Friday, July 17, 2015

इप्टा के समक्ष नये सवाल आैर नयी चुनौतियां

-हिमांशु राय
प्टा को अब 72 वर्ष होने को आ रहे हैं। इतना पुराना और विशाल संगठन यदि आज सक्रिय है तो यह बहुत बड़ी बात है। इसका मतलब ही यह है कि इस संगठन में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में अंतरण चल रहा है।इसीलिए इस संगठन से बहुत आशाएं हैं। इप्टा में बड़ी संख्या में युवा सक्रिय हैं। आज हम लोग जो इप्टा का नेतृत्व कर रहे हैं कल आज के युवाओं को इप्टा सौंपेंगे। इसीलिए हमें संगठन की व्यापक चिन्ता करना है और सांगठनिक और वैचारिक रूप से इसे बहुत मजबूत बनाना है।

मेरा प्रस्ताव है कि इप्टा एक सांस्कृतिक संगठन है और इसीलिए इप्टा में सांस्कृतिक प्रश्नों पर लगातार बात होना चाहिए और काम तो होना ही चाहिए। अभी हालात ये हैं कि हमारे यहां सांस्कृतिक, सामाजिक, शैक्षणिक प्रश्नों पर बातचीत नहीं हो पा रही है। हम मोटे तौर पर राजनैतिक स्थितियों की समीक्षा करते हैं और देश की साम्प्रदायिक स्थिति से परेशान होते हैं। ये प्रश्न कम महत्व के नहीं हैं। इन पर बात होना चाहिए पर आज कोई सांस्कृतिक संगठन ऐसा नहीं है जो देश में होने वाली विभिन्न सांस्कृतिक, सामाजिक, शैक्षणिक, वैज्ञानिक घटनाओं, निर्णयों आदि पर सोची समझी बेबाक राय रख सके। इन प्रश्नों पर चलाए जा रहे नकारात्मक आंदोलनों को जवाब दे सके। आम जन की समझ को तार्किक और वैज्ञानिक दृष्टि से लैस कर सके।

उदाहरण के लिए हम भाषा के प्रश्न से शुरू करें। आज देश में मातृ भाषाओं और लोकभाषाओं की क्या हालत है? पूरी कोशिश है कि हम अपनी मातृभाषाओं और लोकभाषाओं से विलग हो जाएं। हमारी बोलचाल पूरी तरह अधकचरा हो चुकी है। हमें अपनी मातृभाषा से ज्यादा आसान अंग्रेजी लगती है। यह केवल हिन्दी के साथ ही नहीं है। सभी प्रदेशों और अंचलों की भाषाओं के साथ यही स्थिति है। निकट भविष्य में हम लगभग पूर्ण अंग्रेज हो जाएंगे। आज हालात ऐसे हो गए हैं कि जो जितनी अंग्रेजी बोले वो उतना बड़ा वि़द्वान। भाषा का प्रश्न बहुत महत्वपूर्ण है। यदि आप सौ छात्रों से पूछेंगे तो मुश्किल से उनमें से दस लोग हिन्दी साहित्यकारों का नाम लेंगे और वो भी प्रेमचंद, रवीन्द्रनाथ टैगोर और शरतचन्द्र के। ये हालत है। हिन्दी का साहित्य और सांस्कृतिक संसार बहुत सिमट गया है। हम व्यर्थ ही गुमान किए हैं। भाषा के प्रश्न पर ईमानदारी से आवाज उठाने वाले बुद्धिजीवियों और लेखकों को हमें साथ लेकर लंंबी लड़ाई लड़नी होगी।

देश का मध्यमवर्ग जिस तरह से मदहोश है उसे होश में लाकर आज से 50 या 100 साल बाद के भारत की कल्पना करके देखना होगा जब न भारतीय भाषाएं होंगी और न भारतीय संस्कृति।संस्कृति के सवाल और भी जटिल हैं। संस्कृति को बहुधा पहनावे और पूजा पद्धति से जोड़ दिया जाता है। हम संस्कृति को उसके बहुत विविध और व्यापक रूप में देखते हैं। लेकिन हमारा नजरिया जनता के बीच व्यापक रूप से प्रसारित नहीं है और न इस हेतु हमारी कोशिश है। फिलहाल देश में इप्टा ही वो संगठन है जो संस्कृति के सवालों को अपने सही परिपे्रक्ष्य में उठा सकता है। इस हेतु हमें संस्कृति पर विमर्श करने वाले बु़िद्धजीवियों को अपने साथ लेना होगा। वर्तमान समय में देश में प्राथमिक शिक्षा और उच्च शिक्षा दोनों की जो हालत है उस पर सवाल उठाने की जरूरत है। बच्चों की शिक्षा की ओर तो कोई ध्यान ही नहीं है और बड़ों की शिक्षा इतनी व्यावसायिक हो चुकी है कि उसमें शिक्षा बची ही नहीं है। इस बारे में इप्टा देश के शिक्षाविदों के साथ मिलकर शिक्षा के प्रश्नों को उठा सकती है।

इतिहास के बारे में बारंबार प्रश्न उठते रहते हैं। आज वो तमाम इतिहासकार जिनपर आरोप है कि वे वामपंथी हैं निशाने पर हैं। इतिहास के वस्तुपरक विवेचन और ईमानदार इतिहासकारों के लिए कौन लड़ेगा ? ग्रंथालयों पर बढ़ते हमलों के खिलाफ कौन आवाज उठायेगा ?देश में साम्प्रदायिक माहौल बहुत खराब है। कारण हम सब जानते हैं पर धर्मनिरपेक्षता का आंदोलन कौन चलायेगा ? विभिन्न धर्मावलंबियों को एक मंच पर कौन लायेगा ? सांम्प्रदायिकता के विरूद्ध अभियान कौन चलाएगा। अब इस मामले में आजमाए जाने वाले तौर तरीके बहुत पुराने हो गए हैं। इन्हें बदलना होगा। नए तरीके आजमाने होंगे और सभी धर्माें के बहुतांश लोगों को इसमें जोड़ना होगा। इप्टा जैसा संगठन इसे कर सकता है।

विज्ञान शिक्षा व्यवस्था का भी हिस्सा है और विज्ञान वैज्ञानिक सोच का भी हिस्सा है। दाभोलकर और कामरेड पानसरे जैसे लोग अकेले लड़ाई क्यों लड़ रहे हैं ? उनके साथ हम क्यों नहीं हैं ? वैज्ञानिक सोच की लड़ाई बहुत बड़ी लड़ाई है। विज्ञान की शिक्षा और उसके कारण वैज्ञानिक सोच का विकसित होना भी हमारे समाज के लिए किया जाने वाला काम है। इसे भी तो हमें ही करना है। इप्टा को ही करना है। स्कूली शिक्षा और उच्च शिक्षा में भी विज्ञान की पढ़ाई में बहुत पेंच हैं। शिक्षाविद् इस बारे में चिंतित हैं। शुद्ध गणित, रसायन शास्त्र और भौतिक शास्त्र पढ़ने वालों की संख्या नगण्य हो चुकी है। इसके लिए शिक्षा और शिक्षा पद्धति के साथ ही शिक्षा में नवाचार और शोध के लिए काम किया जाना है। इप्टा देश के शिक्षाविदों के साथ मिलकर यह काम कर सकती है। और भी बहुत से क्षेत्र हैं जिनमें इप्टा का हस्तक्षेप परिणामकारी हो सकता है।

फिल्म का माध्यम बहुत कारगर है और बहुत ज्यादा लोगों तक पंहुचने की ताकत रखता है। आज बहुत से युवा सार्थक फिल्में बना रहे हैं। कुछ इस तरह का षडयंत्र है कि देश से सिनेमाघर गायब हो गए हैं और उनकी जगह मंहगे सिनेप्लेक्सों ने ले ली है। इसीलिए इन जगहों पर कोई छोटे बजट की अच्छी फिल्म देखी जा सकेगी यह असंभव है। इप्टा अच्छी फिल्मों को दिखवाने का अभियान चलाकर अपने सरोकारों को बहुत फैला सकती है।

देश में पढ़ने की प्रवृत्ति बहुत घट चुकी है। इसका कारण केवल टी वी इत्यादि भर नहीं है। अच्छी और सस्ती पुस्तकें बेचना, छापना भी बंद हो चुका है। पुस्तकालय और ग्रंथालय वीरान हैं। साहित्य का अध्ययन बहुत अधिक साीमित है। इप्टा पुस्तकालयों और चलित पुस्तकालयों, ग्रन्थालयों का काम भी शुरू कर सकती है देश में शिक्षा एक बड़े व्यवसाय में तब्दील हो चुकी है। हम इस दिशा में भी सोच सकते हैं कि देश में अच्छी और सस्ती शिक्षा आम जनता तक पंहुचे।चित्रकला, नृत्य, संगीत और लोककलाओं के विद्वान हमारे बीच हैं। पर्यावरण और उससे जुड़े मुद्दे भी हमारे विषय होना चाहिए।मगर हमारी जाहिर उपस्थिति इन क्षेत्रों में नहीं है। इनके अलग अलग समूह बनाकर लगातार इनमें काम होना चाहिए।

पत्रकारिता शब्द ही संदिग्ध हो चुका है। अखबारों से संपादक गायब हैं। मालिक ही सम्पादक है और मालिक ही सबका मालिक है। हम इन अतिविशाल संस्थानों से सीधी लड़ाई तो नहीं लड़ सकते परंतु पढ़े लिखे तबके बीच जो आधुनिक इंटरनेटी साधनों का इस्तेमाल करते हैं काफी जागरण कर सकते हैं ताकि ये बेनकाब हो सकें। हमारे पत्र पत्रिकाएं काफी काम कर सकते हैं क्योंकि लिखे और छपे की ताकत बहुत होती है। वो मिटता नहीं है। देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दयनीय अवस्था में है। जब तब स्वतंत्र चिंतकों पर हमले होते हैं। फिल्मों और किताबों पर प्रतिबंध की मांग उठती है। पचास साठ साल छपे किसी कार्टून पर देश की संसद बहस करती है। और सत्ता इतनी दयनीय हो जाती है कि अपना बचाव नहीं कर पाती। विभिन्न क्षेत्रों के विद्वानों और शिक्षाविदों के साथ मिलकर हमेंं काम करना होगा। यह हमारे आंदोलन को आज के समय में ज्यादा सार्थक बनायेगा। इप्टा ने ऐसे नाटक किए कि उन पर प्रतिबंध तक लगा। गोली तक चली। इसीलिए इप्टा वो संगठन है जो निर्भीकता से सही बात कह सकता है। ऊपर कई मुद्दे छूट गए होंगे जिन्हें इस पत्र में जोड़ा जा सकता है। हम विचार करें और लगातार बात करते हुए आगे ब छोटे वैचारिक समूहों में बार बार बैठना चाहिए।

लेखक  इप्टा के राष्ट्रीय सचिव मंडल के सदस्य हैं। आपसे 9425387580 पर संपर्क किया जा सकता है।

1 comment:

  1. आपका प्रस्ताव सार्थक है और आज की आवश्यकता भी. मैं इस मुहिम में आपके साथ हूँ.

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