जहाँ उनसे पहला परिचय हुआ ,उन्होंने स्वयं बताया था कि किस तरह माता अरुणा और पिता राजेन्द्र रघुवंशी के चलते इप्टा उनका संस्कार बन गयी | अगली मुलाक़ात पटना अधिवेशन में जहाँ कुछ छिटपुट सम्वाद हुआ| आगे फिर सम्वाद हीनता का एक लंबा अंतराल ... दो साल पहले फेस बुक में जब एकाउंट चालू किया तो उनसे टेक्स्ट सम्वाद दुबारा स्थापित हुआ ...

एक दिन उनका फोन आया “मै जितेन्द्र रघुवंशी बोल रहा हूँ ...” इप्टानामा के लेख “प्रतिरोध का रंगकर्म” पर उन्होंने लम्बी बात की | कई सुझाव दिये | आगे कुछ एक मौकों पर इप्टा की बेब साईट के लिए भी सामग्री भेजने का इसरार किया जिसे मैं अपने स्थायी आलस की वजह से पूरा करने में असफल रहा |
एक बात उनकी बराबर याद आती है जो उन्होंने हर मौके पर कही .. कि क्रांतिकारी नाटक करना पहले की बात थी आज तो नाटक करना ही क्रांतिकारी कार्य है ,,नाटक करते रहो |

“ साथी जितेन्द्र रघुवंशी आपका यूँ बीच में सबकुछ अधूरा छोड़कर चला जाना ... यह तो स्क्रिप्ट में नहीं था ..आप जैसे जीवट और धरतीपकड़ से ऐसी एक्जिट की उम्मीद नहीं थी..... ”लेकिन शायद जीवन के रंगमंच की यही विडम्बना है ..और यही चुनौती भी ..सलाम ... सलाम ..सलाम ||||
हनुमंत किशोर
      • Hamare bade bhai,Dost,Guide hamare beech,ab nahi rahe.Hindustani Jan Natya Aandolan ko ek Apurneeya kshati hui hai iski bharpai ho pana namumkin sa lagta hai.
  • Arshad Mohammad You had been an extraordinary person for me Sir! I and my family found you to be an excellent neighbor at Gopal Kunj. At the University, you had always been an exceptional senior, colleague, and a friend. I remember working with you, learning basic values of life during the Various Youth Festivals at the University. We all love you. We wish Almighty gives your family including Misha, Somia and Bhabi and friends, the strength to endure this irreparable loss!
  • Sanjay Srivastava Vinamra shradhanjali!!Jitendraji ham sabke margdarshak the.unki kami hamesha khalegi.unka jana cultural movement ki bahut badi hani hai!
  • Vishwa Shankar मुझे तो विश्वास नहीं हो रहा..।ह्रदय से श्रद्धांजलि..

  • Sabir Ali Siddiqui Unforgettable personality not only me, everybody will miss you.
  • Nivedita Baunthiyal Very shocking and sad news for all of us at IPTA Mumbai. Jitendraji has been an inspiration for all of us......he will always remain in our hearts.
  • DrGirdhar Sharma Hats off to d great n pious soul
  • Binay Kumar Sharma लाल सलाम, कॉमरेड !
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जितेन्द्र रघुवंशी को लाल सलाम ..... औरइंकलाब जिंदाबाद के उदघोष के साथ शुरू हुई का0 रघुवंशी जी की अंतिम यात्रा .... लेकिन उनका जाना किसी वट वृक्ष का धारासाई होने जैसा है ।