Saturday, February 27, 2016

जेएनयू पर बेशर्म हमलों के विरोध में इप्टा

भारतीय जन नाट्य संघ इप्टा  राष्ट्वाद के नाम पर हो रहे शैक्षणिक संस्थानों पर सुनियोजित हमले और अभिव्यक्ति, भाषण और असहमति की स्वतंत्रता के अधिकार के आपराधिक अतिक्रमण की कड़ी
भर्त्सना करता है।

जिस बेशर्मी के साथ जे एन यू, दिल्ली विश्वविद्यालय, हैदराबाद सैण्ट्र्ल यूनिवर्सिटी के छात्रों और अध्यापकों पर निराधार -अपमानजनक आरोप लगाए जा रहे हैं और उनके खिलाफ मीडिया-अदालतें  खोल दी गई हैं वह उनके संवैधानिक अधिकारों का अतिक्रमण हैं। यह हमला कोई इकलौता और अचानक हुआ हमला नहीं है। यह भारतीय संविधान में सन्निहित बुनियादी मूल्यों के पक्ष में  खड़े वैज्ञानिक और धर्मनिरपेक्ष विचार के खिलाफ चल रही एक सोची समझी साजिश का एक चरण है। दक्षिणपंथी ताकतें एक खतरनाक असहिष्णुता और उन्माद की संस्कृति को एक व्यवस्थित और नियमित तरीके से बढ़ावा दे रही है, जो भावनाओं की आड़ में आपराधिक सामूहिक हिंसा को जायज ठहराती है।  ऐसी कई घटनाएं हैं, जिनमें नरेन्द्र डाभोलकर, गोबिन्द पानसरे, एम एम कलबुर्गी जैसी प्रगतिशील और जन-पक्षधर आवाजों की हत्या कर दी गई है। जिन बुद्धिजीवियों, लेखकों, कलाकारों और सांस्कृतिक कार्यकर्ताओं ने अभिव्यक्ति और असहमति की आज़ादी पर हुए इन आपराधिक हमलों  विरोध किया वे सभी अपमान और उत्पीड़न का निशाना बने हैं। दक्षिणपंथी विचारधारा के लोग शब्दों और संकल्पनाओं को मनमाफिक मायने दे रहे हैं। देशद्रोह को सभी किस्म के विचार और असहमति को दबाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है, जबकि देशद्रोह की कानूनन व्याख्या इससे एकदम अलग है। कानून की तोड़ी मरोड़ी व्याख्या के आधार पर दिल्ली पुलिस द्वारा किये जा रहे प्रो. अली जावेद, प्रो. निर्मलांग्शु मुखर्जी, प्रां. विजय सिंह, प्रो. तृप्ता वाही और प्रो. एस ए आर गीलानी के उत्पीड़न की हम भर्त्सना करते हैं।

विश्वविद्यालयों  पर हालिया हमले एक कोशिश हैं तर्क और लोकतंत्र की उन आवाजों को दबाने की जिन्होंने दक्षिणपंथ द्वारा  पोषित किए जा रहे लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष संस्कृति पर किए जा रहे हमलों के खिलाफ एक देशव्यापी आंदोलन को नेतृत्व प्रदान किया। जे एन यू छात्रसंघ के अध्यक्ष कन्हैया कुमार को एक झूठे वीडियो के आधार पर हिरासत में रखना उनकी एकाधिकारवादी, दलित विरोधी और सांप्रदायिक मंशा को उजागर करता है। जिस तरह से कबीर कला मंचा के दलित साँस्कृतिक कार्यकर्ताओं को लगातार प्रताड़ना और हमलों को झेलना पड़ रहा है, जिस तरह से 19 फरवरी को एक मुस्लिम वरिष्ठ पुलिसकर्मी के साथ बदतमीजी करने और हमला करने वाले तत्वों पर अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है और जिस तरह से कन्हैया कुमार और सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गठित वरिष्ठ वकीलों के पैनल पर पर न्यायिक प्रक्रिया की मर्यादा का उल्लंघन करके हमला करने वाले लोगों का सम्मान किया जा रहा है, उनकी एकाधिकारवादी, दलित विरोधी और सांप्रदायिक मंशा और स्पष्ट रूप से उजागर होती है।

प्टा का यह स्पष्ट मत है कि हैदराबाद सेन्ट्रल युनिवर्सिटी में रोहिथ वेमुला और उनके साथी छात्रों पर झूठे इल्जाम लगाकर उनको  परेशान किया गया और उनके सामाजिक बहिष्कार की स्थितियां पैदा की गई, जिसके चलते रोहिथ की जान गई । यह सब दक्षिपंथी व्यवस्था तंत्र द्वारा छात्र-दलित-अल्पसंख्यक एकजुटता को दबाने के लिए किया गया। आई आई टी -बी एच यू के प्रो. संदीप पांडे की बर्खास्तगी और ग्वालियर में प्रो. विवेक कुमार तथा बी एच यू में प्रो. बदरी नारायन पर हुए हमले सत्ता तंत्र के दलित-दमित विरोधी चरित्र का प्रमाण है। इस बात में कोई शक नहीं है कि मौजूदा सरकार एक दमनकारी एवं प्रतिगामी व्यवस्था की संरक्षक है।इप्टा जेएनयू एवं देश के अन्य विश्वविद्यालयों के छात्रों एवं अध्यापकों के नेतृत्व में अभिव्यक्ति की आज़ादी के लिए चल रहे संघर्ष का पुरजा़ेर समर्थन करता है। दमन और सामूहिक हिंसा की संस्कृति और लोकतांत्रिक, प्रगतिशील एवं धर्मनिरपेक्ष मूल्यों पर हमला करने वालो को मिल रहे सत्ता संरक्षण के विरूद्ध उनकी इस लड़ाई में इप्टा उनके साथ संघर्षरत रहेगा। इप्टा का राष्ट्रीय सचिव मंडल देशभर में फैली इप्टा की सभी इकाइयों से ये अपील करती है कि वे इप्टा की परंपरा को बनाए रखते हुए समानधर्मी संगठनों के साथ मिलकर भारत की लोकतांत्रिक, प्रगतिशील एवं धर्मनिरपेक्ष संस्कृति के पक्ष में कार्यक्रम करें।
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यह वक्तव्य इप्टा के राष्ट्रीय मंडल की 20 फरवरी 2016 को हुई लखनउ बैठक में श्री रनबीर 
सिंह -अध्यक्ष,  हिमांशु राय -उपाध्यक्ष, राकेश -महासचिव, राजेश श्रीवास्तव -संयुक्त सचिव,  मनीष श्रीवास्तव -संयुक्त सचिवद एवं विनीत तिवारी -आमंत्रित सदस्य एवं महासचिव, म.प्र. प्रगतिशील लेखक संघ द्वारा   जारी किया .


Thursday, February 18, 2016

आजादी... श्‍श्‍श्‍श.. राष्ट्रद्रोही हैं क्या?

क्‍या कहेंक्‍या न कहें? किसी पोस्‍ट या टिप्‍पणी के साथ किसे टैग करेंकिसे न करें? क्‍या साझा करें, क्‍या न करें? ये दुविधा भी है और मुश्किल भी ? जो भी है पर ये दिनों-दिन बढ़ती जा रही है. अगर नाम और आस्‍था के तरीके कुछ बताते हैं और पहचान की कई परत चढ़ी है तो दुविधाएं या मुश्किलें और बढ़ जा रही हैं. अनेक पहचान यानी अनेक मुश्किलें. दुविधाओं की तह दर तह.

एक नई दुविधा/मुश्किल इन दिनों कई लोगों के सर आ खड़ी हुई है. क्‍या न कहें/क्‍या न करेंजो राष्‍ट्र से द्रोह न माना जाए. इस वक्‍त कोई तगमा बड़ी आसानी से मिल रहा है तो वह यही राष्‍ट्रद्रोह’ का है। जिसे देखिएवही बांटे जा रहा है। इसके साथ गंदी-गंदी गालियां, ढेरों विशेषण और लात-घूंसे बोनस में दे रहा है.

देखने और सुनने में तो यह मामूली सी बात लगती हैमगर ये सबके लिए मामूली नहीं है. हमारे समाज की दस फीसदी आबादी दुविधाओं/मुश्किलों से आजाद है. वह कुछ भी कर या कह सकती है. अब जो नब्‍बे फीसदी हैंवे भी दुविधाओं/ मुश्किलों से ऐसी ही आजादी चाहते हैं. खासतौर पर वे लोग जिनकी जिंदगी का नाम जद्दोजेहद है.

करीब तीन दशक से एक गीत जगह-जगह सभाओं और जुलूसों में सुना जा रहा है. इस गीत के लिखे रूप के बारे में पता नहीं. अलग-अलग समूह अलग-अलग तरीके से गाते हैं. महिलाएं अपने हिसाब से तो दलित अपने हिसाब से. अब मुश्किल यह है कि इस गीत में बार-बार आजादी का जिक्र आता है. दुविधा यह हैकहीं इसे गाना अब राष्‍ट्रद्रोह तो नहीं माना जाएगाजैसे हिंसा मुक्‍त माहौल की मांग करने वाली लड़कियां गाती हैं- आजादी ही आजादीहमें चाहिए हिंसा से आजादी... हमें चाहिए डर से आजादी... बहना मांगेजीने की आजादी... हमें चाहिए बराबरी का हक... हम लेकर रहेंगे बराबरी का हक. भेदभाव की हिंसा के शिकार दलित गाते हैं - हमें चाहिए जातिवाद से आजादी... हमें चाहिए छुआछूत से आजादी. हमें चाहिए साम्‍प्रदायिकता/ दंगाइयों से आजादी... हमें चाहिए मनुवाद से आजादी... शराब के खिलाफ आंदोलन करने वाली महिलाओं का झुंड गाता है... मेरी बहना मांगें शराब से आजादी मेरी सहेली मांगे सट्टा बाजारी से आजादी. दो जून रोटी के लिए जद्दोजेहद करने वाले गाते हैं... हमें चाहिए भूख से आजादी... हमें चाहिए रोजगार की आजादी... आजादी ही आजादी.

इतनी आजादीअब सवाल है कि कान में एक साथ पड़तीं आजादियों’ की गूंजकिन्‍हें नागवार गुजरेंगी?

दुविधा तो यह भी है कि फैज अहमद फैज की आजादी के मौके पर लिखी गई नज्‍म वह इंतजार था जिसकाये वह सहर तो नहीं...’ अब पढ़ा जाए या नहीं. साहिर लुधियानवी का गीत, ‘ये लुटते हुए कारवां ज़िंदगी के... जिन्हें नाज है हिन्द पर वो कहां हैं कहां हैं...’ सुना जाए या नहीं. और तो और... देखिए अदम गोंडवी उर्फ रामनाथ सिंह ने क्‍या लिख डाला'सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद हैं, दिल पर रखकर हाथ कहिए देश क्या आजाद है’'. ये सब तो चले गए. अब हमारी मुश्किल है, ये पढ़ें या सुनें या गाएं, तो कहीं राष्ट्रद्रोही तो नहीं कहे जाएंगे?


- नासिरूद्दीन, स्वतंत्र पत्रकार 


सौजन्य: प्रभात खबर ... 18 फरवरी 2016

Tuesday, February 9, 2016

स्त्री संवेदना का नाटक गबरघिचोर


संजीव चंदन
स्त्री की यौनिकता पुरुष प्रधान समाज के लिए हमेशा से चिंता का विषय रही है. अलग –अलग समय में यह चिंता रचनाकारों की रचनाओं से भी अभिव्यक्त होती रही है. लोक कथाओं और लोकमिथों में अन्य केन्द्रीय विषयों में से एक विषय स्त्री की यौनिकता भी हुआ करती है. इस विषय पर कहन के ढंग और कहने के उद्देश्य से ही रचनाकार की स्त्री के प्रति अपनी संवेदनशीलता का भी पता चलता है . 7 फरवरी को भारतीय रंग महोत्सव में भिखारी ठाकुर लिखित नाटक (गबरघिचोर- मूल नाटक ,पुत्रवध ) का युवा निर्देशक प्रवीण गुंजन के निर्देशन में मंचन हुआ . भिखारी ठाकुर, यानी भोजपुरी लोक के महान रचनाकार, के क्लासिक की मंच –प्रस्तुति इसलिए एक चुनौती है कि बिना उसके मूल स्वभाव को ज्यादा छेड़े उसे समसामयिक कैसे बनाया जाये और इसलिए भी कि उसकी कई प्रस्तुतियां अनेक बार हो चुकी हैं, तो नई प्रस्तुति को अलग और जरूरी कैसे बनाया जाये

कहानी के केंद्र में स्त्री की यौनिकता और उसके मातृत्व का अधिकार है. काम के लिए महानगर गया गलीज जब बरसों बाद लौट कर गाँव आता है , तो वह अपने बेटे ‘ गबरघिचोर’ को अपने साथ ले जाना चाहता है. यह उसके लिए इतना आसान नहीं रह जाता, जब गाँव का ही एक व्यक्ति ‘ गड़बड़ी’ उसे अपना बेटा बताता है, गलीज की अनुपस्थिति में उसकी पत्नी से उत्पन्न गड़बड़ी का बेटा . गलीज की पत्नी भी अपने बेटे को शहर भेजने के खिलाफ है . मामला पंचायत के पास जाता है और अंततः पंचायत उसे तीन टुकड़े में काटकर बराबर –बराबर तीनों दावेदारों के बीच बांटने का निर्णय देती है. नाटक के कथानक में कई विषय प्रत्यक्ष –परोक्ष रूप से व्याख्यायित होते हैं. पलायन, स्त्री के प्रजनन और श्रम पर पुरुष का अधिकार. बेटे के रूप में सम्पत्ति का उतराधिकार के अलावा श्रम के रूप में उसकी उपयोगिता पर पुरुष का अधिकार आदि विषय नाटक के कथानक से उभर कर आते हैं , और पुरुष नियंत्रित व्यवस्था सवालों के घेरे में आ जाती है, जो स्त्री की ‘ नियति’ तय करती रही है.

भोजपुरी के इस नाटक में लोक संवाद और संवेदना का मिठास है और पितृसत्तात्मक व्यवस्था को ग्राम समाज किन भोले तर्कों के साथ ढोती है, इसमें इसकी झलक भी मिलती है. हालांकि इस व्यवस्था को प्रश्नांकित करती, अपने हक़ के लिए तर्क उपस्थित करती स्त्री की भाषा में भी ग्राम समाज की भोली तर्क पद्धति ही उपस्थित होती है. भिखारी ठाकुर स्त्री संवेदना के रचनाकार रहे हैं, लोक का यह हिस्सा उनके रचनाकर्म की कालजयिता के एक कारणों में है. यह नाटक निर्देशक के लिए भी इसलिए चुनौती की तरह है कि सवाल उसके सामने होगा कि भिखारी ठाकुर की इस संवेदना के साथ वह कितना न्याय कर पाया है. क्या उसका मंचन टेक्स्ट की तरह अंततः स्त्री के साथ संवेदनशीलता के साथ न्याय कर पाता है ? यह सवाल इसलिए भी कि नाटक का विषय है विवाहेत्तर पुरुष से प्राप्त बेटे पर अधिकार प्रश्न और इस तरह स्त्री की यौनिकता- जो रचनाकारों से लेकर नीतिकारों तक का विषय रही है – जिसके कारण कुछ समझदार पुरुष वैराग्य लेते हुए दिखाए जाते रहे हैं,कामुकता को कोसते नजर आते हैं. ज़रा सी चूक नाटक में स्त्री को उपहास का पात्र बना सकती थी . लेकिन युवा निदेशक इसके मंचन और इसके साथ प्रयोगों में सफल रहे हैं, जिससे मंचन की संवेदना स्त्री के प्रतिऔर सशक्तता से जुडती है .

एक चर्चित क्लासिक में प्रयोगों की संभावनाएं बहुत कम होती हैं, मंचन की सफलता इस तथ्य में भी है कि वह कथानक के टाइम और स्पेस में रचकर उसे समकालीन भी बनाये. मूल टेक्स्ट में कुछ नये गीतों को जोड़कर यद्यपि प्रयोग भी किये गये हैं . मंचन के क्राफ्ट में हर पात्र एक अलग चरित्र है, तो समाज की एक समवेत सोच का प्रतिनिधि भी. वह खुद को जीता है और पात्रों के साथ सामाजिक हर्ष -विषाद –तर्क और प्रतिवाद को भी-परकाया प्रवेश का क्राफ्ट.

नाटककार और निदेशक की संवेदना स्त्री के साथ होने के कारण ही पुत्र पर अधिकार के हास्यास्पद बंटवारे के बावजूद स्त्री का पक्ष न सिर्फ उसके ममत्व के कारण मजबूत दिखता है , बल्कि उसकी अपनी यौनिकता पर उसके खुद के निर्णय से उसका पक्ष मजबूत होता है – वह दृढ़ता के साथ न सिर्फ विवाहेत्तर पुरुष के साथ अपने जाने की स्थितियां बताती है बल्कि अपने इस निर्णय के पक्ष में भी खाडी होती है और अपनी कोख पर अपने अधिकार के प्रबल पक्ष के साथ पंचों को निरूतर भी कर देती है – इस मायने में यह स्त्रीवादी कथ्य के रूप में है- आधुनिक स्त्री की चेतना से संपन्न. नाटक का संवाद ही स्पष्ट करता है कि ‘ तथाकथित पर पुरुष –गमन ’ को जब सीता नहीं बचा पाई तो साधारण स्त्री क्या – इस मामले में यह समसामयिक कथन सा है और समसामयिक हस्तक्षेप भी- अतिवादी सांस्कृतिक चेतना पर एक चोट.

मंचन के अंतिम आधे घंटों में एक प्रायः स्पष्ट कहानी के साथ दर्शकों को बांधे रखना भी निदेशक की सफलता ही है, क्योंकि हर दर्शक को यह स्पष्ट था कि क्या घटित होगा, लेकिन इस आधे घंटे की करुणा के साथ दर्शक बंधा रहता है – उद्दीपन का काम करता है निदेशक की परिकल्पना के साथ जोड़ा गया एक सोहर – जो न सिर्फ मातृत्व का कारुणिक प्रसंग उपस्थित करता है, बल्कि अट्टालिकाओं की हृदयहीनता को भी- महाकाव्य की आदर्श मां’ कौशल्या’ की लोकछवि इस सोहर में ह्रदयहीन रानी का है. निस्संदेह भारतीय रंग महोत्सव की यह ख़ास प्रस्तुति थी.

लेखक स्त्रीकाल के संपादक हैं. संपर्क: themarginalised@gmail.com

साभार  - http://www.streekaal.com/2016/02/Bharangam.html

अनहद नाद : जहाँ दर्शक रंगकर्मी बन जाता है!

§  धनंजय कुमार

नाटक आमतौर पर मंचों पर दृश्यों के माध्यम से रुपायित होता है और दृश्य दर दृश्य आगे बढ़ते हुए कथा और संदेश को दर्शकों के सामने रखता है. लेकिन अनहद नाद उस पारम्परिक तरीके से दर्शकों के सामने प्रस्तुत नहीं होता है.

यूँ तो मंच पर यह नाटक नाटककार की दृष्टि और उसके अपने विश्लेषण से उपजे अनुभवों और स्टेटमेंट तथा अभिनेताओं और अभिनेत्रियों के भावप्रवण अभिनय के माध्यम से दृष्टिगोचर होता है, लेकिन असली नाटक दर्शकों के भीतर मंचित होता है. कलाकार नाटककार के शब्दों-अंतरशब्दों, उनके भावों-अंतरभावों को अपने कुशल अभिनय से मंच पर उतारते हैं, लेकिन उन शब्दों और भावों का असली विस्तार प्रेक्षागृह में बैठे दर्शकों के मानस और हृदय पटल पर होता है, जहाँ दृश्य भी बनते हैं और कथा अपनी अर्थपूर्ण पूर्णता भी प्राप्त करती है. सच कहें तो नाटक कोई एक कहानी नहीं कहता, बल्कि प्रेक्षागृह में बैठे हर दर्शक के भीतर घट चुकी और घट रही कहानियों को गति देता है. उसका पुनरावलोकन कराता है और उसे स्वतः समीक्षक बनकर देखने की दृष्टि भी देता है. इस तरह यह नाटक मंजुल भारद्वाज के रंग सिद्धांत ‘थियेटर ऑफ रेलेवेंस’ के लक्ष्य को आकार देता है, स्थापित करता है कि पहला और सबसे महत्वपूर्ण रंगकर्मी दर्शक है.

यहाँ प्रेक्षागृह में बैठा दर्शक मंच पर साकार हो रहे दृश्यों को न सिर्फ देखता है, बल्कि नाटककार के शब्दों और शब्दों के खूबसूरत समायोजन से बने भावों की पट्टी से उड़कर स्वयं नाट्यलेखक और अभिनेता बन जाता है. और अपनी अपनी कहानियों को खुद के सामने ही प्रकट करता है और उसकी समीक्षा भी करता है. इस तरह मंजुल भारद्वाज के नाटक अनहद नाद को देखना एक अद्भुत अनुभव-संसार से गुजरना है. यह नाटक न सिर्फ नाटकों के तय पैमाने को तोड़ता है, बल्कि सीमाविहीन संसार गढ़ता है. गोस्वामी तुलसीदास की एक पंक्ति “जाकि रही भावना जैसी प्रभू मूरत देखी तिन तैसी” की तरह.

अनहद नाद में कोई कहानी नहीं है, लेकिन दर्शकों की अननिगत कहानियाँ इसमें बड़े ही खूबसूरत अंदाज में गूँथी हुई है ! अनहद नाद में कोई चरित्र नहीं है, लेकिन दर्शकों के जीवन के सारे चरित्र सजीव हो जाते हैं ! अनहद नाद में कोई संवाद नहीं है, लेकिन दर्शकों के भीतर संवादों की खूबसूरत लड़ी गरज उठती है ! अनहद नाद कानों से नहीं सुना जानेवाला स्वर है, लेकिन प्रेक्षागृह में बैठे दर्शक उन स्वरों को न सिर्फ सुनते हैं, बल्कि उनके उत्तर के लिए बेचैन भी होते हैं.

यह सिर्फ नाटक नहीं है, बल्कि जीवन को समझने और जीने की एक आध्यात्मिक यात्रा भी है. यह “बिन गुरू ज्ञान कहाँ से पावै” की सार्थकता पर प्रश्न खड़ा करता है और कहता है कि हर व्यक्ति अपना गुरू भी स्वयं है और शिष्य भी. यह नाटक दर्शकों को अपने अपने चेतना कक्ष के द्वार को खोलने के लिए प्रेरित करता है और फिर चेतना के कंधे पर सवार होकर प्रकृति और जीवन के सौंदर्य का रसास्वादन करने के लिए आमंत्रित भी करता है. 

इस नाटक की समीक्षा करना भी आसान नहीं है कि क्योंकि यह हर दर्शक को एक समीक्षक की दृष्टि देता है. कलाकारों में योगिनी चौक ने अद्भुत काम किया है! उसकी संवाद अदायगी और भाव भंगिमा रसपूर्ण हैं... रससिक्त हैं... रसों में डूबी हुई हैं. अश्विनी नांदेड़कर, सायली पावसकर, कोमल खामकर और तुसार म्हस्के ने भी खूबसूरत साथ दिया है. मंजुल भारद्वाज बतौर नाटककार और नाट्यनिर्देशक बेहद सफल हैं.  

(२२ जनवरी २०१६ – शुक्रवार को रात 8.30 बजे शिवाजी नाट्य मंदिर” मुंबई में मंचन की समीक्षा )

धनंजय कुमार
304, सुकांत को. ऑ. हा. सोसायटी, सेक्टर-3, आरडीपी-8, चारकोप, कांदिवली(प), मुम्बई- 40067. मोबाइल – 08080012313.