Friday, October 16, 2015

दरवाजे तक आए फासीवाद को चुनौती

-भाषा सिंह
ब तक 25 से अधिक साहित्यकार साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा चुके हैं, संगीत-नाटक अकादमी को भी पुरस्कार वापस करने की शुरुआत हो गई है। आने वाले दिनों में इस विद्रोही ब्रिगेड में चित्रकारों-गायकों, नर्तकों के शामिल होने की उम्मीद जताई जा रही है। कन्नड़ विचारक एमएम कलबुर्गी की हत्या के विरोध में हिंदी लेखक उदय प्रकाश द्वारा साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का सिलसिला भारतीय साहित्य में बड़े बवंडर का रूप लेता जा रहा है। 

अपने पुरस्कार लौटाकर इन साहित्यकारों ने, 'अपने दरवाजे तक आए, सांप्रदायिक फासीवाद को चुनौती दी है।’ केंद्र में मोदी सरकार के बाद से देश-भर में जो माहौल बना, उसके खिलाफ लेखकों का खुला विक्षोभ पत्र है, जिसपर हस्ताक्षर करने वालों की तादाद लगातार बढ़ती जा रही है। पंजाब की मशहूर लेखिका दलीप कौर टिवाणा ने बढ़ती असहिष्णुता के खिलाफ पद्मश्री पुरस्कार लौटा दिया है। अंतरराष्ट्रीय ख्याति प्राप्त लेखक सलमान रुश्दी ने साहित्यकारों के इस मुखर आक्रोश का समर्थन किया, जिससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर इसकी गूंज हुई। संस्कृति की दुनिया के ये सम्मानित महारथी, सीधे-सीधे राजनीतिक सवाल उठा रहे हैं। 'नफरत की राजनीति, असहिष्णुता, सांप्रदायिकता, फासीवाद’ के खिलाफ तमाम रचनाकारों, संस्कृतिकर्मियों ने जिस तरह सुर में सुर मिलाया है, वह आने वाले दिनों में केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के खिलाफ बुद्धिजीवी तबके की हुंकार का रूप ले सकती है। इतनी बड़ी संख्‍या में कलम और आवाज के वरिष्ठ और युवा सिपाहियों द्वारा देश में अभिव्यक्ति की आजादी पर हो रहे हमलों, धार्मिक विद्वेष फैलाने वाली शक्तियों को केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा प्रश्रय देने और कन्नड़ विचारक-लेखक एम.एम. कलबुर्गी की हिंदुत्ववादी ताकतों द्वारा हत्या के विरोध में साहित्य अकादमी के नहीं खड़े होने पर आवाज उठाने का बड़े राजनीतिक-सामाजिक फलक पर असर पडऩा अवश्यंभावी है। 

साहित्य अकादमी के पुरस्कारों को वापस करने का सिलसिला जारी है। साहित्य अकादमी के अलावा राज्य सरकारों के पुरस्कारों को भी लेखक वापस कर रहे हैं। दूसरी विधाओं के संस्कृतिकर्मियों से भी अपील की जा रही है। इस महत्वपूर्ण परिघटना पर केंद्र सरकार का रुख इतना शर्मनाक है कि उससे आने वाले दिनों में विरोध में खड़े संस्कृतिकर्मियों की जमात और बढऩे वाली है। देश के संस्कृति मंत्री महेश शर्मा ने बेहद अहंकार से कहा, 'अगर लेखक कह रहे हैं कि उनके लिए लिखना मुश्किल हो रहा है तो पहले वे लिखना बंद करें, फिर हम देखेंगे। ये पुरस्कार लेखकों को लेखकों द्वारा दिए गए थे, इसे अगर वे लौटाना चाहते हैं तो इससे सरकार का कोई लेना-देना नहीं है। पुरस्कार लौटाना उनका निजी फैसला है, हमें यह स्वीकार्य है।’ इस तरह केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने अपनी तरफ से एलान कर दिया है कि वह उस दिन का इंतजार कर रही है, जब लेखक लिखना बंद कर दें। गौरतलब है महेश शर्मा ही वह मंत्री हैं जिन्होंने दादरी में गोमांस खाने की अफवाह पर अखलाक की हत्या को क्रिया की प्रतिक्रिया बताया था और हत्यारी भीड़ का पक्ष लेते हुए बयान दिया था कि इस भीड़ ने अखलाक की जवान बेटी को कोई नुकसान नहीं पहुंचाया था। इससे पहले संस्कृति मंत्री कह चुके थे कि उनके मंत्रालय के तहत आठ संस्थाएं आती हैं और इनका शुद्धीकरण जरूरी है। साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विश्वनाथ तिवारी ने पुरस्कार लौटाने वालों पर तीखी टिप्पणी की, जिससे लेखक समुदाय और अधिक क्षुब्‍ध हो गया। अंग्रेजी की मशहूर लेखिका नयनतारा सहगल ने जब पुरस्कार लौटाया तो उस पर विश्वनाथ तिवारी का कहना था कि सहगल की पुरस्कृत किताब को अकादमी ने कई भारतीय भाषाओं में अनुवाद कराया था। इससे उन्हें बहुत कमाई हुई। अब वह पुरस्कार राशि लौटा सकती हैं लेकिन उन्हें जो साख अकादमी के पुरस्कार से मिली, उसका क्या। इस पर नयनतारा सहगल ने करारा जवाब दिया कि पुरस्कार उनके लिए सम्मान था लेकिन उन्हें बतौर लेखक साख पहले मिल चुकी थी। उन्होंने और अशोक वाजपेयी ने अकादमी को पुरस्कार लौटाने के साथ-साथ एक लाख रुपये का चेक भी लौटाया है। मलयालम और अंग्रेजी भाषा के कवि के. सच्चिदानंदन और उपन्यासकार शशि देशपांडे ने साहित्य अकादमी से रिश्ता तोड़ लिया है। उनका मानना है, 'अकादमी को इस संकट के दौर में जब साहित्यकारों के साथ खड़ा होना चाहिए, तब वह सत्ता के साथ खड़ी है। लेखकों की संस्था लेखकों का अपमान करने पर उतारू है, उनसे पुरस्कार राशि वापस मांगना कितना शर्मनाक है।’ 

जो भी लेखक-साहित्यकार पुरस्कार लौटा रहे हैं, वे खुलकर अपनी असहमति भी दर्ज करा रहे हैं। जिन साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेताओं ने अभी तक पुरस्कार नहीं लौटाए हैं, उनकी घेराबंदी अलग-अलग अंदाज में हो रही है। उनसे पूछा जा रहा है, आपकी पॉलिटिक्स क्या है या फिर कहा जा रहा है, तय करो किस ओर हो तुम। फेसबुक सहित बाकी सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर इस तरह की पोस्ट की भरमार है। लेखक-रचनाकार-रंगकर्मी भी अपने पुरस्कार लौटाने की घोषणा पहले इन साइट्स पर ही कर रहे हैं। इस तरह का स्वत:स्फूर्त असंतोष पहली बार देश भर में लेखकों, साहित्यकारों और रंगकर्मियों में देखने को मिल रहा है। युवा साहित्यकारों में अमन सेठी ने अपना पुरस्कार वापस दिया है। वही मृत्युंजय प्रभाकर ने साहित्य अकादमी द्वारा प्रकाशित अपनी पहली कविता पुस्तक वापस लेने की घोषणा की है। 

पुरस्कार और साहित्य अकादमी की फेलोशिप लौटाने की घोषणा करने वाली वरिष्ठ और बेबाक-निडर अंदाज के लिए मशहूर लेखिका कृष्णा सोबती ने बताया, 'बहुत ही खराब दौर है देश में। हमें बोलना ही होगा। बाबरी और दादरी को दोबारा यह देश नहीं झेल सकता। अब नहीं बोले, तब फिर कब बोंलेंगे।’ वरिष्ठ कवि मंगलेश डबराल ने राजेश जोशी के साथ साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाया। मंगलेश डबराल ने आउटलुक को बताया, 'देश भर से लेखकों का इतनी बड़ी संख्या में पुरस्कार लौटाना यह बताता है कि लेखक कितनी घुटन में जी रहे हैं। लेखकों की दुनिया में पहली बार ऐसा हो रहा है। ऐसा नहीं कि इससे पहले दमन-उत्पीड़न की घटनाएं नहीं हुई हैं। अब गुणात्मक रूप से इन दमनकारी घटनाओं की संख्या में बढ़ोतरी हो रही है। चारों तरफ से घेराबंदी है। किसी भी तरह लोगों को खामोश करने की साजिशों को राजनीतिक प्रश्रय मिला हुआ है। ऐसे में लेखक जो कर सकता है, वही वह कर रहा है। आज जब सांप्रदायिक फासीवाद हमारे दरवाजे तक आ गया है, हम सबको बोलना होगा। ऐसा नहीं है कि इससे फर्क नहीं पड़ता। फर्क पड़ता है और आने वाले दिनों में इसकी गूंज और बढ़ेगी। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी हमारी आवाजें पहुंचेगी और भारत की असल स्थिति सामने आएगी। भारतीय लेखकों-साहित्यकारों और संस्कृतिकर्मियों के लिए यह ऐतिहासिक मुकाम साबित होगा।’

यह बात सही दिखाई दे रही है। अलग-अलग भाषाओं के लेखकों में जबर्दस्त हलचल है। पंजाबी के 11 लेखक पुरस्कार लौटा चुके हैं। इसमें पंजाबी के लोकप्रिय कवि सुरजीत पातर भी शामिल हैं। उन्होंने बताया कि इस विविधापूर्ण देश में लेखकों-विचारकों और विद्वानों की हत्या कष्ट दे रही है। इससे भी ज्यादा कष्ट इस बात का है कि ये हत्यारे खुले घूम रहे हैं या फिर भ्रष्ट नेताओं से संरक्षण पा रहे हैं। इसी तरह के आक्रोश के साथ कवि जसविंदर और दर्शन भुल्लर, उपन्यासकार बलदेव सिंह सादकनामा और अनुवादक चमनलाल ने अपने पुरस्कार अकादमी को लौटाए हैं। इसी क्रम में बच्चों के लेखक हरदेव चौहान ने एनसीईआरटी द्वारा उन्हें दिए गए राष्ट्रीय पुरस्कार को लौटा दिया है।

इस शासन के खिलाफ बेचैनी किस कदर तारी है कि वरिष्ठ और युवा संस्कृतिकर्मी अपना नाम विरोध करने वालों की सूची में दर्ज कराना चाहते हैं। अभी तक इस सूची में पहली रंगकर्मी शामिल हुईं माया कृष्णाराव। उन्होंने संगीत-नाटक अकादमी को पुरस्कार लौटाते हुए कहा कि जिस तरह की फासीवादी संस्कृति केंद्र और राज्य सरकारें फैला रही हैं, उसका विरोध जरूरी है। वैसे विरोध के इस तरीके के खिलाफ भी लेखकों ने बोलना शुरू कर दिया है। इसमें अभी तक सबसे बड़ा नाम है वरिष्ठ आलोचक नामवर सिंह। वामपंथी लेखक संगठन से संबद्ध नामवर सिंह ने खुलकर कहा कि अखबारों में नाम के लिए लेखक पुरस्कार लौटा रहे हैं। इन लेखकों को साहित्य अकादमी पर निशाना नहीं साधना चाहिए था क्योंकि यह लेखकों की निर्वाचित संस्था है। इस तरह लेखकों का एक तबका जो नामवर सिंह से पुरस्कार की वापसी की मांग कर रहा था, उसे नामवर ने जवाब दिया। ऐसा नहीं कि नामवर ने ऐसा पहली बार किया। इससे पहले चाहे वह छत्तीसगढ़ में रमन सिंह के साथ मंच शेयर करने की बात हो या फिर केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह के साथ मंच पर रहने का मुद्दा रहा हो वह हर बार सवालों में घिरे रहे। उनकी इस प्रतिक्रिया पर मुस्लिम सवालों पर मुखर लेखिका शीबा असलम फहमी ने टिप्पणी की, 'इससे नामवर सिंह की प्रतिबद्धता सामने आती है।’ 

देश में कश्मीर से लेकर केरल तक के रचनाकार बढ़ती 'फासीवादी’ संस्कृति के खिलाफ लामबंद हो रहे हैं। कश्मीरी लेखक गुलाम नबी ख्याल ने पुरस्कार लौटाया तो केरल की प्रसिद्ध लेखिका सारा जोसेफ ने भी लौटाया। कन्नड़ लेखक और अनुवादक डी.एन. श्रीनाथ, कन्नड अनुवादक जी. एन. रंगानाथ राव ने साहित्य अकादमी लौटाया। गुजरात के कवि अनिल जोशी, लेखक गणेश देवी ने बिगड़ते सांप्रदायिक माहौल के विरोध में इस्तीफा दिया। कर्नाटक के लेखकों ने साहित्य अकादमी के साथ-साथ राज्य अकादमी के पुरस्कारों को लौटाने का फैसला किया है। 

खबर लिखे जाने तक तीनों लेखक संगठनों-प्रलेस, जलेस और जसम ने अपनी तरफ से लेखकों से साहित्य अकादमी के पुरस्कार वापस करने की कोई अपील तो नहीं की थी। लकिन इन तीनों संगठनों ने साहित्य अकादमी के रवैये के खिलाफ प्रदर्शन करने का फैसला जरूर किया है। इस क्रम में इंडियन पीपुल्स थिएटर एसोसिएशन (इप्टा) ने अपील जारी करके तमाम कलाकारों से कहा कि वे अपने पुरस्कार लौटा दें। इप्टा के अध्यक्ष रनबीर सिंह ने कहा, 'नर्तकों, संगीतकारों, नाटककारों, निदेशकों, कलाकारों, चित्रकारों को अपने पुरस्कार अभिव्यक्ति की आजादी की मुहिम के समर्थन में लौटा देने चाहिए। सभी को अकादमी के पदों से भी इस्तीफा दे देना चाहिए।’ रनबीर सिंह ने बताया, 'अभिव्यक्ति की आजादी सिर्फ शब्दों से नहीं होती। इसका ताल्लुक तमाम तरह के रचनात्मक रूपों से होता है। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भाजपा के संकीर्ण और तानाशाही भरे रवैये के विरोध में उठ रही आवाजों को और अधिक मजबूत करने की कोशिश होनी चाहिए।’ कश्मीरी विद्वानों के संगठन अदीबी मरकज कमराज ने भी पुरस्कार लौटाने वाले साहित्यकारों का समर्थन किया है। इस संगठन ने मांग की है कि साहित्य अकादमी को देश भर में चल रहे सांप्रदायिक उन्माद और लेखकों की हत्याओं के खिलाफ अपनी चुप्पी को तोड़ना चाहिए। अब विरोध में संगठित आवाजें भी उठ रही हैं। कोंकणी भाषा के 15-20 साहित्यकार अपने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने की तैयारी में हैं। ये लेखक गोवा कोंकणी लेखक संघ से संबद्ध है। इस बारे में साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने वाले कोंकणी लेखक एन.शिवदास ने बताया, 'हम चार-पांच लोग करीब 15-20 लेखकों से संपर्क में हैं और हम विरोध में अपनी आवाज बुलंद करेंगे। गोवा लेखकों के लिए सुरक्षित जगह नहीं है, हमें भी यहां धमकियां मिलती रहती हैं।’

ऐसा लगता है कि विरोध में उठे ये स्वर अभी थमने वाले नहीं। 'सांस्कृतिक तानाशाही’ की दस्तक के खिलाफ उठी ये आवाजें पब्लिक इंटिलेक्टचुअल की जरूरत को और गहराई से हमारे सामने पेश कर रही हैं। बेचैनी बढ़ रही है लगातार और उसकी अभिव्यक्तियां भी।  

आउटलुक हिंदी से साभार, मूल स्रोत :
http://www.outlookhindi.com/country/issues/historic-decision-authors-rejection-and-resgination-on-rise-4587

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