Wednesday, December 9, 2015

रंग-दर्शक और रंग-स्थापत्य

नाटक को पंचमवेद कहा गया है, उसकी वजह उसका दर्शक है। प्रदर्शनकारी कलाओं में दर्शक की उपस्थिति नितांत आवश्यक  है। बिना रसिक दर्शक के यह कला निष्प्राण है। एक अच्छा वक्ता, नेता, प्रवचनकर्ता चाहता है कि जब वह बोले तो उसे सुनने वाले बड़ी तादाद में न केवल उपस्थित रहें बल्कि उसके साथ एक प्रकार का तादात्मय स्थापित कर समय-समय पर ताली बजाकर नारे लगाकर उसे रिस्पांस करें।आजकल तो बाक़ायदा इसका पूर्वाभ्यास भी कराया जा रहा है ।

एकल नाटक के मंचन के दौरान मैंने महसूस किया है कि कलाकार , नाट्य अवधि यदि एक घंटे बताता है और जब वह नाट्य मंचन करने उतरता है और उसे दर्शकों  का रिस्पांस मिलने लगता है तो उसकी अवधि कब सवा घंटे हो जाती है पता ही नहीं चलता। तीन-चार एकल प्रस्तुतियों का मैं प्रत्यक्ष साक्षी हूं। बाकी नाटकों से भी दर्शक के रिस्पांस में समयावधि को बढ़ते देखा जा सकता है। संगीत सभाओं में भी श्रोताओं की उपस्थिति कलाकार को अपने प्रदर्शन  को दोहराने के लिए बाध्य करती है।दर्शको का रिस्पांस ही कलाकार मे नई ऊर्जा का संचार करता है ।

भाई अख्तर अली जो एक नाट्य लेखक हैं, उन्होंने ‘‘नाटक देखना एक कला‘‘ की अपनी टिप्पणी में यह उल्लेखित किया है की जितनी कलात्मकता के साथ नाटक खेला जाता है उतनी ही रोचकता से नाटक देखा नहीं जाता। नये दर्शक को नाटक देखने का प्रशिक्षण दिये जाने का सुझाव उन्होंने दिया । एक अन्य वरिष्ठ रंगकर्मि साथी वाहिद शरीफ़  ने कहा है कि इस बार के रायपुर के मुक्ताकाश मंच पर आयोजित 19वें मुक्तिबोध राष्ट्रीय नाट्य  समारोह में गंभीर और सीरियस दर्शकों  की कमी खलती रही ।

   मैं भाई अख्तर और वाहिद शरीफ की  बात से सहमत हूँ, परंतु मैं कुछ ऐसी बातों की ओर ध्यान आकर्षित करना चाहता हूं जिस पर सामान्यतः हमारे रंगकर्मियों, निर्देशकों , आयोजकों, समीक्षकों का ध्यान कम ही जाता है। वो है हमारा दर्शक  कौन है? वो कहां से, कैसे आता है ? कौन उसे बुलाता है ? उसकी रूचि क्या है ? कहीं वो ‘टाईमपास’ तो नहीं है। चार-पांच अलग-अलग स्थानों के मेरे अपने अनुभव हैं ।

   दिल्ली, मुम्बई, बैंगलौर के प्रेक्षागृह  में जहाँ सालभर थियेटर होता है वहाँ के दर्शक  अखबारों, वेबसाईट और अन्य माध्यमों से जानकारी प्राप्त करके पहले से ही नाटक देखने का मन बना लेते हैं, टिकिट ले लेते हैं, यहाँ कभी कभार हमारे जैसे लोग जो भूले भटके इन शहरो में पहुंच जाते हैं तो अखबार से पढ़कर  नाटक देखने आ   जाते हैं। अक्सर यहाँ अच्छे नाटकों के टिकिट उसी दिन मिलना मुश्किल होती हैं जबकि हमारे शहर की तुलना में नाटकों की टिकिट यहाँ सिनेमा की तुलना में काफी महंगे होते हैं। यहाँ नाटक प्रारंभ होने के बाद दर्शकों  के प्रवेश  वर्जित होता है, प्रेक्षागृह मे  दर्शक की संख्या भी सीमित होती है। अक्सर यहाँ जाने पहचाने दर्शक या कहें प्रशिक्षित दर्शक ही दिखाई देते हैं। कुछ नये लोग भी दिखते हैं जिन्होंने पहले कहीं नाटक देखा हो। नाटक देखने का चशका अफीम की तरह होता है एक बार लग जाए तो कदम बार-बार प्रेक्षागृह  की ओर चल पड़ते हैं।
गुड़गाँव में ‘जमूरा‘ जैसे प्रेक्षागृह  भी है जो बड़े और पैसे वालों के मनोरंजन के लिए बनाये गये हैं। यहाँ बहुत से मनोरंजन शो के साथ नाटकों की प्रस्तुति भी प्रोफ़ेशनल  आर्टिस्टों के माध्यम से नियमित होती है। यहाँ अधिकांश सेलिब्रिटी नाटक खेले जाते हैं जिसके बारे में बात करना, अभिजात्य वर्ग के लिए स्टेटस सिंबल बन गया है।

   दूसरा अनुभव भोपाल के भारत भवन का है जहाँ सुधी दर्शको के साथ ब्यूरोक्रेट नियमित नाटक देखने आते हैं। सह एक प्रकार से पढ़े लिखे लोगों के मिलने-जुलने बातचीत का अड्डा । जहाँ और बहुत सारी प्रदर्शनकारी कलाओं की उपस्थिति, साहित्यिक आयोजनो की मौजूदगी  है।

जबलपुर के विधुत मंडल द्वारा शहर के एक कोने मे बनाये गये तरंग आडिटोरियम में हमारे विवेचना के साथी लम्बे समय से विद्युत मंडल के सहयोग से नाट्य समारोह/मंचन करते हैं। नाटक की आधी से ज्यादा सीटें/टिकट विद्युत मंडल के लोगों के लिए होती है। दर्शको में ज्यादातर लोग विद्युत मंडल और उसके आसपास के होते है।

भिलाई के नेहरू कल्चर सेंटर में हमारे इप्टा के साथी आसपास  के बच्चों को लेकर लम्बे अरसे से गर्मियों में नाट्य शिविर  करके उसमें नाटक तैयार करते हैं फिर उसकी प्रस्तुति । इस प्रस्तुति में भिलाई स्टील प्लांट के अधिकारी तथा उन बच्चों के माता-पिता दोस्त-यार होते है जिन्होंने शिविर मे भाग लिया है , कुछ कला प्रेमी भी होते हैं ।

रायपुर में जहाँ हम नियमित नाट्य प्रस्तुति नहीं कर पाते और समारोह के दौरान हमारी प्रस्तुति कभी महाराष्ट मंडल कभी रंगमंदिर और इस बार संस्कृति विभाग के मुक्ताकाश मंच पर हुई, के दर्शको  में कभी बदलाव दिखा। रंग मंदिर और महाराष्ट्र मंडल में टिकिट लेकर नाटक देखने वाले सारे शौकीन लोग, समाज के पढ़े लिखे, बौद्धिक वर्ग के लोग आते रहे हैं जिन्होंने नाटक देखने का एक संस्कार हासिल कर लिया है किंतु मुक्ताकाश  मंच जहाँ सालभर बहुत सारी हल्की फुल्की, सांस्कृतिक गतिविधियों ,आयोजन होते रहते है। वहाँ घुमते-फिरते टाइमपास करने वाले दर्शक  की आवाजाही भी बनी रहती है। वे अपने टेस्ट की , टाईम पास चीजें देखने आते हैं। यदि उन्हें कोई गंभीर प्रस्तुति दिखाई जायेगी तो वे बीच से उठकर चल देंगे । मोबाईल पर बात करने लगेंगे। अपने साथ छोटे बच्चों को ले आयेंगे। चूंकि ये संस्कृति विभाग का परिसर है इसलिए यहां आने वाले बड़े अधिकारी/नेता पावरफूल दर्शको की उपस्थिति और उनका व्हीआईपी रूतबा भी गंभीर प्रस्तुतियों के लिए  अवरोध पैदा करता है, किंतु आयोजक की विवशता हो जाती है कि वे परिसर का ऋण चुकाये। ऐसे व्हीआईपी लोग सामने बैठकर चाय काफी पीते हैं । नाशता भी करते हैं जरूरत पड़ती है तो मोबाईल से बात भी करते हैं, उठकर भी चल देते हैं ।

   मुक्ताकाश मंच पर साल भर होने वाली प्रस्तुतियों या किसी संस्था से प्रायोजक के रूप में मिला अनुदान, एजेंडा, बजट आधारित प्रस्तुतियां कैसी होंगी यह कह पाना मुश्किल  है। हमने बहुत से आयोजनों में खराब नाटकों / करावके पर बेसूर्रे गायकों की प्रस्तुति से गंभीर दर्शकों / श्रोताओं  को बिदकते भी देखा है। मेरा अपना अनुभव है कि एक आयोजक के नाते आपकी यह पहली जवाबदारी है कि आप अपने दर्शक  को श्रेष्ठतम प्रस्तुति देखने का अवसर दें। प्रस्तुतियों के चयन में जान-पहचान, अपने लोग को भूलकर उसे रंगकर्म की कसौटी पर परखें वरना एक खराब प्रस्तुति और उसकी दूसरे दिन दर्शक तक पहुंचने वाली रिपोर्ट अगले दिन के नाटक को प्रभावित करती है। जिस तरह हर माता-पिता को अपनी कानी कुबड़ी संतान भी अच्छी लगती है। उसी तरह रचनाकार/निर्देशक /कलाकार को अपनी दोयम दर्जे की प्रस्तुति भी बहुत से मुगालते के साथ सीना चौडा करके अपनी मूर्खता पर इतराते रहने पर विवश करती है। उसका बचाकूचा विवेक अखबारो मे ब्रोसर के आधार पर छपी प्रशंसा वाली समीक्षा नष्ट कर देती है ।

   जब हम नाटकों के दर्शको  के प्रशिक्षण की बात कर रहे हैं क्या हम ईमानदारी से नाट्य प्रस्तुति कह रहे हैं ? क्या हम ईमानदारी से यह कह सकते हैं कि एक संगीतकार, गायक, नृतक, पेंटर की तरह एक रंगमंच का कलाकार भी रोज अपनी प्रेक्टिक्स के लिए समय निकालता है ? नाटक की एक डेढ़ माह की रिर्हसल में आने की आनकानी करने वाला कलाकार कैसे सोच सकता है कि उसकी आधी-अधूरी तैयारी, प्रस्तुति को दर्शक गंभीरता से लेगा ?

जहाँ तक रंग दर्शक की बात है तो वह एक पाठक की तरह ही अमूर्त होता है । निर्देशक / लेखक नही जानता की उसकी कृति को कौन देखेगा ,कौन पढ़ेगा । किन्तु एक बडा लेखक , रचनाकार , निर्देशक अपनी कृति के प्रति निर्मम भी होता है । वह जब तक अपने किये से संतुष्ट नही होता अपनी चीज़ों को पब्लिक नही करता ।  
रतन थियम ने अपने साक्षात्कार मे कहा है की यदि वे अपने नाटकों की रिहर्सल से संतुष्ट नही होते तो अपनी नाट्य प्रस्तुति को छोड़ देते हैं । यही वजह की उनका नाटक इतर भाषा का होते हुए दर्शको को अपने साथ जोड़े रखता है ।हमे रायपुर मे उनके नाटक के दो शो कराने पड़े थे ।सवाल ये भी है की क्या हमारे रंग निर्देशक अपने कार्य को लेकर इतने निर्मम हैं ।नाटक को लेकर उनकी और कलाकारों की तैय्यारी कैसी है?

जब हम रंग दर्शको की बात करते है तो हमे रंग स्थापत्य के बारे मे भी विचार करना चाहिए । अभी हम जिन स्थानों पर नाट्य प्रस्तुति कर रहे हैं क्या वो स्थान , मंच नाट्य स्थापत्य के अनुरूप है ।पूरे छत्तीसगढ मे जो सबसे पहली रंगशाला होने के गौरव से लबरेज़ हुए पर्यटन विभाग के साथ घूम रहा है वहाँ एक भी सर्वसुविधा युक्त प्रेक्षागृह नहीं है । गाँव गाँव मे सांस्कृतिक चबूतरे और आडिटोरियम के नाम पर रायपुर जैसे शहर मे जो संरचना मौजूद है उसमें एक गंभीर नाट्य प्रस्तुति कैसे हो ये चुनौती हमेशा बनी रहती है ।

- सुभाष मिश्र
सूत्र पत्रिका  के लिए रंग संवाद पर प्रत्येक बुधवार को लिखा जाने वाला कालम ।

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