Monday, August 17, 2015

इस्मत चुग़ताई: खुद बदनामियों झेल कर औरत को उसका हक़ दिलाया


-वीर विनोद छाबड़ा
खनऊ में तारीख़ १४ अगस्त २०१५ में इस्मत चुग़ताई के जन्म शताब्दी समारोह के सिलसिले में इप्टा, लखनऊ ने 'महत्व इस्मत चुग़ताई' कार्यक्रम आयोजित किया। अध्यक्षता जेएनयू के पूर्व प्रोफ़ेसर और उर्दू इल्म-ओ-अदब में बहैसियत समालोचक दख़ल रखने वाले शारिब रुदौलवी ने की। अलावा उनके मंच पर आबिद सुहैल, रतन सिंह, सबीहा अनवर, वीरेंद्र यादव और शबनम रिज़वी की मौज़ूदगी थी।

इप्टा के राष्ट्रीय सचिव राकेश ने संचालन करते हुए इस्मत चुग़ताई की ज़िंदगी पर रौशनी डालते हुए बताया इस्मत आपा के अफ़साने 'लिहाफ़' ने अदबी दुनिया में ज़बरदस्त हलचल पैदा की। ये अफ़साना औरत की आज़ादी की बात तो करता ही है, पूरे समाज का रचनात्मक आत्मलोचन भी करता है.…उन पर उनके भाई अज़ीम बेग चुग़ताई का और उनके लेखन का ख़ासा असर था। इस्मत ने अज़ीम बेग को पार करके उर्दू अदब में खुद को स्थापित किया। ख़ुद अज़ीम बेग को भी इसका डर था। इस्मत कहती थीं कि क़लम मेरे हाथ में जब आ जाती है तो मैं लिखती ही जाती हूं.…वो १९४७ में मुल्क़ की तक़सीम से पैदा हुए फ़सादात से गुज़री। तक़सीम मुल्क़ की ही नहीं हुई बल्कि अवाम के दिलों की भी हुई.…वो कृष्ण चंदर, राजिंदर सिंह बेदी और सआदत अली मंटो की कड़ी हैं। प्रोग्रेसिव लेखन की अगुवा रहीं। उनका लेखन ऑटोबायोग्राफ़िकल रहा है। उनके अफ़साने बताते हैं वो किसी से भी बात कर लेती हैं। चाहे वो धोबी हो या मोची या सफ़ाई वाला या कामवाली बाई या अस्तबल का साइंस…एक बार मंटो से किसी ने पूछा था कि अगर मंटो की शादी इस्मत से हो गयी होती तो? मंटो ने जवाब दिया था कि निक़ाहनामे पर दस्तख़त करते-करते उनमें इतनी लानत-मलानत होती कि यह वहीं टूट जाती। 

करामात हुसैन डिग्री कॉलेज की पूर्व प्रिसिपल और उर्दू की वरिष्ठ लेखिका सबीहा अनवर ने इस्मत आपा के साथ वक़्त वक़्त पर बिताये दिनों को भावुक अंदाज़ से याद किया। इस्मत आपा की राय बेहद बेबाक होती थी। वो दिखावटी बात नहीं करती थीं। प्रैक्टिकल, मुंहफट और आज़ाद ख़्याल। उन्हें दुनिया में होने वाली हर घटना की जानकारी लेने की फ़िक्र रहती। उस पर अपना नज़रिया ज़ाहिर करती…वो जब कभी लखनऊ आतीं तो मेरे घर ज़रूर आती, क़याम भी फ़रमाती। जब भी मिलीं बड़े ख़लूस से मिलीं। उन्हें मिलने, देखने और सुनने वालों का सिलसिला सुबह से शाम चला करता। भीड़ लगी रहती। वो बेबाक बोलने से बाज़ न आतीं। उनकी शैली व्यंग्यात्मक होती। एक बार बोलीं कि मेरी मां को उसके दसवें बच्चे ने बिलकुल तंग नहीं किया क्योंकि वो पैदा होते ही मर गया....कोई न कोई कंट्रोवर्सी वाला बयान दे देतीं और फंस जाती। अख़बारनवीसों को इसी का इंतज़ार रहता। एक दिन कह बैठीं कि मरने के बाद दफ़न करने के बजाये मुझे जलाया जाए.…जब मैंने उनसे कहा कि आप थोड़ा सोचा-समझ कर बयान दिया करें तो उन्होंने कहा, मैं तुम्हारे जैसी समझदार नहीं हूं। जो दिल में है वही कहूंगी। मैं सच कहने से डरती नहीं…बहुत ज़िद्दी थीं वो। बोलने पर आतीं तो बेलगाम हो जातीं। यादों का कभी ख़त्म न होने वाला ख़जाना था उनकी झोली में। अपने मरहूम शौहर शाहिद लतीफ़ और भाई अज़ीम बेग का बहुत ज़िक्र करतीं थीं। लेकिन दुःख साझे नहीं करतीं थीं.…'जुनून' की शूटिंग में मिलीं। मैंने पूछा कहां एक्टिंग में फंस गयीं। तो बोलीं क्या जाता है मेरा? फ़ाईव स्टार होटल और शानदार खाना है। मौज मस्ती है.…चटपटे खाने की बहुत शौक़ीन थीं। खाते वक़्त खूब बातें करतीं। एक बार मुझसे बोलीं बड़ी मक्कार हो तुम। हस्बैंड को रवाना करके खूब बढ़िया-बढ़िया खाना खाती हो और गप्पें मारती हो.…छोटी-छोटी बातों का बहुत ध्यान रखतीं। पूरा सूटकेस पलट देतीं। समझौते नहीं कर सकतीं थीं.…मैंने ऊपरी तौर पर उन्हें ज़िंदगी से भरपूर देखा। लेकिन अंदर से मायूस और तनहा पाया। उन्होंने अपनी बेटियों का ज़िक्र बहुत कम किया। हां, नाती को कभी-कभी याद ज़रूर कर लेतीं। किसी को उनकी फ़िक़्र नहीं होती थी कि वो कहां हैं, कैसी हैं और कब लौटेंगी …उन दिनों वो हमारे घर पर रुकीं थीं। उनके लिए बंबई से फ़ोन आया। फलां फ्लाईट से फ़ौरन रवाना कर दें। मैं और मेरे पति अनवर उन्हें एयरपोर्ट छोड़ने गए। वहीं बंबई जा रहे एक दोस्त मिल गए। हमने इस्मत आपा को उनके सिपुर्द कर दिया, इस ताक़ीद के साथ कि रास्ते भर उनका हर क़िस्म का ख्याल रखें और एयरपोर्ट से घर के लिए टैक्सी भी कर दें। दोस्त ने लौट कर बताया कि वो बलां की ज़िद्दी निकलीं। बंबई एयरपोर्ट पर उन्हें लेने कोई नहीं आया। टैक्सी करके सीधा बांद्रा चली गयीं अपने एक दोस्त के घर।
प्रसिद्ध लेखिका शबनम रिज़वी ने इस्मत आपा के अफ़सानों और नावेलों के किरदारों पर बड़े विस्तार से रौशनी डाली। वो खुद अव्वल दरजे की ज़िद्दी थीं। उनके किरदारों में अजीबो-ग़रीब ज़िद्द और इंकार साफ़ दिखता है। मुहब्बत करने वाला नफ़रत का इज़हार करता है। खेल-खेल में बात शुरू होती है। फिर नफ़रत में तब्दील हो जाते हैं। हमला करते हैं। मगर आख़िर आते-आते भावुक हो जाते हैं.…उनके किरदार वक़्त के साथ बदलते भी रहते हैं.… महिलाओं के लिए बहुत लिखा। 

हिंदी साहित्य के सुप्रसिद्ध समालोचक वीरेंद्र यादव ने रशीद जहां, अतिया हुसैन और कुर्तनलैन हैदर की पंक्ति में इस्मत चुग़ताई को रखते हुए बहुत बड़ी लेखिका बताया। यह सब लखनऊ के आधुनिक आईटी कॉलेज की पढ़ी हुईं थीं। उन्होंने अपने समाज की चिंता के साथ महिलाओं की आज़ादी की बात की है। उनकी प्रसिद्ध कृति 'लिहाफ़' में शोषण के परिप्रेक्ष्य की सिर्फ़ बात नहीं है। उनमें फ़िक्र है कि हालात क्या हैं, रिश्ते क्या हैं और ऐसे रिश्ते क्यों हैं और उनके किरदारों के शौक क्या हैं?…उन्होंने सेक्सुल्टी की बात की। उस भाषा में बात की जो उनके समाज के मिडिल क्लास में बोली जाती है। और उन विषयों पर लिखा जिन पर कभी किसी की निग़ाह नहीं गयी थी.…वो मूल्यों के साथ जुडी रहीं। कभी किसी तहरीक़ के साथ जुड़ कर नहीं लिखा। थोपी हुई बातें नहीं मानीं। जो मन में आया, लिखा…उनके अफ़सानों में १९४७ के पार्टीशन से उपजे सांप्रदायिक दंगों का दर्द है। दिलों में दरारें पड़ने का दर्द है। ऐसे संगीन माहौल में एक लेखक का फ़र्ज़ बनता है कि वो हस्तक्षेप करे। और इस्मत आप ने पूरे समर्पण के साथ बखूबी किया…वो पाखंड की धज्जियां उड़ाती हैं। 'कच्चे धागे' कहानी में उनकी यह फ़िक्र और उनकी विचारधारा दिखती है कि वो किसके साथ खड़ी हैं। बापू की जयंती के रोज़ आत्माएं शुद्द हो रही हैं। गंदी और घिनौनी। मगर लालबाग़ और परेल के इलाकों में एक भी तकली नाचती नज़र नहीं आती है। पच्चीस हज़ार श्रमिक कामगार मैदान में जमा हैं। छटनी की धार से ज़ख्मी मज़दूर, फीसों से कुचले विद्यार्थी, महंगाई के कारक और शिक्षक उम्मीद भरी नज़रों से आज़ाद मुल्क के रहनुमाओं को ताक रहे हैं। इंसान इंसान से नहीं हैवान से लड़ेगा। कामगार मैदान के चारों ओर पुलिस का पहरा है। मगर नाज़ायज़ शराब पर नहीं है, काले बाज़ार और चोर उच्चकों पर नहीं है। मैं इनके साथ हूं। भले मैं इस तूफ़ान में कतरा हूं और हर कतरा एक तूफ़ान है.…आज बहुमतवादी आतंक है। मूल्यों का क्षरण हो रहा है। ऐसे में इस्मत आपा की और उनके समर्पित लेखन की सख़्त ज़रूरत है। 

मशहूर सीनियर उर्दू अफ़सानानिगार रतन सिंह ने इस्मत आपा को याद करते हुए बताया कि वो बेहद संजीदा औरत थीं। एक वाक़या याद है। एक जलसे में उनको सुनने और देखने वालों से हाल भरा हुआ था। मैं जगह न मिलने की वज़ह से पीछे एक कोने में खड़ा था। इस्मत आपा ने देखा। ज़ोर से बोलीं। पीछे क्यों खड़े हो? आगे आओ। इसके पीछे उनका मक़सद था, नई पीढ़ी के अदीबों आगे आओ। सीनियर अदीब जूनियर के लिए रास्ता साफ़ करो। एक जनरेशन दूसरी जेनरेशन को तैयार करती थी। हमें उनके काम को आगे बढ़ाना चाहिये…आज मुल्क़ में कोई ऐसा रिसाला नहीं है जिसमें पूरे मुल्क़ के अदब को देखा जा सके। कहानी के मामले में हमारा हिंदुस्तान बहुत आगे है। 

मशहूर सीनियर उर्दू अफ़सानानिगार और सहाफ़ी आबिद सुहैल ने बताया कि इस्मत आपा सिर्फ़ हिंदुस्तान में ही नहीं बल्कि सारी दुनिया में मशहूर थीं.… पहली मरतबे उन्हें १९६२ में देखा था। लखनऊ के बर्लिंग्टन होटल में एक जलसा हुआ। बेशुमार नौजवान अदीब जमा हुए इस्मत आपा को देखने और सुनने। उन्होंने अपील की। घर से बाहर निकलो। लोगों से मिलो, उन्हें देखो और लिखो…इस्मत आपा शादी के कुछ दिनों बाद तक अपने शौहर शाहिद लतीफ़ के नाम से लिखती रहीं। बाद में अपने नाम से लिखा…औरत जब चुटकी लेती है तो मर्द कसमसा कर रहा जाता है। इस्मत आपा इसमें माहिर थीं.…एक जलसे में जाने से पहले शाहिद ने उनसे कहा, मेरी कहानी के मुतल्लिक कुछ नहीं कहेंगी। मुंह बिलकुल बंद रखना। लेकिन वो अपना वादा नहीं निभा सकीं। कहानी की बखिया उधेड़ कर रख दी। वापसी पर शाहिद ड्राइव कर रहे थे और इस्मत उनका चेहरा देख रहीं थीं कि शाहिद कुछ बोलेंगे। लेकिन बिलकुल ख़ामोश रहे.....एक वाकया रामलाल के घर पर हुआ। हम सब वहां पहुंचे। रामलाल वो तमाम खतूत संभालने और खंगालने में लगे थे जिन्हें तमाम अदीबों ने उन्हें लिखे थे। इस्मत बोलीं यह सब बेकार मेहनत क्यों कर रहे हो। तुम्हारे जाने के बाद सब ख़त्म हो जायेगा। कोई इन्हें संभाल नहीं रखेगा… इस्मत के अफ़सानों में डायलॉग बहुत कम हैं। कहानी बनाई नहीं जाती, बल्कि चलती रहती है। 

कार्यक्रम के अध्यक्ष और ,जेएनयू के पूर्व प्रोफ़ेसर और उर्दू समालोचक शारिब रुदौलवी की निग़ाह में इस्मत चुग़ताई की कहानियां के ख़ास तरह की थीं। तरक़्क़ीपसंद अफ़साने लिखे। फ़िक्री कहानियां लिखीं, जिनकी बुनियाद मसायल हैं। मसायल में इंसान के काम की अहमियत है.…उर्दू में भंगी समाज पर सिर्फ़ दो अफ़साने लिखे गए हैं। एक कृष्ण चंदर ने लिखा - कालू भंगी। और दूसरा लिखा इस्मत ने - दो हाथ। यह इस्मत की ही हिम्मत थी कि उन्होंने उस किरदार की समाज में अहमियत बताई…उनके अफ़सानों को पढ़ कर लोग हैरान होते थे जब उन्हें यह पता चलता था कि ये खातून ने लिखे हैं। उस दौर में यह बहुत बड़ी बात थी.…अफ़साना तो कोई भी लिख सकता है। सवाल यह है कि मसला क्या है? इस्मत ऐसे मसायल लेकर चलती हैं जिनमें औरत की जद्दोजहद पूरी शिद्दत के साथ पेश की जाती है। उसे समाज में हक़ दिलाती हैं। इस्मत ने बदनामियों को झेल कर औरत को उसका मुक़ाम दिलाया। आज़ादी दिलाई… अफ़साने आते रहेंगे और अफ़सानानिगार भी। लेकिन इस्मत का आना मुश्किल है।

और आख़िर में मैं। इस्मत आपा वाक़ई अद्भुत थीं। वो मेरे मरहूम वालिद, उर्दू के मशहूर अफ़सानानिगार रामलाल. की दोस्त थीं। हमारे घर पर रहीं भी.…मैंने उन्हें पहली मरतबे १९६२ में देखा था। वो चारबाग़ वाले हमारे घर आईं थीं। बेहद खूबसूरत। मैं तो उन पर फ़िदा हो गया था। उस वक़्त मेरी उम्र १२ साल थी.…१९८७ में वो हमारे इंदिरा नगर घर आयीं। दो रोज़ रहीं भी। उनसे मैंने सिनेमा के बारे बहुत लंबी बात की। खास तौर पर दिलीप कुमार के बारे में। उनके शौहर शाहिद लतीफ़ ने दिलीप कुमार को 'शहीद' और 'आरज़ू' में डायरेक्ट किया था। इसकी कहानी इस्मत आपा ने लिखी थी। उन्होंने गुरुदत्त की 'बहारें फिर भी आयेंगी' भी डायरेक्ट की थी.…एक बार जब मैं बंबई घूमने गया था तो इस्मत आपा से तो घर पर मुलाक़ात हुई लेकिन शाहिद लतीफ़ साहब से मिलने हमें श्री साउंड स्टूडियो जाना पड़ा, जहां वो चिल्ड्रन फिल्म सोसाइटी के लिए 'जवाब आएगा' के शूटिंग कर रहे थे.…इस्मत आपा बहुत बिंदास थीं और जो बात उन्हें पसंद नहीं थी तो लाख बहस के वो हां नहीं करती थीं। मैंने उनसे कहा रामायण सीरियल का राम अरुण गोविल मुझे फूटी आंख नहीं सुहाता। इस पर वो बहुत नाराज़ हुईं… वो थ्री कैसल विदेशी सिगरेट पी रही थी। मैं उन्हें ललचाई आंखो से देख रहा था। वो समझ गयीं। अपने पर्स से एक डिब्बी निकाल कर मुझे पकड़ा दी। मैंने इसे किसी से शेयर नहीं किया। रोज़ एक एक करके पी डाली…उनके इंतक़ाल की ख़बर ने हतप्रद कर दिया। बड़ा अजीब लगता है और ख़ालीपन सा भी, जब कोई ऐसा गुज़र जाए जिसे बहुत करीब से देखा और समझा हो। और फिर इस्मत आपा तो हमारे परिवार की थीं। 

कार्यक्रम में साहित्य, रंगमंच और पत्रकारिता से जुड़े जुगल किशोर, के.के.चतुर्वेदी, सुशीला पुरी, विजय राज बली, ऋषि श्रीवास्तव आदि तमाम जानी-मानी हस्तियों मौजूद थीं।

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