Saturday, June 20, 2015

संस्कृति की वर्चस्ववादी समझ : विष्णु नागर


भारतीय फिल्म एवं टेलिविजन संस्थान(एफटीआइआइ) के नये अध्यक्ष और उसकी सोसायटी के चार भाजपाई-संघी सदस्यों की नियुक्ति के विरोध में इस लेख के लिखने तक हड़ताल चल रही थी। कहने की जरूरत नहीं कि इसके नये अध्यक्ष गजेंद्र चौहान की प्रसिद्धि और इस माध्यम की समझ महाभारत और कुछ छोटेमोटे सीरियलों में काम करने तक सीमित है और इस पद तक उनकी पहुँच का आधार उनका पिछले 11 साल से भाजपा से जुड़ा होना है,जिन्होंने पिछले लोकसभा चुनाव में हरियाणा में चुनाव प्रचार भी किया था।। उनके चार भाजपाई सहयोगियों की-जिन्हें संघ और भाजपा से अपने रिश्तों को लेकर किसी तरह की कोई झिझक नहीं है- मशहूरियत तो महाभारत जैसे सीरियल में काम करने जितनी भी नहीं है। जाहिर है कि ये देश के इस प्रतिष्ठित संस्थान का भविष्य तो क्या ही तय करेंगे, उसे बर्बाद ही करने ही लाये गये हैं ताकि सरकार के स्तर से जो भी र जितना भी उदार सांस्कृतिक दृष्टि को समर्थन देने के अब तक प्रयास हुए हैं, वे हमेशा के लिए मटियामेट हो जाएँ और अंततः इन संस्थाओं का कोई उसी तरह कोई अर्थ न रह जाए, जैसे कि मध्य प्रदेश की सरकार पोषित विभिन्न संस्थाओं के साथ हुआ है। आज इनकी राष्ट्रीय या राज्यस्तर पर कोई साख नहीं बची है, इसलिए उनकी अच्छीबुरी कैसी भी कोई चर्चा भी कहीं नहीं है। यही अंततः अखिल भारतीय स्तर पर भी होना है ताकि न बाँस रहेगा, न बाँसुरी बजेगी। दरअसल मोदी सरकार के राज में संस्कृति का कोई क्षेत्र ऐसा नहीं बचा है जहाँ विवादास्पद और उस क्षेत्र के लगभग अनाम-अनपहचाने-महत्वहीन लोगों की थोक में नियुक्तियाँ नहीं हो रही हों, जो संस्थान आज बचे भी हैं वहाँ भी ऐसी तैयारियाँ जोरों पर हैं। चाहे वह फिल्म सेंसर बोर्ड हो ( जो अब फिल्म प्रमाणीकरण बोर्ड के रूप में जाना जाता है।) ललित कला अकादमी हो, राष्ट्रीय संग्रहालय हो, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास हो या तमाम अकादमिक क्षेत्र की संस्थाएँ हों, इनमें ऐसे लोगों को भऱ दिया गया है या भरा जा रहा है जिनकी प्राथमिक योग्यता संघी-भाजपाई विचार का होना ही नहीं है, बल्कि उनका भरोसेमंद सदस्य होना भी है। जिन सांस्कृतिक संस्थानों में अभी तक सीधे हस्तक्षेप की गुंजाइश नहीं बनी है, वहाँ उनकी स्वायत्ता को धमकियों-चेतावनियों के जरिये नष्ट करने की कोशिशें जारी हैं। शायद इसीका नतीजा है कि साहित्य अकादमी जैसी सबसे कम विवादास्पद और सबसे अधिक स्वायत्त संस्था को भी प्रधानमंत्री के स्वच्छता अभियान के समर्थन में कविता पाठ कराना पड़ा है और अब संगीत नाटक अकादमी के नेतृत्व में अन्य अकादमियाँ सहयोग कर रही हैं योग दिवस ही नहीं, योग सप्ताह जोरशोर से मनाने की । इससे पहले कि किसी सरकार ने अपने गैरसांस्कृतिक एजेंडे को इन संस्थाओं के जरिये लागू करवाने की जुर्रत नहीं की थी।क्या यह इन संस्थाओं को पूरी तरह सरकार के सांस्कृतिक-प्रशासनिक संरक्षण में लेने की तैयारी है? क्या इनकी स्वायत्ता का अंततः उसी तरह मजाक बनेगा, जिस तरह प्रसार भारती बोर्ड से जुड़े दूरदर्शन और आकाशवाणी का बन चुका है?

वैसे भाजपा के नेतृत्व में देश में या राज्यों में जब भी कोई सरकार आती है, वह संघ के सांस्कृतिक एजेंडे को लागू करने को अपनी प्राथमिकता के रूप में देखती है, जबकि गैरभाजपाई सरकारों की लगभग कोई सांस्कृतिक समझ नहीं है और जितनी भी है, उसे लागू करने का उनमें साहस और संकल्प नहीं है जबकि अटलबिहारी सरकार की मिलीजुली सरकार के जमाने में भी प्रेमचंद जैसे बड़े लेखक को पाठ्यक्रम से हटाकर भाजपा के महिला मोर्चे की एक नेत्री का उपन्यास पाठ्यक्रम में रख दिया गया था। आज की तरह तब भी राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद में तानाशाही और अपारदर्शी माहौल बनाते हुए संघ का एजेंडे लागू करने जैसे अनेक शैक्षिक- सांस्कृतिक प्रयास हुए थे। अब तो केंद्र में भाजपा की बहुमतवाली सरकार है जिसका प्रधानमंत्री स्वयं संघ का एक स्वयंसेवक होने के नाते संस्कृति की उतनी ही समझ रखता है जितनी कि संघ देता है, फिर भी जिस पर संघ पूरी तरह हावी है, इसलिए धर्मनिरपेक्षता की कसम खाते हुए मोदी सरकार तत्परतापूर्वक संघी सांस्कृतिक एजेंडा को लागू कर रही है।

जाहिर है कि संघ का एक खास सांस्कृतिक हिंदूवादी एजेंडा है जिसमें और तो और हिदुओं की उदारवादी धार्मिक-सांस्कृतिक परंपराओं तक के लिए जगह नहीं है तो मिलीजुली संस्कृति की सुदीर्घ परंपरा को सम्मान देने के लिए कहाँ हो सकती है,जो भारतीय संस्कृति का मूल है। सच तो यह है कि संघ की तथाकथित सांस्कृतिक समझ का भारत और उसके लोगों से कोई संबंध नहीं है। उसका लोकसंस्कृति,लोक परंपराओं, शास्त्रीय और आधुनिक की कलाओं तथा साहित्य से दूर-दूर तक कोई लेनादेना नहीं है। वह अपने मूल में भारतीय है भी नहीं , भले ही इसका ढिंढोरा पीटने पिटवाने में सबसे आगे है। उसका एक राजनीतिक –सांस्कृतिक एजेंडा है जिसके बारे में यहाँ विनम्रता से इतना ही कहना काफी होगा कि उसका लोकतंत्र समझ से कोई संबंध नहीं है। वह एक संकीर्ण हिंदू वर्चस्ववादी एजेंडा है जिसका बहुत कुछ संबंध उन ताकतों से है जिन्हें अंततः दूसरे विश्व युद्ध में पराजय का मुँह देखना पड़ा था और जिससे हुई भारी बर्बादी के बाद दुनिया ने राहत की सांस ली थी। लेकिन यह भी सही है कि संघ अनुशासित भाजपाई सरकारें ही अपने तथाकथित संकीर्ण और घातक सांस्कृतिक एजेंडे को गंभीरता से लेती हैं और उसे प्राथमिकता से लागू करती हैं।

यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि मोटेतौर पर जो पार्टियाँ इस देश में उदारवादी राजनीतिक समझ रखनेवाली हैं, उनके शीर्ष नेतृत्व की संस्कृति में लगभग कोई दिलचस्पी और समझ नहीं है, इसलिए उनकी प्रथमिकताओं में इसकी कोई जगह भी नहीं है। देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू जरूर ऐसे थे जिनकी इतिहास और संस्कृति की गहरी और वैज्ञानिक समझ थी और जिन्होंने उस संस्कृति के विकास की आजाद भारत में गहरी नींव रखी। उसके बाद इंदिरा गाँधी हैं जिनकी इस मामले में सक्रिय दिलचस्पी थी। उसके बाद अगर कोई नाम याद आता है तो मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे अर्जुन सिंह का। इस मामले में पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार के दोनों मुख्यमंत्रियों को भी किंचित श्रेय दिया जा सकता है, हालांकि उनका हस्तक्षेप राज्य की सीमा के भीतर ही अधिक रहा है, उसके बाहर उन्होंने कभी गहरी और सक्रिय दिलचस्पी नहीं ली और यहाँ तक कि आजादी के बाद धीरे-धीरे कम्युनिस्ट पार्टियों ने भी संस्कृति में दिलचस्पी लेना लगभग बंद कर दिया। कुछ और ऐसे प्रधानमंत्रियों- मुख्यमंत्रियों के नाम संभवतः इस सूची से छूट गए हों मगर पहली नजर में कोई और नाम याद नहीं आ रहा। बाकी गैरभाजपाई प्रधानमंत्रियों और मुख्यमंत्रियों के लिए संस्कृति लगभग एक अवांछित या कहें उपेक्षित विषय रहा है और उन्होंने हद से हद सांस्कृतिक पहल का उपयोग या कहें दुरुपयोग अपने नजदीकियों के भी नजदीकियों को उपकृत करने के लिए किया है। इस बहाने उन्हें अगर थोड़ा- बहुत राजनीतिक लाभ मिलता दिखा है तो उसे हासिल करने में उन्होंने संकोच भी नहीं किया है। मोटेतौर पर गैरहिंदूवादी राजनीतिक दलों की समझ यह रही है कि संस्कृति के क्षेत्र में पहल करने से चूँकि वोट नहीं मिलते, इसलिए जो सहज रूप से नाममात्र के बजट से हो सकता है, उसे या तो होने दिया जाए या हिंदूवादियों का दबाव पड़ जाए तो न होने दिया जाए।राममंदिर आंदोलन के बाद खासतौर से कांग्रेसी सरकारें हिंदूवादी एजेंडे की आक्रामकता से भयभीत रही हैं और उन्होंने बार-बार समर्पण किया है।

इसके बावजूद संस्कृति के क्षेत्र में निजी और सार्वजनिक पहल की ऐसी सुदीर्घ और मजबूत परंपरा है कि आज संस्कृति की दुनिया में ऐसा एक भी उल्लेखनीय नाम याद नहीं आता, जिसका संघ-भाजपा परिवार की सांस्कृतिक समझ से कोई अंतर्भूत नाता-रिश्ता हो। कुछ व्यक्तिगत विचलन के उदाहरण हो सकते हैं और अवसरवादियों की कभी भी कोई कमी नहीं रही है तो ब क्यों होगी मगर इसके बावजूद संस्कृति की रचनात्मक दुनिया में आज तक उदारवादी विचारों का ही वर्चस्व है और रहेगा भी। इसकी बुनियादी वजह यह है कि संस्कृति की दुनिया में वही व्यक्ति और संस्था कुछ सार्थक और रचनात्मक कर सकती है-हालांकि इसकी कोई गारंटी नहीं है- जो बुनियादी रूप से संस्कृति की उदारवादी-व्यापक समझ से जुड़ी हुई हो। आज तक कोई बड़ा और सार्थक नाम ऐसा भूले से भी याद नहीं आता, जो संस्कृति की संकीर्ण हिंदूवादी या इस्लामवादी धारा से बुनियादी रूप से जुड़ा हुआ हो और यह स्थिति मोदी सरकार के दौरान भी तमाम उसकी हताश और विध्वंसकारी कोशिशों के बीच बनी रहेनवाली है। कुछ राजनीतिक विचलन इस मायने में देखने को समय-समय पर मिलते रहेंगे कि कुछ कलाकार –लेखक इस सरकार से भी कुछ पाने की आशा में कई मामलो में चुप रहेंगे या अपने कलावादी बाने में घुसकर अराजनीतिक होने का नाटक करेंगे या जो राजनीतिक-वामपंथी होने के आरोप से बचकर अपनी छवि दूर-दूर तक सरकार विरोधी नहीं बनने देना चाहते। वे यह कहना पसंद करेंगे कि हमें राजनीति से क्या मतलब, हम तो संस्कृति की दुनिया में अपना काम अपने चुपचाप ढँग से करना चाहते हैं और यह सरकार हमसे भी कुछ चाहेगी तो हम नि-संकोच करेंगे क्योंकि अंततः यह सरकार भी जनता द्वारा चुनी गई सरकार है और तीन दशक बाद आई ऐसी सरकार है, जिसे संसद में पूरा बहुमत मिला है। कुछ प्रधानमंत्री या उनके मंत्रियों के नजदीक जाने का प्रयास भी कर रहे होंगे ताकि उन लाभों से वे वंचित न रहें, जो लाभ वे पहले भी उठाते रहे हैं और उन लाभों के गुलाम हो चुके हैं। इन्हीं के बूते उनका सांस्कृतिक जगत में वर्चस्व बना हुआ है। साहित्य को छोड़कर अन्य कलाओं के कलाकार बहुत हद तक सरकारी सांस्कृतिक समर्थन पर जिंदा हैं या सरकार को नाराज करने से वे कारपोरेट समर्थन से वंचित हो सकते हैं, इसलिए उन कलाओं के लोगों में यह विचलन और भय अधिक दिखना स्वाभाविक है। इसके बावजूद वे संघी विचारधारा के समर्थक कम से कम अपनी कला के जरिये बन जानेवाले नहीं हैं क्योंकि ऐसा करना अपनी रचनात्मकता से द्रोह करना होगा।, हालांकि चतुराई बहुत काम आनेवाली नहीं है क्योंकि वर्तमान केंद्र सरकार में बैठे महत्वपूर्ण और जिम्मेदार लोगों की सांस्कृतिक समझदारी बहुत हद तक संघ की ताकथित सांस्कृतिक विचारधारा के आसपास ही घूमती है और संघ अपने परिवार के ज्यादा से ज्यादा लोगों को यहाँ- वहाँ फिट करवाने की बेहद जल्दी में है, जो उसके दूरगामी एजेंडे को पूरा करने के लिए जरूरी है। अतः सरकार संस्कृति की तथाकथित गैरराजनीतिक समझ रखनेवाले संस्कृतिकर्मियों में दिलचस्पी नहीं रखती, हाँ वे राजनीतिक रूप से इस्तेमाल होना चाहें तो जरूर उसकी कीमत देकर ऐसा करेगी क्योंकि उसे राजनीति की तरह कला की दुनिया में भी यह दिखाना है कि उसकी वे बड़ी हस्तियाँ उसके साथ हैं।

वैसे भाजपा –संघ सांस्कृतिक वर्चस्व की ऐसी लड़ाई चारों तरफ लड़ रहे हैं,जिसमें उनकी राजनीतिक और अंततः सांस्कृतिक-सामाजिक जीत का वक्फा कम रहनेवाला है। उन्हें भारत के लोगों की असली ताकत का अंदाजा नहीं है, जो पिछड़े सांस्कृतिक-राजनीतिक-सामाजिक एजेंडे को लंबे समय तक कसी भ्रम में स्वीकार नहीं कर सकते।यह एक स्थायी दृश्य नहीं हो सकता, जिसमें आप आबादी के एक बड़े हिस्से को अलग-थलग कर दें, उसे जिल्लत की जिंदगी जीने को मजबूर करें। संस्कृति की रचनात्मकता की उपेक्षा-अवहेलना करें, उसे हिंसा से दबाने का प्रयास करें और राजनीतिक हिदुत्व को देश की विचारधारा बनाने की कोशिश करें।यह इस देश के लोगों के बुनियादी स्वभाव के है।खिलाफ है, उस सांस्कृतिक विरासत के खिलाफ है जिसे हजारों साल के अनुभव के बाद हमारे पुरखों ने हमें सौंपा है, जिसे दुनियाभर के मानवतावादी –परिवर्तनवादी लोगों ने रचा है, बनाया है।

जनसत्ता से साभार

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